नेताजी-१५१

कारोनी के साथ हुई मीटिंग के बाद वक़्त न गँवाते हुए सुभाषबाबू धीरे धीरे युरोप के वास्तव्य की तैयारियाँ कर ही रहे थे। जर्मन एम्बसी में जाने से पहले, शरदबाबू को देने के लिए अपनी खुद की बंगाली लिखावट में लिखी हुई चिठ्ठी और अपने सहकर्मी शार्दूल कवीश्‍वर इन्हें देने के लिए ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ के सन्दर्भ में लिखा हुआ लेख इन्हें भगतराम को सौंपा था। लेकिन उस समय उन्होंने जल्दी में घसीट लिखावट में लिखा था। उन्हें ख़ारिज कर अब उन्होंने शान्ति से अच्छी लिखावट में दोबारा लिखकर पूरा किया। इस प्रकार सुभाषबाबू समय का सद्-उपयोग तो कर ही रहे थे।

आख़िर ३ मार्च १९४१ को, इटालियन कुरियर के पासपोर्ट पर सुभाषबाबू को ट्रान्झिट वीज़ा देने के लिए हम तैयार हैं, ऐसा रशिया ने अक्षराष्ट्रों से कहा। उसके बाद कुछ ही दिनों में, सुभाषबाबू के लिए कुरियर के तौर पर नियुक्त किया गया ‘ओरलेन्दो मेझोता’ भी काबूल में दाखिल हो गया। १५ मार्च को सिनोरा कारोनी ने मुस्कुराते हुए ही यह ख़बर उत्तमचन्द की दुकान में आकर उसे सुनायी और अगली कार्यवाही की जानकारी देनेवाला सील किया हुआ एन्वलप उसके हाथ में रखा। उत्तमचन्द भी इस ख़बर को सुनकर फूले नहीं समा रहा था। वह उस दिन दुकान जल्दी बन्द कर फौरन सुभाषबाबू से मिलने घर आया। सुभाषबाबू चाय पी रहे थे। यह ख़बर सुनते ही वे तो उत्तमचन्द को गले लगाकर खुशी से नाचने ही लगे।

सुभाषबाबू, समय का सद्-उपयोग, फॉरवर्ड ब्लॉक, transit visa, कार्यवाही, रशिया, भगतराम१८ मार्च को प्रयाण तय हुआ था। दूसरे दिन यानि १६ तारीख को सुबह सुभाषबाबू का सामान ले जाकर उत्तमचन्द की दुकान में रखना था। फिर इटालियन एम्बसी के लोग आकर उसे वहाँ से ले जानेवाले थे। उसके बाद १७ तारीख की शाम को सुभाषबाबू को कारोनी का सहायक क्रिशनिनी के घर जाकर रहना था। उसके दूसरे दिन यानि १८ तारीख को सुबह जल्दी वहीं से गाड़ी निकलनेवाली थी।

यह ख़बर सुनते ही पूरा घर ही खुशी के मारे झूम उठा। ‘जिसके लिए इतने पापड़ बेले’, वह दिन आ चुका था। उत्तमचन्द के घर में जिस तरह खुशी फैली हुई थी, उसी तरह सुभाषबाबू के वियोग का ग़म भी था। वहीं, वहाँ पर सुभाषबाबू के मन का दर्द महसूस करनेवाले कारोनी दम्पति के मन पर का बोझ भी उतर गया था। उन सबके आनन्द में, सुभाषबाबू की इस अद्भुत मुहिम में उन सबपर समय समय पर जो ज़िम्मेदारियाँ सौंपी गयी थीं, उन्हें उनके द्वारा बख़ूबी निभाया गया, इस कर्तव्यपूर्ति की कृतार्थता भी सम्मीलित थी।

१६ तारीख़ को सुबह सुभाषबाबू का सामान उत्तमचन्द की दुकान पर ले जाया गया और फिर शाम को एम्बसी के लोग उसे क्रिशनिनी के घर ले गये।

१७ मार्च। वियोग की भावना से सभी के मन भर आये थे। उत्तमचन्द आँख में पानी जमा न होने देने की लगातार कोशीश कर रहा था। वहीं, उसकी पत्नी रामोदेवी दिल पर पत्थर रखकर घर के सब काम निबटा रही थी। उसे तो ऐसा ही प्रतीत हो रहा था, जैसे उसके घर रहने आया उसके मायके का ही कोई क़रिबी रिश्तेदार अब वापस जाने निकला हो। दोपहर को उसने खाने का ख़ास मेनू बनाया था। सुभाषबाबू सभी के मन की हालत जानते थे। भोजन करते समय हालाँकि वे हँसी-मज़ाक कर रहे थे, मग़र फिर भी इस अचानक वियोग की कल्पना से वे भी बेचैन हो गये थे। पीछले डेढ़ महीने से उत्तमचन्द के परिवारजन, उसका घर और ख़ासकर उस घर का उन्हें दिया गया कमरा यही अधिकांश रूप से उनका विश्‍व बन गया था। सुभाषबाबू को मैंने घर में पनाह दी, इसका यदि सरकार को पता चल जाता है, तो उसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं – हो सकता है कि मुझे गिऱफ़्तार किया जा सकता है; इतना ही नहीं, बल्कि मेरा घरबार जब्त होकर मेरे बिवी-बच्चों पर बेघर होने की नौबत आ सकती है; इस बात की जानकारी होते हुए भी उत्तमचन्द ने बिना किसी पहचान के, जान हथेली पर रखकर उन्हें सहायता की थी और अपने परिवार को भी उसमें शामिल कर लिया था। फायदे-नुकसान की परवाह न करते हुए, कभी कभी तो समय-असमय दुकान बन्द करके भी, सुभाषबाबू के सँदेसे पहुँचाने तक के सभी काम किये थे। ये सारे मानो भगवान ने ही उनके लिए ख़ास नियुक्त किये हुए व्यक्ति थे – उनका ऋण चुकाना तो सुभाषबाबू को संभव ही नहीं था।

और भगतराम….?

पिछले दो महीनों से सुभाषबाबू के सुखदुख में समरस होकर परछाई की तरह उनके साथ रहनेवाला भगतराम अब भी शान्त ही था….

क्यों….? क्योंकि उसकी ‘ड्युटी’ अभी तक ख़त्म नहीं हुई थी। सुभाषबाबू जब प्रत्यक्ष रूप से रशिया के लिए प्रयाण करेंगे, तब ही उसकी ‘ड्युटी’ ख़त्म होनेवाली थी और उसके बाद ही वह अपनी व्यक्तिगत भावभावनाओं को प्रदर्शित करने के लिए स्वतन्त्र होनेवाला था!

ऐसे में शाम आयी। क्रिशनिनी के घर जाने का समय आ गया। घर के सभी सदस्य सुभाषबाबू की चहुँ ओर इकट्ठा हुए। क्या बोलें, यह किसी को सुझ ही नहीं रहा था। सुभाषबाबू का भी गला भर आया था। उन्होंने उत्तमचन्द की नन्हीं बेटी को अपने हाथ में उठा लिया। उत्तमचन्द के बच्चों ने, ख़ासकर उसकी उस छोटी बेटी से उन्हें बहुत प्यार हो गया था। उन्हें चाय-कॉ़फी दे आने की ‘ड्युटी’ अधिकांश रूप से उसीके पास रहती थी। कई बार वह उनके साथ, ना जाने किन किन विषयों पर, गपशप करते बैठती थी। सुभाषबाबू भी फिर छोटे होकर उसके साथ बातें करते थे। उसका भी सुभाषबाबू ने उल्लेख किया।

इस प्रकार के थोड़ेबहुत संभाषण को छोडकर बाक़ी का समय खामोशी में ही गया। आख़िर समय का सदैव भान रखनेवाले सुभाषबाबू ने ही उस खामोशी का छेद कर घर के सभी सदस्यों की सराहना की, उनके ऋण को मान लिया। ख़ासकर पिछले डेढ़ महीने से उनकी वजह से उत्तमचन्द की पत्नी रामोदेवी को जो असुविधा सहनी पड़ी, उसके लिए उन्होंने क्षमायाचना की। लेकिन इतनी असुविधा होने के बावजूद भी उन परिवारवालों ने उसे अपनी ज़बान पर आने नहीं दिया, इस बात को नमूद करने में भी वे चुके नहीं।

वियोग की कल्पना से घर में बहुत ही भावनाप्रधान वातावरण तैयार हुआ था। सभी यही चाहते थे कि सुभाषबाबू की सन्निधता के ये आख़री क्षण हाथ से न निकलें। लेकिन क्या समय कभी किसी के लिए रुका है?

इसलिए आख़िर एम्बसी की गाड़ी आकर घर के सामने खड़ी हो ही गयी!

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