स्नायुसंस्था – १५

इस लेख से हम अपने हृदय के स्नायुओं का अध्ययन करने वाले हैं। हृदय लगभग पूरी तरह स्नायुओं का ही बना होता है। यदि हृदय के स्नायुओं के कार्यों का अध्ययन करना हो तो दो अलग-अलग चरणों में करना चाहिये। पहला चरण है- हृदय के स्नायुओं के आकुंचन एवं प्रसरण में एक तालबद्धता (Rythmicity) होती है। एक निश्‍चित समय में ही वे आकुंचित होते हैं। दूसरा चरण है- तालबद्ध आकुंचन के कारण हृदय से रक्त बाहर निकाला जाता है। इसे हृदय का पंपिंग कार्य कहा जाता है। आज हम दूसरे चरण से शुरुआत करते हैं। इसमें हमें देखना है कि हृदय एक पंप कैसे है।

हृदय की रचना देखने पर पता चलता है कि हृदय के कुल चार हिस्से होते हैं। इनमें से ऊपरी दो हिस्सों को अ‍ॅट्रिया कहते हैं। इसके बांयी ओर की एट्रिअम को बायीं एट्रिअम तथा दांयी ओर की एट्रिअम को दांयी एट्रिअम कहा जाता है। निचले दोनों बड़े हिस्सों को व्हेंट्रिकल कहते हैं। इसमें भी दांयी और बांयी व्हेंट्रिकल होती है। आकृती को देखने पर पता चलता है कि हृदय के दाहिनी ओर के दोनों भाग तथा बांयी ओर के दोनों भागों के बीच में कहीं पर भी सीधा संपर्क नहीं है। दांयी एट्रिअम दांयी वेंट्रिकल से तथा बांयी एट्रिअम बांयी वेंट्रिकल से जुड़ी होती है। हृदय को यदि एक पंप की तरह देखा जाए तो पता चलता है कि इसमें दो अलग-अलग पंप हैं- दांया और बांया। दांया हृदय-रक्त फ़ेफ़डो में और बांया हृदय-रक्त पूरे शरीर में पहुँचाता है। इन दोनों पंपों में से फ़िर दो पंप तैयार होते हैं। ये पंप होते हैं एट्रिआ और वेंट्रिकल्स के बीच के पंप। जब दोनों एट्रिआ आकुंचित होते हैं, तब उनका रक्त उस-उस ओर के वेंट्रिकल में प्रवेश करता है। जब वेंट्रिकल्स आकुंचित होते हैं, तब दांयी ओर का रक्त फ़ेफ़डो में जाता है वहीं, बांयी ओर का रक्त पूरे शरीर में जाता हैं।

हृदय में कुल तीन प्रकार के स्नायु होते हैं। एट्रिआ के स्नायु, वेंट्रिकल्स के स्नायु व स्वत: संवेदना निर्माण करने वाले और उसका वहन करनेवाले स्नायु। एट्रिआ और वेंट्रिकल्स के स्नायु स्केलेटल स्नायु की तरह ही फ़ैलते हैं। परन्तु इनका आकुंचन लम्बे समय तक टिकता है। स्वयं संवेदना का निर्माण करने वाले स्नायुओं का आकुंचन क्षीण होता है, क्योंकि इसमें प्रथिन-तंतु अल्प मात्रा में होते हैं। परन्तु इन स्नायुओं के आकुंचन में तालबद्धता होती है। आकुंचन का वेग भी कायम बना रहता है। इसी लिये हृदय की धड़कनों में तालबद्धता होती है और प्रति मिनट आकुंचनों की संख्या अथवा वेग भी स्थिर होता है।

इस स्नायु के प्रथिन-तंतु की रचना और कार्य स्केलेटल स्नायुओं की ही तरह होते हैं। यह हमने पहले ही देखा है। परन्तु कार्य की दृष्टि से इसमें कुछ फ़र्क निश्‍चित रुप से हैं।

हृदय के स्नायु के तंतु अनेक पेशियों के बने होते हैं। प्रत्येक दो पेशियों के बीच में पेशी आवरण का पर्दा होता है। इसे ‘इंटर कॅलेटेड डिक्स’ कहते है। पेशियों के बीच का यह आवरण अणुओं के आवागमन में अत्यंत सहायक साबित होता है। इसके कारण यहाँ पर स्नायुओं के प्रवास में किसी भी प्रकार की कोई भी अड़चन नहीं आती। कार्य की दृष्टी से देखा जाये तो स्नायुतंतु में अनेको पेशियां होते हुये भी वे एक ही पेशी की तरह एकत्रित होकर कार्य करती हैं। इसीलिये हृदय की पेशी को सिनसायटिअम (Syn= छ: अथवा एक साथ) कहा जाता है। पूरा हृदय इस प्रकार की अनेक स्नायुपेशियों का सिनसायटिअम है। परन्तु इसके भी दो प्रकार हैं। एट्रिअल सिनसायटिअम और वेंट्रिक्युलर सिनसायटिअम । एट्रिआ एवं वेंट्रिकल्स के बीच फ़ायब्रस तंतुओं की पट्टी होती है। इस पट्टे पर एट्रिआ एवं वेट्रिकल्स को जोड़ने वाले वाल्व होते हैं (A.V.Valves)।एट्रिअल सिनसायटिअम के अ‍ॅक्शन पोटेंशियल इन्हीं के कारण सीधे वेंट्रिकल्स में नहीं पहुँचते। यह वहन एक विशिष्ट तंतु में से होता हैं। इन्हें (A.V.Bundles) कहते हैं। इसके कारण एक महत्त्वपूर्ण घटना घटित होती है। एट्रिआ, वेंट्रिकल्स से थो़ड़े समय पहले आकुंचित होती है। इसके फ़लस्वरुप वेंट्रिकल्स के जोर से आकुंचित होने के पहले ही एट्रिआ का रक्त वेंट्रिकल्स में पंप किया जाता है।

अ‍ॅक्शन पोटेंशियल शुरु होते ही हृदय की पेशी का विद्युत्-दाब -८५mv से +२०mv तक बढ़ जाता है। यानी कुल १०५mv की वृद्धि होती है। यह डीपोलरायझेशन का चरण हैं। इसमें स्नायु आकुंचित होते हैं। +२०mv के विद्युतदाब तक पहुँचने के बाद भी एट्रिया के स्नायु ०.२ सेकेंड, वेंट्रिकल के स्नायु ०.३ सेकंड डीपोलराइझ्ड रहते हैं। इसके बाद रिपोलरायझेशन शुरु होता है। इस बीच की स्थिति के कारण इसका आकुंचन स्केलेटल स्नायु के आकुंचन की तुलना में पंद्रह गुना ज्यादा समय तक टिकता है, इसे प्लेटू कहते हैं।

अब प्रश्‍न यह उ़ठता है कि हृदय के आकुंचन ज्यादा समय तक क्यों टिकते हैं? इस Plateau का क्या महत्त्व है और यह कैसे होता है?

स्केलेटल स्नायु में हमनें देखा कि अ‍ॅक्शन पोटेंशियल शुरु होते समय सोडिअम के अणु काफ़ी अधिक संख्या में बडी तेज़ी के साथ स्नायुतंतुओं में प्रवेश करते हैं। इसके फ़लस्वरुप डीपोलरायझेशन होता है। पुन: उतनी ही तीव्रता से ये सोडिअम चॅनेल्स बंद हो जाती है व रिपोलरायझेशन होता है। परन्तु हृदय के स्नायुओं में अ‍ॅक्शन पोटेंशियल का निर्माण दो कारणों से होता है। १)ऊपर बताये गये अत्यंत वेग के साथ कार्य करने वाले सोडिअम चॅनल्स के कारण २)इन स्नायु तंतुओं के आवरण पर कॅल्शिअम चॅनल्स होते हैं, जो अत्यंत धीमी गती से कार्य करते हैं। ये चॅनल्स देर से खुलती हैं और ज्यादा समय खुली रहती हैं। फ़लस्वरुप आकुंचन ज्यादा समय तक शुरु रहता है।

अ‍ॅक्शन पोंटेशियल शुरु होने के साथ ही इन स्नायुओं के आवरण के पोटॅशिअम अणुओं को पेशी से बाहर ले जाने की क्रिया पाँच गुना हो जाती है। फ़लस्वरुप तुरंत होनेवाला रिपोलरायझेशन नहीं होता है और Plateau तैयार हो जाता है। जैसा कि ऊपर बताया गया है, ०.२ से ०.३ सेकेंड़ के बाद कॅल्शिअम पेशी के अंदर होने वाला वहन रुक जाता है। उसी समय पोटेशिअम अणुओं को बाहर निकालने की क्रिया शुरु हो जाती है। तथा रिपोलरायझेशन पूरा हो जाता है।

हृदय के स्नायुओं से ये विद्युत्-लहरों की फ़ैलने की गति स्केलेटल स्नायु और चेतातंतुओं की अपेक्षा काफ़ी कम होता है। यहाँ पर यह वेग ०.३ मी. से ०.५ मी/सेकेंड़ होता है। एक अ‍ॅक्शन पोंटेशियल शुरु रहते समय दूसरा अ‍ॅक्शन पोटेंशियल इस स्नायु को excite नहीं कर सकता। इसे रिफ़रॅक्टरी समय कहा जाता है। वेंट्रिकल्स में यह कालावधि ०.२ से ०.३ सेकेंड की होती है। एट्रिआ में यह समय ०.१५ से होता है।

हृदय के स्नायु का आकुंचन बनाये रखने के लिये कॅल्शिअम अणुओं की आवश्यकता होती है। ये सभी कॅल्शिअम पेशी बाह्य द्राव से T नलिका के द्वारा अंदर आती है। क्योंकि इन स्नायु पेशियों में सारकोप्लाझमिक रेटिक्युलम नहीं होता है। रिपोलरायझेशन शुरु होते ही अंदर आये हुये कॅल्शिअम के अणू फ़िर से T नलिका में पंप किये जाते है। वेंट्रिकल्स के स्नायु में यह आकुंचन ०.२ से ०.३ सेकंड़ तक टिकता है। हृदय का वेग बढ़ जाने पर आकुंचन व प्रसरण दोनों की कालावधी कम हो जाती है। परन्तु प्रसरण की अवधि आकुंचन की तुलना में ज्यादा घटती है। फ़लस्वरुप प्रत्येक चक्र में हृदय का पूर्ण प्रसरण नहीं होता है। इसका महत्त्व हम आगे समझेंगे।

(क्रमश:)

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