नेताजी- ४१

वासंतीदेवी की गिऱफ़्तारी से आन्दोलन शिथिल पड़ जायेगा ऐसी अपेक्षा रखनेवाले गव्हर्नर रोनाल्डसे की स्थिति, इस गिऱफ़्तारी के कारण शहर के खौले हुए माहौल को देखकर ‘करने गया कुछ, हुआ और कुछ’ ऐसी हो गयी थी और उन्होंने उसी सहमी हुई स्थिति में ही फ़ौरन  दासबाबू के पास समझौते का प्रस्ताव भेज दिया, जिसमें आन्दोलन के तुरन्त स्थगित किया जाये और युवराज के कोलकाता पधारने और उसके बाद उनका वास्तव्य कोलकाता में रहने तक तो किसी भी अनुचित प्रकार को न होने देने की हामी भरना ये मुख्य कलम थे।

Subhash-Netaji- दासबाबू

….लेकिन उस समझौते के प्रस्ताव को दासबाबू ने ठुकरा दिया। जालियनवाला बाग हत्याकाण्ड जैसा अमानुष वाक़िया जिनके शासनकाल में हुआ, उनके युवराज का खुशी से स्वागत करना, यह  भारतीयों के लिए नामुमक़िन श्रेणि की बात है, इस अपनी भूमिका पर दासबाबू अटल थे।

ठीक उसी रात को गव्हर्नर हाऊस में शहर की जानीमानीं अमीर हस्तियों एवं व्यापारियों के लिए युवराज के कोलकाता कार्यक्रम की पूर्वसूचना देने के उद्देश्य से, साथ ही उनके भव्य स्वागत के विषय में विचारविमर्श करने के लिए बड़ी दावत का आयोजन किया हुआ था। लेकिन वासंतीदेवी की गिऱफ़्तारी की ख़बर सुनते ही उनमें से अधिकांश व्यक्तियों ने दावत का बहिष्कार कर दिया।

इस एक गिऱफ़्तारी ने मुरझाये हुए असहकार आन्दोलन में नवचेतना ही भर दी।

दासबाबू खुश थे; वहीं, उसी दिन दौरे पर रहनेवाले सुभाषबाबू चिन्ताग्रस्त थे और फ़ौरन  उन्होंने कोलकाता के लिए प्रस्थान किया।
उस दिन देर रात तक गव्हर्नर शहर के हालात का फ़ोन  द्वारा जाय़जा ले रहे थे। आखिर शहर के बिगड़ते हुए हालातों को मद्देऩजर रखते हुए स्वयं ही समझौता करने की दृष्टि से मध्यरात्रि के बाद गव्हर्नर ने स्वयं पुलीसथाने में फ़ोन  करके वासंतीदेवी को रिहा करने के ऑर्डर्स प्रदान किये और वासंतीदेवी एवं उर्मिलादेवी को पुलीस व्हॅन से उनके घर वापस छोड़ दिया गया।

युवराज के आने तक आन्दोलन को धधकता रखने की योजना निर्धारित करनेवाले दासबाबू वासंतीदेवी की अचानक हुई इस रिहाई से कुछ नारा़ज से हो गये; वहीं, अपनी प्रिय ‘माँ’ की रिहाई की ख़बर सुनकर सुभाषबाबू फ़ूले नहीं समाये।

हालाँकि वासंतीदेवी को सरकार ने रिहा कर भी दिया हो, मग़र तब भी उनकी गिऱफ़्तारी के दासबाबू को जो परिणाम अपेक्षित थे, वे यक़ीनन हो ही चुके थे। आन्दोलन ने अब काफी जोर पकड़ लिया और तीव्रता के साथ वह फैलने लगा। आन्दोलन में सम्मीलित होनेवाले लोगों की संख्या दिनबदिन बढ़ती ही जा रही थी। फिर   सरकार ने गिऱफ़्तारी करनी शुरू कर दी, लेकिन आन्दोलन का आवेग ही इतना तीव्र था कि कुछ ही समय में प्रेसिडेन्सी और अलिपूर ये दोनों जेलें पूरी तरह भर गयीं। फिर   सरकार ने शहर के बाहर तंबू बनाकर अस्थायी जेलों का निर्माण किया, लेकिन कुछ ही दिनों में वे भी भर गयीं। फिर   निरुपायवश लोगों को रिहा करना पड़ा, लेकिन लोग घर जाने के लिए तैयार नहीं थे। अन्त में, अक्षरशः उनसे कोई मिलने आया है या उन्हें दूसरी जेल ले जाया जा रहा है, ऐसे झूठमूठ के बहाने बनाकर लोगों को बराकों में से जेलर की कचहरी तक लाकर वहाँ से जबरदस्ती से जेल से निकाल बाहर कर दिया जाने लगा। सरकार की इस धोख़ाधड़ी को जानने के बाद लोग अब इस तरह का न्योता आने के बावजूद भी उसका स्वीकार न करते हुए बराकों में ही आसन लगाकर बैठ जाते थे।

आख़िर हतबुद्ध हो चुकी सरकार ने आन्दोलन की जड़ पर ही घाव करने का तय किया और ७ दिसम्बर १९२१ को दासबाबू को ही गिऱफ़्तार किया गया। उन्हें गिऱफ़्तार करने के लिए उनपर ‘सरकार द्वारा पाबन्दी लगाये गये बेक़ायदा संगठन का कामकाज करना’ यह आरोप रखा गया। दासबाबू की गिऱफ़्तारी की ख़बर वायुवेग से पूरे शहर में फ़ैल   गयी और रास्तों पर लोगों की इतनी भीड़ उमड़ पड़ी कि दासबाबू को ले जानेवाली पुलीस की गाड़ी के लिए एक इंच तक आगे बढ़ना भी मुश्किल हो गया। लाठीचार्ज जैसे उपाय करने के बावजूद भी लोग पीछे नहीं हट रहे थे। अन्त में, अतिरिक्त पुलीसबल बुलाकर अक्षरशः इंच-इंच से आगे बढ़ते हुए उन्हें प्रेसिडेन्सी जेल तक लाया गया। जंजीरों में जकड़े हुए दासबाबू को देखकर लोग फूटफूटकर रोने लगे और बेभान होकर दासबाबू की जयकार करने लगे और उन्हें रिहा करने की माँग करने लगे। लेकिन वृद्ध दासबाबू के चेहरे पर कृतनिश्चय का तेज और शरीर में युवाओं को भी पीछे छोड़ दे, ऐसी चेतना दौड़ रही थी। लोकमानस पर रहनेवाले दासबाबू के इस प्रभाव को देखकर ‘अब आगे क्या होगा’ यह सोचकर अँग्रे़ज अफसरों के पैरों तले की जमीन ही खिसक गयी थी।

जेल का बड़ा दरवा़जा खोलकर दासबाबू को भीतर लेते हुए द्वारपाल पहरेदारों को भी रोना आ गया। द्वारपाल तो क्या, शिक्षापात्र चोर-गुनाहगारों को रखने के लिए बनाये गये इस जेल में उन चोरउचक्कों के साथ दासबाबू जैसे भारतमाता के महान देशभक्त सपूत को रखा जा रहा है, यह देखकर उस बेजान जेल के हृदय में भी वेदना हुई होगी। लेकिन साम्राज्यवाद के अतिरेक से अँधी और बधिर बन चुकी उस ज़ुल्मी अँग्रे़ज राजसत्ता को जहाँ स्वयं की ‘भीतरी आवा़ज’ भी सुनायी नहीं दे रही थी, पीसे जानेवाले लोगो की आह जहाँ सुनायी नहीं दे रही थी, न्याय और अन्याय इनके बीच का फर्क  भी जहाँ दिखायी नहीं दे रहा था, वहाँ इस बेजान पत्थर की जेल के सीने में भी कुछ भावनाएँ हो सकती हैं, यह विचार उनके पत्थर बन चुके मन में आना भी नामुमक़िन था।

दासबाबू को गिऱफ़्तार करके हमने इस आन्दोलन की जड़ पर ही घाव किया है, ऐसी सरकार की धारणा थी। लेकिन अब तक यह आन्दोलन बरगद के पेड़ की तरह फ़ैल चुका था और उसका रूपान्तरण अब जनआन्दोलन में हो चुका था। इसीलिए सरकार की अपेक्षा के अनुसार दासबाबू की गिऱफ़्तारी से इस आन्दोलन की तीव्रता न घटते हुए उल्टा दिनबदिन बढ़ती ही जा रही थी और हररो़ज सत्याग्रह होने लगा।

आख़िर इस बरगद के पेड़ की एक-एक करके सभी जटाओं को काट फेंकने के उद्देश्य से  सरकार ने हेमन्तकुमार, किरण शंकर रॉय इन जैसे आन्दोलन के नेताओं को भी एक के बाद एक करके गिऱफ़्तार करना शुरू कर दिया।

इतना सबकुछ करने के बावजूद भी आन्दोलन पीछे हटने का नाम नहीं ले रहा था; इसीलिए फिर   १०  दिसम्बर को सुभाषबाबू पर यही आरोप रखकर उन्हें गिऱफ़्तार किया गया – यही था सुभाषबाबू का भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम में पहला कारावास!

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