नेताजी-१८

SCBOSE2दुनिया पर हुकूमत करनेवाले अँग्रे़जों के सामर्थ्य को जानने के लिए इंग्लैंड़ जाने के उत्सुक सुभाष को आय.सी.एस. की परीक्षा देने की कल्पना से दूध में नमक की डली पड़ने जैसा हुआ। क्या किया जाये, यह उसकी समझ में नहीं आ रहा था। उसका जिगरी दोस्त हेमंत भी पास नहीं था। क्या अन्य किसी दोस्त की सलाह ली जाये? हरगी़ज नहीं। हेमंत जितनी परिपक्वता किसी और के पास नहीं है और मेरे मन को उसके जितना कोई और समझ भी नहीं सकता। नव-विवेकानंद समूह के सदस्य ग़ुस्से से आगबबूले होकर मुझसे बहस करेंगे कि कहाँ गया अब तुम्हारा ध्येयवाद? हमने खायी हुईं कस्में भूलकर स्वयं ही सोने के पिंजड़े में जाने का फैसला भला तुमने कैसे कर लिया?

इस सोच-विमर्श में ही आधी रात कब बीत चुकी, इसका पता ही नहीं चला। चन्द सात-आठ महीनों के अध्ययन से क्या कोई खाक आय.सी.एस. हो सकता है, यह आशावाद भी जीवित था। मेरे पूर्व इतिहास के ज्ञात होने के कारण कोलकाता पुलीस मुझे पासपोर्ट ही मिलने नहीं देगी और आय.सी.एस. करने जाने की नौबत ही नहीं आयेगी, यह पगली आशा भी मन में थी। लेकिन भारत को ग़ुलामी की जंजीरों में जकड़नेवाले अँग्रे़जों के देश जाकर उनका निरीक्षण करने का यह एकमात्र अवसर है, यदि अब इसे मैं गँवा देता हूँ, तब आगे चलकर पुनः मुझे यह प्राप्त नहीं होनेवाला है, यह एहसास भी एक तरफ़ था। अत एव सीधे सीधे पिता को ‘हाँ’ में जवाब दे देना चाहिए, ऐसा भी विचार उसके मन में उठ रहा था।

इस वैचारिक खींचातानी में डोलती हुई सुभाष के मन की नैया आख़िर निर्णय के तट तक पहुँच ही गयी। मातृभूमि से प्रतारणा करना हालाँकि उसे मंज़ूर तो नहीं था, लेकिन प्राप्त हुए अवसर को भी वह गँवाना नहीं चाहता था। इस मामले में वह वस्तुनिष्ठतापूर्वक सोच रहा था। मैंने अपने हृदय में बसाये हुए ध्येयवाद को मैं बरक़रार ही रखूँगा, उससे अपना नाता कभी भी नहीं तोडूँगा और भारतमाता को ग़ुलाम बनानेवाले अँग्रे़जों की नौकरी तो कदापि नहीं करूँगा। स़िर्फ उनके देश में प्रवेश करना, यही मेरा ध्येय है, फिर उसके लिए चाहे आय.सी.एस. की परीक्षा देने के बहाने भी क्यों न जाना पड़े! यदि पास हुआ, तो तब का तब देखा जायेगा। मन को अपने क़ाबू में रखना ही पर्याप्त है, फिर कोई भी लालच मुझे अपने जाल में नहीं फँसा सकता। इस अन्तिम विचार से वह थोड़ासा निश्चिन्त हो गया और उसी में उसकी आँख कब लगी, इसका उसे पता ही नहीं चला।

सुबह होते ही उसने जानकीबाबू से अपनी ‘हाँ’ कह दी और हेमंत को भी इस सन्दर्भ में ख़त लिखा। हेमन्त का भी जवाब आया। उसने सुभाष को – गतकाल में आय.सी.एस. करने वहाँ पर गये और फिर उसी मायाजाल में फँस चुके छात्रों के उदाहरण देकर उसे अगुआ किया था। मायावी सपने दिखानेवाली दुनिया में अब वह कदम रखने जा रहा है, इस बात की हेमंत ने चिन्ता जाहिर की थी। लेकिन सुभाष पर उसे पूरा भरोसा था कि चाहे कितना भी कम समय क्यों न मिलें, मग़र तब भी सुभाष यह परीक्षा अवश्य पास होगा। साथ ही, परीक्षा पास होने के बाद की उस वक़्त देखी जायेगी, यह आश्‍वासक भाव भी उसने अभिव्यक्त किया था। इस जवाबी ख़त को पढ़कर सुभाष के दिल पर का भारी बोझ उतर गया और उसे लगा कि कोई तो ऐसा है, जो उसकी भावनाओं को समझ सकता है।

सुभाष के ‘हाँ’ करने से जानकीबाबू को बड़ी तसल्ली हुई। सुभाष का सबसे बड़ा भाई सतीश भी ठीक उसी वक़्त शरदबाबू की तरह ही बॅरिस्टर डिग्री की परीक्षा देने के सिलसिले में इंग्लैंड़ ही गया हुआ था। इसलिए सुभाष पर ऩजर रखनेवाला घर का कोई सदस्य वहाँ पर मौजूद है, यह सोचकर ही जानकीबाबू ने यह आय.सी.एस. का राग अलापा था। उन्हें फ़िक्र थी, वह सुभाष के ‘हाँ’ करने की और अब वह चिन्ता भी मिट चुकी थी। अब वे निश्चिन्त होकर अगली औपचारिकता को पूरा करने की जिम्मेदारी  शरदबाबू को सौंपकर कटक लौट गये।

यहाँ पर शरदबाबू ने सुभाष के जाने की तैयारी शुरू कर दी और उसे वहाँ के एक मशहूर ‘प्रोव्हिन्शियल स्टडी अ‍ॅडव्हायझर’ से मिलने के लिए कहा। यह अ‍ॅडव्हायझर अँग्रे़ज था और स्वभाव से बड़ा ही खडूस था। वह पहले प्रेसिडेन्सी कॉलेज में प्रोफेसर भी रह चुका था और सुभाष को नाम से जानता था। उसने उस मुलाक़ात में ग़ढ़े मुर्दे उखाड़कर सुभाष से सीधे सीधे यह कहा कि आय.सी.एस. की पढ़ाई तुम्हारे बस की बात नहीं है। आय.सी.एस. करना और कॉलेज में गुंडागर्दी करना, इसमें जमीन-अस्मान का फ़र्क़ है। इसलिए तुम इस झमेले में न पड़ते हुए सीधे यहीं पर एम.ए. वगैरा की पढ़ाई करो, यही तुम्हारे लिए बेहतर रहेगा, यह ताना भी मारा। साथ ही, इस परीक्षा के सिलसिले में तुम अपने पिता के पैसों को बरबाद करने जा रहे हो, यह उपहास भी किया। उसपर सुभाष ने हँसते हँसते – मेरे पिता को पैसा बरबाद करने का शौक ही है ऐसा समझ लीजिए और यदि बरबाद होने भी वाले हैं, तो वह मेरे पिता के पैसे है, यह खरी खरी भी सुनायी। तब वह स्तीमित होकर सुभाष को देखता रह गया। ऐसा मुँहतोड़ जवाब देनेवाले किसी भारतीय के साथ आज वह पहली बार ही मिल रहा था।

सद्भाग्यवश सुभाष के पूर्व इतिहास के कारण पासपोर्ट अर्जित करने में आनेवालीं सभी दिक्कतें दूर होकर सुभाष को पासपोर्ट मिल गया। नये कपड़े भी खरीदे गये। टाय, कोट आदि विलायती कपड़ों की सुभाष को आदत नहीं थी। उन्हे पहनने का अभ्यास शुरू हुआ। अपने इन ‘रंगाकाकाबाबू’  को (सुभाष को) विलायती पहनावे में देखकर सुभाष के भतीजों को बड़ा म़जा आ रहा था; वहीं, आसमान की बुलंदी को छूने निकले इस ‘छोटदा’ के बारे में घरवालों के मन में प्रशंसा थी।

सुभाष इंग्लैंड़ जा रहा है और वह भी आय.सी.एस. करने, यह ‘खबर’ नव-विवेकानंद समूह को मिल ही चुकी थी। उसकी सत्यासत्यता को परखने के लिए वे फ़ौरन सुभाष के घर आ पहुँचे और सुभाष को विलायती कपड़ों में देखकर उनका खून खौल उठा – ‘तुम भी ‘वैसे ही’ निकले! तुम्हारी आँखों पर भी अब स्वर्ण के धुए की परत जमा हो जायेगी। अरे, उस बाघ की गुफा में जानेवाले कदमों के निशान तो दिखायी देते हैं, आनेवाले दिखायी नहीं देते। वह हमारे ही समूह का फलाना फलाना व्यक्ति देखो, डॉक्टर बनने के लिए विलायत गया था। जाते समय भावनाविवश होकर, ‘वहाँ पर अर्जित ज्ञान का उपयोग वापस लौटकर देशसेवा करने के लिए करूँगा’ ऐसी बड़ी लंबीचौड़ी कस्में खाकर गया था। उसे वहाँ विलायत ऐशोआराम की जिंदगी ने निगल लिया। कई वर्षों बाद वह वापस तो आया, लेकिन हमसे एक बार तक सम्पर्क भी नहीं किया। तुम भी अब इसी तरह हमसे बिछड़ जाओगे। कितनी उम्मीदें थी हमें तुमसे….’ आादि।

उन्हें प्यार से समझाते हुए सुभाष की नाक में दम आ गया।
जैसे जैसे जाने का दिन ऩजदीक आ रहा था, वैसे वैसे सुभाष भी सभी पिछली बातों को भूलाकर जीवन के इस नये पर्व में प्रवेश करने के लिए उत्सुक था। अब वह इंग्लैंड़ के छात्रों को भारतीय झटका दिखाने के लिए बेक़रार था।

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