नेताजी सुभाषचंद्र बोस – १३

नेताजी
नेताजी

आख़िर जॉंच समिति का ‘निर्णय’ आ ही गया।

सुभाष का जवाब तथा उसमें वर्णित कॉलेज के भारतीय छात्रों पर किये जानेवाले अन्याय की घटनाओं के बारे में सुनकर दरअसल जॉंच समिति के सदस्य भौचक्के-से हो गये थे, अस्वस्थ हो चुके थे….लेकिन उनके भी हाथ बँधे हुए थे। वे सरकार के दृष्टिकोण से इस घटना, नहीं, ‘दुर्घटना’ की ओर देख रहे थे। छात्रों से अध्यापक को मारपीट की जाना और वह भी एक शिक्षासंस्था में, यह वाकई एक संगीन जुर्म था। वह घटित हुआ है कि नहीं यह निश्चित करना और यदि घटित हुआ है, तो संबंधित व्यक्ति माफ़ी मॉंगने के लिए तैयार हैं या नहीं, इसका पता लगाना, यही यह जॉंच समिति स्थापन करने का उद्देश्य था, फिर चाहे उस घटना की पूर्वपीठिका कुछ भी हो।

सुभाष के जवाब के कारण जॉंच समिति का काम आसान हो गया था और उसके माफ़ी न मॉंगने पर आशुतोषबाबू का काम मुश्किल हो चुका था। जॉंच समिति ने अपना निर्णय जाहिर किया – इस मामले में सुभाष दोषी है। आशुतोषबाबू के मन में सुभाष के प्रति रहनेवाली सदिच्छा कोई काम न आ सकी। साथ ही रिपोर्ट में छात्रों के बर्ताव पर भी फटकार लगायी गयी थी और सुभाष को कॉलेज से बरतरफ़ किये जाने का निर्णय भी उसमें जाहिर किया गया था। उसे कोलकाता विश्‍वविद्यालय की कार्यकक्षा में किसी भी कॉलेज में प्रवेश लेने से मना किया गया था। उसके लिए मानो शिक्षा के दरवा़जे बन्द ही हो चुके थे।

….सब कुछ ख़त्म हो चुका था। सुभाष को अपना भविष्य अन्धकारमय हो चुका रहने का एहसास हो गया। देशप्रेम को ‘गुनाह’ क़रार दिया गया था। लेकिन इतना सबकुछ होने के बावजूद भी वह मन से जरा भी हारा नहीं था। ‘सत्य के साथ मैंने प्रतारणा नहीं की और अन्याय के आगे शीष भी नहीं झुकाया’ इतनी बात उसे तसल्ली देने के लिए काफ़ी थी।

जॉंच समिति के अहवाल के जाहिर होने पर सरकार ने पुनः छात्रों की गिऱफ़्तारी शुरू कर दी। उसमें विशेष रूप से प्रेसिडेन्सी कॉलेज के छात्रों का ही समावेश था। अब सुभाष के लिए कोलकाता पहले जितना सुरक्षित नहीं रहा, यह एहसास जानकीबाबू तथा शरदबाबू को हो गया और वैसे भी शिक्षा का मार्ग बन्द हो चुका रहने के कारण सुभाष का कोलकाता में रहना फ़जूल था। इसलिए जानकीबाबू ने सुभाष को अपने साथ कटक वापस ले जाने का फ़ैसला किया।

मन में अनगिनत विचारों का कोलाहल लेकर ही सुभाष अपने माता-पिता के साथ कटक लौटने के लिए निकल पड़ा। आते समय उसके मन में – ऐसी मैंने कौनसी ग़लती की, जो यह सब मेरे ही साथ घटित हुआ, यही विचार मँड़रा रहा था। अब तक के जीवन में उसने जो प्रचण्ड तत्त्वज्ञानविषयक, सैद्धान्तिक ग्रन्थ पढ़े थे, उसमें इसका क्या उत्तर मिलता है, यही खोज उसका मन कर रहा था। माया के तत्त्वज्ञान का जो अर्थ उसे प्रतीत हुआ था, वह तो जड़ से ही हिल गया था। यह दुनिया यदि माया है, तो फिर वास्तव का दर्शन इतना दुखभरा कैसे हो सकता है? नहीं, बिल्कुल नहीं! यह जग माया हो ही नहीं सकता। उसका मन वास्तव के इस नंग-धड़ंग दर्शन से स्तंभित ही हो चुका था।

कटक वापस आने पर उसने चुपचाप अपनी क़िताबें बस्ते में रख दीं। अब करना क्या है, यह सवाल तो था ही। उसी समय कटक में कॉलरा की महामारी की शुरुआत हुई और सुभाष पुनः अपने पुराने पसन्दीदा काम पर लग गया – समाजसेवा। सुभाष के घर समविचारी मित्रों की मीटिंग हुई। मरी़जों की सेवाशुश्रुषा करने का काम सुभाष के मित्रों ने तय कर दिया। ग़रीब बस्तियों के चक्कर बढ़ने लगे। साथ ही, स्वामी विवेकानन्दजी के विचारों का प्रसार करना भी जारी ही था। उनकी सीख के अनुसार यदि युवाओं का शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक अभ्युदय करना हो, तो स्थायी तौर पर कुछ करना जरूरी था। फिर छात्रों के हॉस्टेल के मैदान पर तंदुरुस्ती के लिए हर शाम व्यायाम का आयोजन किया जाता। कभी-कभार किसी वक्ता का व्याख्यान आयोजित किया जाता, तो कभी सुभाष खुद ही किसी विषय पर बोलता था। सभी जातिधर्म के लोग इन उपक्रमों में एकदिल से सहभागी हो जाते थे। सुभाष की किसी भी जातिधर्म के साथ कोई दुश्मनी नही थी। इस तरह हररो़ज सुभाष का काफ़ी वक़्त इन उपक्रमों में व्यतीत होने लगा। इन सब बातों में साल कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला।

इस तरह अशान्त हो चुका मन अब धीरे धीरे शान्त होने लगा था। फिर सुभाष को लगा कि क्यों न कॉलेजप्रवेश के लिए कोलकाता युनिव्हर्सिटी के पास अ़र्जी पेश की जाये; शायद किसी कॉलेज में दाखिला हो भी सकता है। सबसे अहम बात यह थी कि ‘उस’ घटना के बाद प्राचार्य जेम्स भी पुनः इंग्लैंड़ लौट गये थे और उनकी जगह विल्सन नामक प्राचार्य ने ले ली थी। लेकिन उनके हाथ में कुछ भी नहीं था। जॉंच समिति के रिपोर्ट के आधार पर तुम्हारे कॉलेजप्रवेश पर पाबन्दी लगी हुई होने के कारण इस मामले में सिर्फ़ जॉंच समिति के अध्यक्ष आशुतोषजी मुखर्जी ही कोलकाता युनिव्हर्सिटी के कुलगुरु होने के नाते कुछ कर सकते हैं, ऐसा विल्सन ने कहा। सुभाष जाकर आशुतोषबाबू से मिला। उन्होंने इस मामले पर ग़ौर करने का आश्‍वासन दिया।

उस समय पूरी दुनिया में पहले विश्‍वयुद्ध का बवाल मच चुका था और मुसीबतों से घिरे हुए इंग्लैंड़ को बहुत बड़े पैमाने पर युद्धसामग्री तथा मनुष्यबल की जरूरत महसूस हो रही थी। भारतस्थित अँग्रे़जी फ़ौज में उस समय तक मुख्य रूप से अँग्रे़जों को ही भर्ती किया जाता था। कभी-कभार किसी भारतीय को फ़ौज में दाखिल कर भी लेते, तो वह निम्न स्तर के पद के लिए ही रहता। उच्च तथा मध्यम स्तर के पदों पर अँग्रे़जों को ही नियुक्त किया जाता था। पहले विश्‍वयुद्ध के कारण ये सारे समीकरण बदलते हुए दिखायी दे रहे थे और भारतीय युवा भी बड़ी तादात में फ़ौज में दाखिल हों, इस दिशा में अँग्रे़जों ने कोशिशें शुरू कर दीं। लोकमान्य टिळकजी ने भी, यह भारतीय लोगों को सैनिकी प्रशिक्षण प्राप्त करने का सुनहरा अवसर है यह जानकर, भारतीय युवा अधिक से अधिक संख्या में फ़ौज में भर्ती हों, इस विषय में प्रचार शुरू कर दिया था। यकायक कोलकाता के अख़बार में यह समाचार प्रकाशित हुआ कि जो युवा फ़ौज में भर्ती होना चाहते हों, वे फलाना-फलाना समय युनिव्हर्सिटी में इकट्ठा हो जायें।

सुभाष ने भी जाने का तय किया और निर्देशित समय पर वह युनिव्हर्सिटी में दाख़िल हो गया।

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