नेताजी-५१

जिस तरह मुग़लों को जल में भी सन्ताजी-धनाजी दिखायी देते थे, उसी तरह बंगाल के गव्हर्नर लॉर्ड लिटन को भी सब जगह दिनरात सुभाषबाबू ही दिखायी दे रहे थे और कुछ भी करके उनको रास्ते से हटाये बिना गव्हर्नर को चैन मिलनेवाला नहीं था। क़ानून का सीधा सीधा सहारा ले न सकने के कारण उसने अध्यादेश के लिए लंदन तक तक़ा़जा करके अनुमति प्राप्त की और व्हाईसरॉय छुट्टी पर होने के बावजूद भी देर न हो इस उद्देश्य से उनके विश्रामस्थल – सिमला जाकर आख़िर व्हाईसरॉय से इसवी १८१८ के एक पुराने क़ानून के तहत एक अध्यादेश पास कर ही लिया। दूसरा एक अध्यादेश ख़ास बंगाल के लिए जारी किया गया।

Netaji२४ अक्तूबर १९२४ को अध्यादेश जारी हुआ और २५ अक्तूबर को भोर सुबह ४ बजे सुभाषबाबू के घर पुलीस उपायुक्त दाख़िल हुए। सुभाषबाबू को नींद में से जगाकर वॉरंट दिखाकर गिऱफ़्तार किया गया। लेकिन इस नये अध्यादेश के अनुसार ना तो उनपर कोई इल़्जाम रखना जरूरी था और ना ही उन्हें किस गुनाह के लिए गिऱफ़्तार किया जा रहा है यह बताने की जरूरत थी। केवल बस्स् वॉरंट दिखाकर ही गिऱफ़्तार करना था।

सुभाषबाबू को अलिपूर जेल में रखा गया। स्वास्थ्य बिग़डने के कारण हवाबदली के लिए सिमला गये दासबाबू भी इस ख़बर के बारे में जानकारी प्राप्त होते ही फ़ौरन कोलकाता वापस आये और शरदबाबू के साथ पुलीस आयुक्त टेगार्ट से मिलने गये। लेकिन टेगार्ट से बहस करने से कोई फ़ायदा नहीं था। टेगार्ट उनके हर एक सवाल को टालमटोल कर रहा था, तब उसके साथ वे क़ानूनी भाषा में बात करने लगे। पुलीस ने कोलकाता म्युनिसिपालिटीके सीईओ रहनेवाले सुभाषबाबू को किस जुर्म के लिए गिऱफ़्तार किया है और उन्हें कोर्ट में कब पेश किया जानेवाला है, इन प्रश्नों के सही सही जवाब टेगार्ट नहीं दे रहा है, यह देखकर दासबाबू ग़ुस्से से आगबबूले हो गये। दासबाबू को क्रोधित देखकर उसने उन्हें धीरे से, कल ही जारी किये गये नये अध्यादेश के अनुसार इनमें से किसी भी बात को बताने की अथवा इनमें से किसी भी सवाल का जवाब देने की जरूरत नहीं है, यह कहा। इस अध्यादेश के अनुसार सरकार अब कभी भी, किसी को भी बिना तहकिकात के, मात्र सन्देह के आधार पर गिऱफ़्तार कर सकती है और मुजरिम को कोर्ट के सामने पेश करने की जरूरत भी नहीं रही है, यह भी टेगार्ट ने दासबाबू को बताया। अध्यादेश का नाम सुनते ही दासबाबू स्तीमित ही हो गये। उसमें भी, रात ही में स्वयं गव्हर्नर ने सिमला जाकर इस अध्यादेश को पास करा लिया है, यह सुनते ही उनकी मनःशान्ति भंग हो गयी और इस जल्दबा़जी के पीछे की ख़ौफ़नाक विकृत राजनीति उन्हें साफ़ साफ़ दिखायी देने लगी। चन्द कुछ मिनटों के पहले के ग़ुस्से का स्थान अब सुभाषबाबू की सुरक्षा की चिन्ता ने ले लिया और सद्गदित अन्तःकरण के साथ उन्होंने शरदबाबू सहित घर की ओर प्रस्थान किया।

लेकिन दूसरे ही दिन से दासबाबू ने सुभाषबाबू की ग़िऱफ़्तारी के पीछे की सच्चाई से आम जनता को अवगत कराने के लिए शहर में जगह जगह पर सभाएँ लीं। उनकी आख़री सभा के लिए तो दो लाख से भी अधिक संख्या में लोग उपस्थित थे। कड़कड़ाती हुई बिजली की तरह प्रतीत होनेवाले देशबन्धु के आवेशपूर्ण भाषण के साथ साथ गाँधीजी का, सरकार की इस घिनौनी हरकत का निषेध करनेवाला जहाल भाषण भी उपस्थित जनसमुदाय के मन पर हमेशा के लिए अंकित हो गया।

अब तक सुभाषबाबू की गिऱफ़्तारी की ख़बर पूरे शहर में फैल चुकी थी। अँग्लो-इंडियन अख़बारों के मन में खुशी के लड्डू फूट रहे थे और ‘बंगाल के क्रांतिकारी आन्दोलन के सूत्रधार सुभाषचन्द्र बोस की गिऱफ़्तारी से अब इन्किलाब का खतरा टल चुका है’ यह रट सभी अख़बार लगा रहे थे।

सुभाषबाबू ने, इस तरह की वाहियात ख़बर छापनवाले ‘द कॅथोलिक हेरॉल्ड’ और ‘इंग्लिशमन’ इन अख़बारों पर शरदबाबू के द्वारा अब्रुनुकसानी के मुकदमें ठोक दिये। विरोधी पक्ष को सरकार का सम्पूर्ण समर्थन होने के कारण ये मुकदमें काफ़ी अरसे तक चले; लेकिन आख़िर सुभाषबाबू का पलड़ा भारी रहा और ये अख़बार सुभाषबाबू को हऱजाना दें, यह फैसला कोर्ट ने सुनाया। उनमें से ‘हेराल्ड’ का संपादक तो भाग ही गया और वह अख़बार बन्द पड़ गया। वहीं, ‘इंग्लिशमन’ से सुभाषबाबू को थोड़ाबहुत हऱजाना मिला।

म्युनिसिपालिटी के काम में रुकावट न आये, इसलिए म्युनिसिपालिटी के अफ़सरों को काम के सिलसिले में जेल आकर सुभाषबाबू से मिलने की अनुमति सरकार ने दी, मग़र वह भी स़िर्फ १ दिसम्बर तक ही। ये अफ़सर – जिनमें कई अँग्रे़ज अफ़सर भी थे, वे उनके अपने खाते की फाइलें लेकर सुभाषबाबू से जेल आकर मिलते थे और सुभाषबाबू से ‘ऑर्डर्स’ लेकर जाते थे।

लेकिन १ दिसम्बर के बाद सरकार ने सुभाषबाबू को बेहरामपूर ले जाकर एकान्त में रखा। अब उनका बाहरी दुनिया के साथ कोई सम्पर्क नहीं रहा। अब स़िर्फ वाचन, वाचन और वाचन ही! बेहरामपूर की उस कोठरी में तो दम घुटने जैसी परिस्थिति थी, हवा का एक झोंका तक भीतर नहीं आता था, अत्यधिक उष्मा, मच्छर इनकी भी परेशानी थी। सुभाषबाबू जैसे ‘डेंजरस’ मनुष्य को जहाँ जहाँ भी जेल में रखा जायेगा, वे सभी कोठरियाँ इसी तरह खून चूसनेवाली ही हों, यह अलिखित हुक़्म ही गव्हर्नर ने सभी अफ़सरों को दिया था।

दिसम्बर के अन्त में उस वर्ष का काँग्रेस का अधिवेशन गाँधीजी की अध्यक्षता में बेलगाँव में हुआ। उसमें स्वराज्य पक्ष का और विशेषतः सुभाषबाबू के कार्य का अधिकृत रूप से गौरव किया गया। सुभाषबाबू को जानबूझकर फँसाने के लिए सरकार को सौ साल पुराने क़ानून को पुनरुज्जीवित कर उसका सहारा लेना पड़ा, इसीसे सरकार की दुष्टता की भावना साफ़ साफ़ दिखायी देती है, यह कई वक्ताओं ने कहा। इसवी १९२१ के असहकार आन्दोलन के स्थगित होने के बाद छः साल की कारावास की स़जा हो चुके गाँधीजी को सरकार ने दो साल में ही रिहा कर दिया था और वे नये जोश के साथ पुनः अपने काम में जुट गये थे। उन्होंने ‘यंग इंडिया’ के माध्यम से भी सुभाषबाबू की गिऱफ़्तारी का और उसके पीछे के सरकार के घिनौने षड्यन्त्र का तीव्र निषेध किया था।

इस गिऱफ़्तारी के दो-ढाई महीनें बीतने के बाद भी सुभाषबाबू की जनप्रियता में रत्तीभर भी कमी नहीं आयी है, बल्कि वह बढ़ती ही जा रही है, यह देखकर बेचैन हुई सरकार ने फिर नयी चाल रची – ‘आऊट ऑफ साईट, आऊट ऑफ माईंड’ इस तत्त्व के अनुसार सुभाषबाबू को ‘आऊट ऑफ साईट’ करने का सरकार ने तय कर लिया।

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