मथुरा भाग-६

मथुरा, इतिहास, अतुलनिय भारत, रासनृत्य, उत्तर प्रदेश, भारत, भाग-६

शरद ऋतु की पूनम की चाँदनी रात। पूर्णिमा के कारण चन्द्रबिंब भी पूर्ण है, सुहानी चाँदनी से मन प्रफुल्लित है, यमुना अपनी ही मस्ती में बह रही है। ऐसे में अचानक कहीं से मुरली की धुन से माहौल सुनहरा हो जाता है और उस अभिमन्त्रित वातावरण में श्रीकृष्ण और गोपिकाओं का रासनृत्य शुरु हो जाता है….पुराणों से लेकर कई भारतीय साहित्यप्रकारों ने अपनी अपनी दृष्टि से श्रीकृष्ण की रास का कुछ इस प्रकार ही वर्णन किया है।

विभिन्न भारतीय साहित्य प्रकार तथा अनेकों कवियों की रचनाओं में से भारत में श्रीकृष्ण की रासलीला हज़ारों वर्षों से चली आ रही है। ‘रास’ इस शब्द का सामीप्य ‘रस’ से है; दर असल ‘रस’ इस शब्द से ही ‘रास’ यह शब्द बना है, यह कहा जाता है। ‘रास’ कहते ही मनश्‍चक्षुओं के सामने आ जाते हैं, उसमें प्रधान भूमिका जिनकी है ऐसे श्रीकृष्ण। श्रीकृष्ण ही ‘परमात्मा’ हैं और वे ‘रसराज’ भी हैं यानि सभी रसों के अधिपति हैं। रास में उनके साथ रहती हैं, राधाजी और गोपिकाएँ।

मथुरा सहित सारे ब्रज में निरंतर ‘राधे राधे’ यह जयघोष सुनायी देती है। बालकृष्ण के चरित्र का एक महत्त्वपूर्ण घटक है, राधाजी। ब्रज में राधाजी की जन्मस्थली भी है और उनका जन्मोत्सव भी यहाँ धूमधाम से मनाया जाता है।

भारतीय मानसिकता पर हुए संस्कारों के अनुसार ‘राधा’ को एक ‘व्यक्तिविशेष’ माना जाता है और अत एव उनका जन्म, चरित्र इनका वर्णन इनके द्वारा उन्हें मूर्त किया गया है। लेकिन वास्तव में ‘राधा’ यह ‘तत्त्वविशेष’ है। ‘राधा’ यानि ‘साक्षात् भक्ति’। भक्ति की साकार अवस्था यानि ‘राधातत्त्व’।

इसीलिए ‘रास’ यह दर असल ‘श्रीकृष्ण परमात्मा’ और ‘उनकी भक्ति राधा’ इनके बीच की अनन्यता। कुछ साहित्यप्रकार तथा उनके रचनाकारों ने इस तत्त्वविशेष को मनुष्य रूप में वर्णित कर राधा-कृष्ण के चरित्र को एक अलग ही रूप में प्रस्तुत किया है और इसीलिए आज भी रास यानि की श्रीकृष्ण ने राधा और गोपियों के साथ किया हुआ नृत्य यही बात जनमानस पर अंकित हो चुकी है।

वास्तव में जब भगवान श्रीकृष्ण गोकुल छोड़ कर चले तब उनकी आयु केवल तेरह साल थी। इसीलिए अगर यह बात मान ली जाये की ‘रास’ यह घटना भौतिकदृष्टी से घटीत हुई है, तो उस घटना के समय कृष्ण भगवान बालक ही थें। मग़र फिर भी रास के वर्णन में शृंगार और कामक्रीडा का ही वर्णन आता हुआ दिखायी देता है।

कुछ लोगों की राय में इस रास में सम्मीलित होनेवाली गोपियों को ‘जीवात्माओं’ का प्रतीक माना जाता है। भगवान के विरह से व्याकुल हुआ प्रत्येक जीव उन भगवान से मिलने की आस में उन्हें मन के वीरान रेगिस्तान में ढूंढ़ने लगता है और अचानक से मुरली की धुन छेड़कर भगवान, ‘वह चैतन्यतत्त्व’ उसे अपना लेता है और फिर भगवान के साथ वह जीव आनन्दनृत्य में डोलने लगता है। इसीलिए रास में गोपियाँ चाहे कितनी भी क्यों न हों, लेकिन हर गोपी के साथ भगवान स्वयं रहते ही हैं अर्थात् हज़ारों करोड़ों जीवात्माओं के लिए भगवान एक ही हैं और वे भी हर एक के एवं हर एक के लिए। संक्षेप में, जीवात्मा और परमात्मा इनके आनन्दनृत्य-आविष्कार को इस ‘रास’ के द्वारा भौतिक स्तर पर दो व्यक्तिविशेषों के नृत्य-आविष्कार के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

सारांश, ‘रास’ यह परमात्मा, उनकी भक्ति और प्रत्येक जीवात्मा इन तीन अंगों का अंतर्भाव रहनेवाला नृत्य-आविष्कार।

मथुरा, इतिहास, अतुलनिय भारत, रासनृत्य, उत्तर प्रदेश, भारत, भाग-६भगवान के साथ जुड़ने की इच्छा रखनेवाला जीवात्मा फिर इस रास का एक अंग बन जाता है और भगवान के साथ रास खेलने में तन्मय हो जाता है। यह ‘रासलीला’ उस भक्त की उत्कटता के साथ तेज़ हो जाती है और उसकी गति, नाद और लय भी बढ़ते ही रहते हैं। एक पल ऐसा आ जाता है जब ये गति, नाद और लय चरमसीमा पर पहुँच जाते हैं और केवल ‘विशुद्ध आनन्द’ इस ङ्गलित की प्राप्ति होती है।

तो ऐसी है यह पूर्ण चन्द्रमा की शरद ऋतु की रात को यमुना के तट पर, लेकिन वीरान रेगिस्तान में चलनेवाली रासलीला।

इस ‘रासलीला’ को किसी सदी में शाब्दिक स्तर पर से भौतिक स्तर पर लाकर नृत्य (अ‍ॅक्चुअल डान्स परफॉर्मन्स) का स्वरूप दिया गया और ब्रज के बाहर भी इस नृत्य को किया जाने लगा। दरअसल रासलीला यह एक प्रकार का लोकनृत्य है। कहा जाता है कि इस रासलीला का प्रारम्भ १५वीं या १६वीं सदी में हुआ। इसमें कृष्णचरित्र की कई घटनाओं को ब्रज भाषा के गीतों एवं संवादों के साथ प्रस्तुत किया जाता है।

मथुरा-वृंदावन में की जानेवाली रासलीला अधिकतर मंदिरों अथवा ऊँचाईवाले स्थल पर की जाती है। वहाँ पर तात्कालिक रूप में परदे आदि के द्वारा मंच बनाया जाता है और उस रंगमंच पर रासलीला प्रस्तुत की जाती है। कुछ लोगों की राय में रासलीला का रंगमंच खुली जगह (ओपन थिएटर) में रहता है। इसकी सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि इसमे केवल लड़के ही काम करते हैं और किसी भी किरदार को निभानेवाले लड़के की उम्र ७ से १२ वर्ष तक रहती है। जब किसी लड़के की आयु १२ वर्ष से अधिक हो जाती है, तब वह रासलीला में काम करना बंद कर देता है। इसकी वजह यह बतायी जाती है कि रास का अविभाज्य अंग रहनेवाले श्रीकृष्ण, राधाजी और गोपियाँ इनकी व्यक्तिरेखाओं को जनमानस में पवित्र एवं पूजनीय माना जाता है और इसीलिए उनके किरदार निभानेवाले कलाकार का मन विकारहीन रहना ज़रूरी है।

उन बच्चों को रासलीला का संपूर्ण प्रशिक्षण दिया जाता है। उनका भोजन भी सात्त्विक होना चाहिए और उनके लिए अध्ययन करना भी अनिवार्य रहता है। साथ ही उनके द्वारा गायत्री मंत्र की दीक्षा ली गयी होनी चाहिए यानि उनका गायत्री उपासक रहना भी अनिवार्य है। उन्हें ‘रासधारी’ कहा जाता है। दर असल इन रासधारियों के खानदान परंपरागत रासलीला करनेवाले माने जाते हैं, जिससे की रासलीला की परंपरा का निर्वाह पीढ़ी दर पीढ़ी किया जाता है। रासधारियों को प्रशिक्षण देनेवाले विशिष्ट प्रमुख भी रहते हैं।

बदलते समय के साथ साथ इस रासलीला के प्रस्तुतीकरण में भी परिवर्तन हो रहा है, ऐसा भी कहा जाता है। लेकिन इसके लिए समय के साथ साथ अन्य भी कई कारण तथा समीकरण ज़िम्मेदार है। मग़र इसके बावजूद आज भी मथुरा-वृंदावन तथा सारे ब्रज की पहचान के रूप में रासलीला की महिमा क़ायम है।

रासलीला के विवेचन में हमने एक भाषा का ज़िक्र किया, ‘ब्रज’ भाषा का। ब्रजभाषा यह ब्रजमंडल की बोली है। मथुरा, आग्रा, अलिगढ़, इटावा, मैनपुरी, हाथरस आदि उत्तर प्रदेश के स्थानों के साथ साथ इसका प्रसार राजस्थान, पंजाब तथा मध्य प्रदेश इनके भी कुछ हिस्सों में हुआ है और इसी वजह से वह वहाँ की भी बोली है।

सूरदासजी ब्रजभाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। कई कवियों की रचनाएँ ब्रजभाषा में हैं। ब्रजभाषा श्रीकृष्ण तथा उनके चरित्र की घटनाओं का पद्यरूप में वर्णन करती ही है और साथ ही यह बोली होने के कारण जनमानस पर इसकी मज़बूत पकड़ है। इसी वजह से लोकसाहित्य में भी इस भाषा का उपयोग बड़े पैमाने पर किया जाता है। जन्म से लेकर कई संस्कार, विभिन्न त्यौहार, उत्सव, ऋतु आदि कई प्रसंगों पर आधारित लोकगीत ब्रजभाषा में लिखे गये हैं।

गत लेख में लोकगीतों के वर्णन में ‘रसिया’ इस गीतप्रकार का विवेचन हम कर चुके हैं। इस संदर्भ में यह भी जानकारी प्राप्त हुई है कि रसिया के साथ साथ ब्रजमंडल में ‘नारायणगीत’ नामक एक गीतप्रकार भी प्राचीन समय से प्रचलित है।

संक्षेप में, मथुरा तथा उसके आसपास के ब्रजप्रदेश ने कई परंपराओं को जतन करते हुए आजतक उनका निर्वाह किया है।

मथुरा के अंतरंग को हम देख चुके हैं, ब्रज की भी सैर कर चुके हैं; अब मथुरा से विदा लेने का व़क़्त आ चुका है। मग़र तब भी कन्हैया की मधुर मुरली हमें यहाँ खींचती रहती है। अत एव मथुरा से अलविदा कहने से पहले यहाँ की दो महत्त्वपूर्ण बातों को देखते हैं।

पहली बात है, ‘मथुरा का संग्रहालय’। १९वीं सदी की उत्तरार्ध में इसकी स्थापना की गयी। उस समय के मथुरा के कलेक्टर ने इस संग्रहालय की स्थापना की। इसकी ख़ासियत यह है कि यहाँ ‘मथुरा शैली’ में बनायी गयी प्राचीन शिल्पाकृतियों का संग्रह किया गया है।

मथुरा के इतिहास से यह ज्ञात होता है की प्राचीन समय में यहाँ शिल्पकला का उदय हुआ था। विशेष रूप से कुशाण और शकों के समय में यह प्रक्रिया अधिक गतिमान हुई दिखायी देती है। उसी समय से ‘मथुरा शैली’ का भी विकास होने लगा। आगे चलकर वह विकसित होती रही और इस म्युज़ियम में हमें यही बात दिखायी देती है। टेराकोटा और पत्थर से बनीं विभिन्न मूर्तियों को यहाँ के संग्रहालय में रखा गया है। मथुरा और आसपास के प्रदेशों में हुई खुदाई में ये मूर्तियाँ पायी गयींहै । साथ ही स्वर्ण, चाँदी और तांबे के सिक्के, मिट्टी से बनी विभिन्न वस्तुएँ भी यहाँ पर हैं।

‘साँझी’, संध्याकाल इस शब्द से बना यह शब्द। ‘साँझी’ यह मथुरा का एक कलाप्रकार है। ‘साँझी’ यानि ज़मीन पर बनायी जानेवाली ङ्गूलों की रंगोली। इसका संबंध भी ठेंठ श्रीकृष्ण के साथ है, ऐसा कहते हैं। लेकिन आज के आधुनिक युग में यह साँझी कुछ ओझल सी होती जा रही है। लेकिन इस साँझी की तरह मथुरा-वृंदावन की हमारी यादें ओझल न होते हुए हमेशा तरोताज़ा ही रहें, इसी मनोकामना के साथ ब्रज से अलविदा कहते हैं।

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