नेताजी-१७५

१५ फ़रवरी १९४२ को सिंगापूर की पराजय होने के बाद, जर्मनी में घटित हो रहे धीमे घटनाक्रम की अपेक्षा अब महायुद्ध का पूर्वीय मोरचा सुभाषबाबू को अधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत हो रहा था। वैसे भी वे अपनी ‘ओर्लेन्दो मेझोता’ इस विद्यमान पहचान को त्यागकर सही पहचान ज़ाहिर करने के अवसर की ही तलाश में थे। ‘सिंगापूर की हार’ यही मेरी असली पहचान ज़ाहिर करने का सुअवसर है यह जानकर १९ फ़रवरी १९४२ को ‘आज़ाद हिन्द रेडिओ’ से पहली ही बार भाषण करते हुए उन्होंने अपना परिचय दे दिया।

उसमें ‘मैं सुभाषचन्द्र बोस जीवित हूँ और ‘आज़ाद हिन्द रेडिओ’ केन्द्र से बोल रहा हूँ’ यह शुरुआत करके सिंगापूर की हार के बाद अँग्रेज़ी हुकूमत अब आखरी साँसें ले रही है, यह भी उन्होंने सूचित किया। ‘डेढ़ सौ वर्ष की अँग्रेज़ों की ग़ुलामी में आर्थिक, सामाजिक आदि सभी पहलुओं से अपरिमित शोषित बन चुकी भारत की जनता को, भारत के स्वतन्त्रतासूर्य के उदय का संकेत देनेवाली इस घटना के लिए परमेश्वर का शुक्रिया अदा करना चाहिए। भारत की इस स्वतन्त्रता से महज़ एशिया की ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में जहाँ जहाँ ग़ुलामी के पाश जक़ड़े हुए हैं, उन देशों की जनता की भी बन्धमुक्त होने की प्रक्रिया शुरू होनेवाली है। इसलिए अब इसके बाद हमारी मातृभूमि के सीने में खंजर भोकनेवाले अँग्रेज़ों की, उनकी सेना में भर्ती होना, उन्हें संसाधनों की आपूर्ति करना इस तरह की किसी भी प्रकार की सहायता न करें’ इस आशय का आत्मीयतापूर्ण आवाहन उन्होंने भारतवासीयों से ‘आज़ाद हिन्द रेडिओ’ केन्द्र पर से किये हुए अपने इस पहले भाषण में किया।

१७ जनवरी १९४१ को सुभाषबाबू कोलकाता से गुप्त रूप में गये थे। उसके बाद अधिकृत रूप में जनता के पास उनकी कोई जानकारी नहीं थी। इसलिए लगभग १३ महीनों बाद पहली ही बार भारत में सुभाषबाबू की आवाज़ सुनते ही, देशभर में पुनः एक बार नयी चेतना की लहर दौड़ी। ‘हमारे’ सुभाषबाबू जीवित हैं, यह बात हर एक भारतवासी एक-दूसरे से कह रहा था।

वहाँ सिंगापूर के तुरन्त बाद ७ मार्च को जापानियों ने रंगून पर कब्ज़ा कर लिया। पूर्वीय मोरचे पर अब गरमागरमी का माहौल था। जापानी सेना के कब्ज़े में आनेवाले जगह जगह के भारतीय युद्धबन्दियों को कॅप्टन मोहनसिंग के हवाले करने की प्रक्रिया ने भी अब ज़ोर पकड़ लिया था।

बूढ़ापे की ओर बढ़ रहे राशबिहारी बोस भी अपनी उम्र को भूलकर, कोई नौजवान भी शरमा जाये इस कदर काम में जुट गये। ‘आज़ाद भारत को देखना’ इसी एक सपने को दिल में सहेजकर ये बुज़ुर्ग स्वतन्त्रतासैनिक गत तीन दशकों से भारत के बाहर रहकर इस ध्येय के लिए अविरत सक्रिय थे। सन १९१२ में भारत के तत्कालीन व्हाईसरॉय हार्डिंग्ज पर हुए बम हमले के मामले में जब अँग्रेज़ पुलीसयन्त्रणा शिकारी कुत्ते की तरह राशबाबू के पीछे हाथ धोकर पड़ गयी थी, तब वे भूमिगत होकर जापान जाकर बस गये। लेकिन तत्कालीन जापानी सरकार भी अँग्रेज़परस्त होने के कारण वहाँ पर भी शुरुआती दौर में उन्हें चैन नसीब नहीं हुआ। उस वक्त जापान में अँग्रेज़ एजंट्स की नज़र से बचने के लिए वहाँ पर भी उन्हें छिप-छिपकर दिन बीताने पड़ रहे थे। तब उनकी सहायता की थी, ज्येष्ठ चिनी क्रांतिकारी और आधुनिक चीन के जनक कहलाये जानेवाले डॉ. सन्यत्सेन ने। सन्यत्सेन उन्हें लेकर ठेंठ, एशियाई देशों की स्वतन्त्रता के लिए दिनरात मेहनत करनेवाले बुज़ुर्ग जपानी क्रांतिकारी टोयामा मित्सुरू के पास ले गये। टोयामा के बारे में जापान के जनमानस में का़फ़ी सम्मान की भावना थी और इसी वजह से सरकारी प्रशासन पर भी उनका का़फ़ी प्रभाव था। टोयामा ने इस नौजवान भारतीय क्रांतिकारी के दिल में स्थित मातृभूमि की आज़ादी के जुनून को जानकर राशबाबू को अपने घर में पनाह दे दी। लेकिन अँग्रेज़ों के साथ दोस्तीपूर्ण सम्बन्ध रहनेवाली तत्कालीन जापानी प्रशासनयंत्रणा भी उनके पीछे हाथ धोकर पड़ी थी। इसलिए अब क्या किया जाये, यह सवाल सामने आ गया। टोयामा के परिचित – आइझो व कोत्सुको सोमा नाम के एक दम्पति ने उसे सुलझाया। रोज़ीरोटी के लिए बेकरी उद्योग चलानेवाले इस दम्पति के घर के तहखाने में राशबाबू ने पनाह ले ली। अगले कुछ महीनें भयानक अस्वस्थता एवं अनिश्चितता में गुज़रे। उस दौर में दरवाज़े पर जरासी भी ‘दस्तक’ यदि कोई देता था, तब भी नीन्द उड़ जाती थी। आगे चलकर पुलीस की मग़जमारी कम हो गयी और मन का बोझ भी कुछ हलका हो गया। राशबाबू भारत के बाहर रहकर भारतीय क्रांतिकारियों को शस्त्र-अस्त्र, निधि आदि देकर उनकी सहायता करते थे। स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी के साथ वे लगातार सम्पर्क में थे और उनके साथ विचारविमर्श करके ही वे अगले कदम उठाते थे।

देशभक्ति की मानो मशाल ही रहनेवाले इस युवा क्रान्तिकारी के प्रति टोयामा और सोमा दम्पति की बहुत ही ममता की भावना थी। जिसके पैरों में मानो चक्र ही लगे हैं, ऐसे इस क्रान्तिकारी की शादी करवाने के बारे में टोयामा सोच रहे थे। इसी दौरान, सोमा की कॉलेज में पढ़नेवाली बेटी तोशिमा को अनजाने में ही राशबाबू से प्यार हो गया था। लेकिन ‘भारतीय स्वतन्त्रता’ इसी एकमात्र ध्येय से प्रेरित हुए राशबाबू के मन में ‘शादी, घर-गृहस्थी’ का विचार तक अंशमात्र भी नहीं था; उनके पास इन सब बातों के लिए फ़ुरसद ही कहाँ थी? साथ ही, मेरे माथे पर चौबीस घण्टें लटक रही है पुलीस गिऱफ़्तारी की तलवार, मैं भला कैसे किसी मासूम महिला का ‘पति’ बनकर न्याय दे सकूँगा, यह उनकी भूमिका थी। इसीलिए जब टोयामा और सोमा ने, तोशिमा से शादी करने के बारे में राशबाबू से पूछा, तब वे बुरी तरह ङ्गँस गये। टोयामा से ‘ना’ कहने की हिम्मत तो उनमें नहीं थी और सोमा के तो उनपर कई एहसान थे। तोशिमा ने भी ‘मैं शादी करूँगी, तो आप से ही और आपके सुखदुख में जीवन के हर मोड़ पर मैं आपका साथ दूँगी’ यह कहने से विरोध की वजह ही बाक़ी नहीं रही और तोशिमा के साथ उनकी शादी हो गयी। तोशिमा ने भी अपना वचन आख़िर तक निभाया और केवल पति की गृहस्थी में ही नहीं, बल्कि उनके देशकार्य में भी वे उनके कँधे से कँधा मिलाकर चलती रही।

कई साल बीत गये। जापान में अँग्रेज़परस्त सरकार की जगह नये विचारों की सरकार आ गयी। अब पुलीस का भी कोई डर नहीं था। इसलिए राशबाबू ने उत्साह के साथ, भारतीय क्रान्तिकारियों की सहायता करने का काम अविरत जारी रखा। अब जापानी सरकार में भी कई लोगों के साथ दोस्ती का रिश्ता रहने के कारण वहाँ भी उन्होंने अपनी संपर्कयन्त्रणा बना ली थी और उसके ज़रिये ही, भारतीय मुक्तिसेना बनाने की सुभाषबाबू की जर्मनी में की जा रहीं कोशिशों के बारे में भी उन्होंने सुना था। उस घटनाक्रम पर भी वे नज़र बनाये हुए थे। लेकिन अब धीरे धीरे उम्र साथ नहीं दे रही है, इसका एहसास भी उन्हें हो चुका था। इसलिए सुभाषबाबू पूर्वीय एशिया में आकर यहाँ के स्वतन्त्रतासंग्राम की मशाल यदि मेरे हाथ से अपने हाथ में ले लेते हैं, तो कितना अच्छा होगा, यह भी बार बार वे सोच रहे थे।

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