नेताजी-१५४

सुभाषबाबू को मॉस्को से बर्लिन ले आनेवाले विशेष हवाई जहाज़ का इन्तज़ाम हो जाने के बाद ३ अप्रैल को सुभाषबाबू बर्लिन पहुँचे। तक़रीबन २ महीने ११ दिनों की भागदौड़ करके रोमहर्षक एवं हैरत अंगेज़ घटनाओं से भरा प्रवास करते हुए, आशा-निराशा का झूला झूलते हुए, एक दुर्दम्य लगन के बल पर और अपनी ध्येयपूर्ति के रेले के दबाव में सुभाषबाबू ने आख़िर बर्लिन में कदम रख ही दिया। वैसा सन्देश काबूल स्थित जर्मन एम्बसी को जर्मन विदेश मन्त्रालय से प्राप्त हुआ। सर्वशक्तिमान् ब्रिटीश हु़कूमत, उसके अनगिनत पुलीस अ़फ़सर तथा गुप्तचर इन्हें चक़मा देकर अपने घर से ग़ायब होने के बाद सुभाषबाबू ने किया हुआ कोलकाता से बर्लिन तक का यह प्रवास, यह दुनिया के इतिहास में किये गये रिहाई के सबसे अधिक हैरत अंगेज़ प्रयासों में से एक माना जाता है।

सुभाषबाबू ३ अप्रैल को बर्लिन पहुँच गये; वहीं, उसके तीन दिन पहले यानि ३१ मार्च १९४१ को यहाँ पर भगतराम कूच-ब-कूच करते हुए सुभाषबाबू द्वारा दी गयीं सभी सूचनाओं का बारीक़ी से पालन करते हुए कोलकाता पहुँच गया था। सुभाषबाबू के कहेनुसार वह शरदबाबू के वुडबर्न पार्क रोड स्थित घर में पहले शिशिर से मिला और कुछ सांकेतिक शब्दों द्वारा अपने आपको परिचित कराने के बाद, मुझे शरदबाबू से मिलना है ऐसा उसने शिशिर को बताया। शिशिर तुरन्त ही उसे शरदबाबू के पास ले गया। उसने शरदबाबू को सुभाषबाबू की खुशहाली बताकर उन्हें तीन चीज़ें सुपूर्द कर दीं – एक तो सुभाषबाबू की लिखावट में बंगाली में लिखी हुई चिठ्ठी, दूसरी यानि सुभाषबाबू की अनुपस्थिति में ‘फ़ॉरवर्ड ब्लॉक’ का काम सँभाल रहे सरदार शार्दूल कवीश्‍वर इन्हें अख़बार में छपवाने हेतु देने के लिए ‘फ़ॉरवर्ड ब्लॉकः किसलिए?’ यह लेख और देशवासीयों के लिए ‘युरोप के किसी अज्ञातस्थान से मेरे देशबन्धुओं के लिए सन्देश’ (‘अ मेसेज टू माय कन्ट्रीमेन फ़्रॉम समव्हेअर इन युरोप’) यह २२ मार्च १९४१ की तारीख़ का निवेदन!

सुभाषबाबू की लिखावट को झट से पहचान गये शरदबाबू का दिल वह चिठ्ठी देखकर भर आया। दूसरे दिन शरदबाबू के दैनन्दिन ‘मॉर्निंग वॉक’ में भगतराम भी शामिल था और उसने सुभाषबाबू के पेशावर से निकलने से लेकर रशिया के लिए प्रयाण करने तक का सारा हैरत अंगेज़ घटनाक्रम शुरू से शरदबाबू को त़फ़सील के साथ सुनाया। उस अजीब दास्तान को सुनते समय शरदबाबू के मन में अचम्भा, आनन्द, दुख, धुकधुकी ऐसी कई भावनाओं का सैलाब उमड़ रहा था। इतनी अथक मेहनत के बाद अपने लक्ष्य का पहला पड़ाव सुभाषबाबू ने आख़िर साध्य कर ही लिया, यह देखकर शरदबाबू की जान में जान भी आ गयी और उन्हें अपने भाई पर नाज़ भी हुआ। आगे चलकर शरदबाबू ने भगतराम की पहचान सुभाषबाबू के विश्‍वासपात्र सहकर्मी – ‘बंगाल व्हॉलंटियर्स’ इस भूमिगत गुट के नेता सत्यरंजन बक्षी से करा दी। सुभाषबाबू ने भी उनसे ही जा मिलने के लिए भगतराम से कहा था। सुभाषबाबू के सँदेसे भगतराम के ज़रिये ही भारत में पहुँचाये जानेवाले थे।

अपनी भावी योजना के लिए रशिया से सहायता प्राप्त करने की उम्मीद रखनेवाले सुभाषबाबू के मन में, मॉस्को हवाई अड्डे पर अपने स्वागत के लिए एक भी रशियन नेता न आने की थोड़ी-सी चुभन ज़रूर थी। लेकिन उसका मानो मुआवज़ा ही बर्लिन हवाई अड्डे पर मिल गया। वहाँ पर जर्मन विदेश मन्त्रालय के – इन्ङ्गर्मेशन, पूर्वीय राष्ट्रव्यवहार आदि महत्त्वपूर्ण विभागों के वरिष्ठ अ़फ़सर उनके स्वागत के लिए उपस्थित थे। लेकिन ‘ओरलेन्दो मेझोता’ ही ‘सुभाषबाबू’ हैं, यह बात जर्मन सरकार में भी, बिलकुल सर्वोच्च दायरे में भी बहुत ही थोड़े लोगों को पता थी। इसलिए यह बात उनके स्वागत के लिए बर्लिन हवाई अड्डे पर आये हुए लोगों में से सभी को पता नहीं थी। इसीलिए उनका स्वागत ‘ओरलेन्दो मेझोता’ के रूप में ही किया गया।

हिटलर के प्रभावी वक्तृत्व में स्थित राष्ट्रभक्तिपूर्ण आवेश से एवं अपमान का बदला लेने की भाषा से और उसके अनुसार रहनेवाली उसकी कृतियोजना ने जर्मनी के केवल आम आदमी पर ही नहीं, बल्कि बुद्धिवादियों पर भी जादू चलाया था। अतः हिटलर के निकटवर्तीय रहनेवालों में सभी लोग उच्चशिक्षाप्राप्त एवं बुद्धिवान् थे। हवाई अड्डे पर उनके स्वागत के लिए आये अ़फ़सरों में भी डॉ. विलियम मेल्चर्स, डॉ. अ‍ॅडम ट्रॉट, उनके सहायक डॉ. अलेक्झांडर वेर्थ, साथ ही जर्मन विदेशमन्त्रालय मे काम करनेवाले एक भारतीय अधिकारी डॉ. धवन इन जैसे, अपने अपने क्षेत्र में माहिर समझे जानेवाले उच्चशिक्षित लोग थे। इन डॉ. धवन के साथ सुभाषबाबू का, इससे पहले जब सुभाषबाबू बर्लिन आये हुए थे, तब परिचय हुआ था। लेकिन आज मैं ‘सुभाषबाबू’ का स्वागत करने जा रहा हूँ, इसकी भनक तक डॉ. धवन को नहीं थी। वे यही सोच उनकी राह देख रहे थे कि ‘यह ओरलेन्दो मेझोता आख़िर है कौन?’ जब ओरलेन्दो मेझोता भी ‘अवतरित हुआ’ तब सूट-बूट-हॅट ऐसी पोषाक़ में रहने के कारण और इटालियन स्टाईल दाढ़ी रखी हुई होने के कारण स्वाभाविक रूप से डॉ. धवन ने उसे पहचाना नहीं। सुभाषबाबू ने ही जब हिन्दी में उन्हें ‘क्यों डॉक्टर, कैसे हो?’ ऐसा पूछा, तब तो वे चौंक ही गये। पाँच-दस सेकण्ड़ उन्हें निहारने के बाद जब पहचाना, तब ‘ओऽऽह, सुभाष!’ ऐसे आश्चर्यभरे शब्द बोलकर उन्हें गले ही लगाया। आगे चलकर भी जब वे कोई गुप्त बातें करना चाहते थे, तब औरों द्वारा हिन्दी न समझने का फ़ायदा लेकर वे हिन्दी में ही बात करते थे।

सुभाषबाबू के ठहरने का प्रबन्ध बर्लिन स्थित सर्वोच्च दर्ज़े के होटल में करने का हुक़्म ठेंठ हिटलर से ही आया था। अतः सुभाषबाबू के रहने का इन्तज़ाम उस समय के सबसे अच्छे होटलों में से एक रहनेवाले ‘हॉटेल एक्सेलसियर’ में किया गया था।

बर्लिन आने में सुभाषबाबू दरअसल एक क़िस्म का जुआ ही खेल रहे थे। सुभाषबाबू के पहले युरोपवास्तव्य के समय की बर्लिन की स्थिति और अबकी स्थिति इनमें ज़मीनआसमान का फ़र्क़ था। उस समय हिटलर ने, पहले विश्‍वयुद्ध के बाद जेता दोस्तराष्ट्रों ने जित जर्मनी के किये हुए अपमान की बदला चुकाने के ख्वाब जर्मन जनता में जगाकर, देशभक्ति का स्फ़ुल्लिंग उनके मन में प्रज्वलित कर जर्मनी के पुनर्निर्माण को शुरुआत की थी। लेकिन अबकी बार हिटलर आधे युरोप का मालिक था।

उस समय सुभाषबाबू द्वारा लाख कोशिशें करने पर भी हिटलर ने उनसे मिलने से इनकार किया था। अब उसका प्रतिसाद क्या होगा, यह बताना मुश्किल था। उस समय दरअसल इटली के सर्वेसर्वा रहनेवाले मुसोलिनी ने सुभाषबाबू की योजना में रुचि दिखाकर उन्हें हरसंभव सहायता करने की तैयारी बताई थी। फ़िर इतना रहने के बाद भी सुभाषबाबू इटली न जाते हुए जर्मनी ही क्यों गये?

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