नेताजी- १३६

२४ तारीख़ की दोपहर से सुभाषबाबू और भगतराम ने ट्रक स्थित चाय के बक़्सों पर बैठकर अपनी अगली यात्रा का आरंभ किया। ट्रक ढूँढ़ने के चक्कर में दोपहर का खाना तक न खाने के कारण अब पेट में चूहें दौड़ने लगे थे। बीच रास्ते में ही बारीकोट में ड्रायव्हर ने चाय पीने के लिए गाड़ी रोक दी। वहाँ चाय पीने के बाद भगतराम ने रास्ते में खाने के लिए बॉइल्ड अण्ड़ें बाँधकर ले लिये।

भगतराम, यात्रा का आरंभ, आदा शरीफ़ दरग़ाह, सुभाषबाबू, चर्चा, अ़फ़गाणिस्तान, कोलकाता

अगले प्रवास में एक बार ट्रॅ़फ़िक पुलीस ने हाथ से इशारा कर गाड़ी को रोका, तब उनके मन भयशंकित हो गये। लेकिन उसने गाड़ी को – उसके ‘साब’ की उस दिन की ड्युटी ख़त्म होने के कारण उसे अगले पड़ाव तक छोड़ने के लिए रोका था, यह जान जाने के बाद उनकी जान में जान आ गयी। रात को आठ बजे तक आख़िर वे जलालाबाद पहुँच ही गये। वह अ़फ़गाणिस्तान का काबूल जितना ही महत्त्वपूर्ण शहर था। यहाँ पर अच्छेख़ासे होटल, सराइयाँ थीं। उनमें से एक सराई में भगतराम ने वहाँ के मॅनेजर से बिनतियाँ करके एक अलग रूम का इन्तज़ाम किया। बिनतियाँ इसलिए करनी पडीं कि वहाँ पर स्वतन्त्र रूम्स के साथ साथ बीच में एक सार्वजनिक हॉल भी था और वहीं पर बिस्तरा डालने के लिए मॅनेजर उनसे आग्रह कर रहा था। हालाँकि स्वतन्त्र रूम से सार्वजनिक हॉल में रहना सस्ता पड़ता, लेकिन अ़फ़गाणिस्तान में सब जगह अँग्रेज़ एजंट्स भारी संख्या में होने के कारण सार्वजनिक हॉल में रहना ख़तरे से ख़ाली नहीं थी। अतः ‘मेरे ये चाचाजी बहुत बीमार हैं’ ऐसा बहाना बनाकर भगतराम ने रूम का बन्दोबस्त किया। उस रात उन्हें इतने दिनों के बाद पहली बार चिकनकरी और पुलाव का ढ़ंग का खाना नसीब हुआ। पेटभर खाना खाकर, दिनभर ट्रक पर से सवारी करने से हो रहे बदनदर्द के कारण वे दोनों बिस्तर पर लेटने के बाद तुरन्त सो गये।

२५ तारीख़। सुबह आठ बजे ही तैयार होकर वे आदा शरीफ़ दरग़ाह के दर्शन करने निकले। लेकिन यहाँ आने का भगतराम का मक़सद कुछ अलग ही था। वहाँ के हाजी महंमद अमिन नामक पुराने परिचित व्यक्ति से उसे अगली योजना के बारे में चर्चा करनी थी। लेकिन उनके वहाँ पहुँचने पर यह पता चला कि अब अमिनसाब वहाँ नहीं रहते, बल्कि वहाँ से दो मील की दूरी पर स्थित एक गाँव में उन्होंने बसेरा कर लिया है; अतः वे वहाँ के लिए रवाना हुए।

पठानी भेस पहने भगतराम ने अपनी पुरानी पहचान ताज़ा कर देने के बाद अमिनसाब उसके साथ खुलकर बातें करने लगे। चर्चा के दौरान महायुद्ध का विषय छिड़ जाने के बाद उन्होंने, ‘यह तो भारत के लिए आज़ादी पाने का एक सुनहरा मौक़ा है’ ऐसी राय व्यक्त की। उसपर भगतराम ने ‘उसीके लिए सोव्हिएट रशिया के साथ सम्पर्क करने के लिए हम काबूल जा रहे हैं और मेरे इन मित्र की उसी हेतु रशिया जाने की योजना है’ यह बात ज़ाहिर की। उसपर मलिकसाब ने उन्हें – ‘फिर अब यहाँ पर और वक़्त ज़ाया न करें, क्योंकि यहाँ पर अँग्रेज़ एजन्ट बड़ी संख्या में हैं। अतः जल्द से जल्द काबूल चले जाइए। यदि अभी तांगे से जलालाबाद पहुँचोगे, तो शाम को वहाँ से काबूल जाने के लिए कोई ट्रक आदि सवारी मिल सकती है’ यह मशवरा दिया। साथ ही, वहाँ के प्रतिष्ठित तथा अँग्रेज़ों के ख़ास रहनेवाले ऐसे एक स्थानीय व्यक्ति का नाम भी उन्हें याद रखने के लिए कहा और यदि कहीं कोई आपको रोक देता है, तो अपने आपको उनके आदमी बताना, जिससे कि पुलीस से आपको कोई परेशानी नहीं होगी।

लेकिन मलिकसाहब के घर से खाना खाकर निकलने के बाद वहाँ तांगा न मिलने के कारण पाँच मील पैदल चलकर जलालाबाद पहुँचने तक शाम ढल गयी। इसलिए रात को पुनः उसी होटल में ठहरना पड़ा। एक दिन की देर होने का दुख तो सुभाषबाबू को अवश्य था, लेकिन दुख में भी सुख की बात यह थी कि कम से कम अच्छा भोजन तो नसीब हुआ।

अगले दिन २६ तारीख़ को सुबह उठकर नौ बजे सुभाषबाबू अगले स़फर के लिए रवाना हो गये – मन में एक अजब सी बेचैनी लेकर, क्योंकि निर्धारित योजना के अनुसार सुभाषबाबू के ग़ायब हो जाने की ख़बर आज कोलकाता में ज़ाहिर होनेवाली थी।

यहाँ पर कोलकाता में २५ तारीख़ से ही सुभाषबाबू और शरदबाबू द्वारा पूर्वनियोजित एक अनोख़े से नाट्य की शुरुआत होने जा रही – सुभाषबाबू के घर से ग़ायब हो जाने की बात ज़ाहिर करने के नाट्य की। यह करना ज़रूरी था, क्योंकि २७ तारीख़ को सुभाषबाबू की कोर्ट में पेशगी होनी थी। इसीलिए इस योजना की भनक तक पुलीस को न लगे, इस उद्देश्य से २६ तारीख़ को ही इस ख़बर का ज़ाहिर होना आवश्यक था।

२५ तारीख़ को शनिचर था। इसलिए अरविन्द, द्विजेन्द्रनाथ और इला को सभी सूचनाएँ देकर शरदबाबू शिशिर के साथ हर ह़फ़्ते की तरह रिशरा स्थित उनके फ़ार्म हाऊस में ‘वीक-एन्ड’ के विश्राम के लिए चले गये। दूसरे दिन २६ तारीख़ को वहाँ पर ‘स्वतन्त्रता माँग दिवस’ मनाने के लिए प्रतिवर्ष की तरह ध्वजवन्दन आयोजित किया गया था। उसके बाद शरदबाबू अपने फ़ार्महाऊस में लौट आये। लेकिन एल्गिन रोड स्थित घर का नाट्य क्या सही ढंग से प्रस्तुत होगा, सदमा पहुँचने की ‘अ‍ॅक्टिंग’ क्या सभी भली-भाँति कर पायेंगे, इस आशंका से उनका मन बेचैन था। साथ ही, बीच में ही इस पूरी योजना की यत्किंचित भी जानकारी न रहनेवालीं माँ-जननी को इस बात का पता चलते ही क्या वए इस सदमे को बर्दाश्त कर पायेगी, इस अनुकम्पा से मन भर भी आ रहा था। वहीं, कोलकाता से अभी तक कोई आया क्यों नहीं, यह चिन्ता भी मन को खाये जा रही थी।

यहाँ पर एल्गिन रोड स्थित घर के नाट्यप्रवेश में गत दिन सुभाषबाबू के कमरे के परदे के बाहर रखी हुई भोजन की थाली दूसरे दिन सुबह नौकर को ज्यों कि त्यों भरी हुई दिखायी देनेवाली थी और हुआ भी बिलकुल वैसे ही। उसने फ़ौरन यह बात अरविन्द को बतायी। उसने और द्विजेन्द्रनाथ ने सुभाषबाबू अपने कमरे में नहीं हैं यह देखकर नियोजन के अनुसार होहल्ला मचा दिया। उनके सभी परिचितों के घर में ‘क्या सुभाषबाबू वहाँ आये हैं’ यह देखने के लिए नौकरों को भेज दिया। वहाँ पर भी उनका कोई पता न चलने के कारण, यह मामला बहुत ही गंभीर है और उसे शरदबाबू को बताना आवश्यक है, यह परिवार ने तय कर लिया और द्विजेन्द्रनाथ ने दो चचेरे भाइयों को रिशरा भेज दिया। रिशरा में वहाँ उपस्थित कुछ परिचितों के सामने ही यह ‘ख़बर’ बतायी गयी। तब पहले शरदबाबू और शिशिर ने ‘तुम्हें यह बेवक़्त मज़ाक भला कैसे सूझ रहा है’ यह कहकर उनकी हँसी उड़ायी। लेकिन यह बात सच है, यह बार बार ज़ोर देकर कहने के बाद शरदबाबू ने तनावग्रस्त मुद्रा बनाकर शिशिर को फ़ौरन गाड़ी निकालने के लिए कहा।

इस पूरे वाक़िया में माँ-जननी पर तो दुख का पहाड़ टूट पड़ा। सुभाष घर में नहीं है, यह सुनते ही उनके पैरों तले की ज़मीन ही मानो खिसक गयी। रिशरा से शरदबाबू के लौटते ही माँ ने फ़ूटफ़ूटकर रोते हुए उनसे कहा – ‘क्या कोई मुझे बतायेगा भी कि मेरा सुभाष कहाँ गया है? भला ऐसे कैसे मुझे बिना बताये वह चला गया? शरद, क्या तुमसे उसने कुछ कहा था?’ माँ-जननी की हालत देखकर शरदबाबू के लिए वहाँ ज़्यादा देर तक रुकना कठिन हो गया। किसी बहाने से वे वहाँ से निकल गये। तब तक सभी परिचितों से दूरध्वनि द्वारा संपर्क स्थापित हो चुका था, लोग भेजे जा चुके थे। सुभाषबाबू के आध्यात्मिक रूझान के बारे में तो सभी जानते थे। अत एव आसपास के तीर्थक्षेत्रों में, बिलकुल शमशान में भी उन्हें ढूँढ़ने के लिए लोगों को भेजा गया। लेकिन सुभाषबाबू का कहीं कोई पता नहीं चला।

तब तक तो इस बात का सारे कोलकाता को पता चल चुका था कि सुभाषबाबू घर से अचानक लापता हो गये हैं….और पुलीस को भी!

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