क्रान्तिगाथा-२७

अँग्रेज़ों के भारत आने से एक और नयी समस्या उत्पन्न हो गयी थी। वह थी, उनका धर्म, उनकी संस्कृति और उनके मूल्य यहाँ के समाजमानस में जड़ें पकडने लगे थे। भारत में उस समय रहनेवाले कई धार्मिक-सामाजिक पंथों/मार्गों के सामने इन बदलावों को रोकना यह एक चुनौती थी। उसी समय अँग्रेज़ों के द्वारा भारत में किये गये कुछ सुधार-जैसे कि शिक्षा पद्धति, रेल, टेलिग्राम-डाक सेवा आदि उचित सुधारों का भारतीयों ने खुले दिल से स्वागत ही किया था।

१८५७ की सशस्त्र क्रान्ति के बाद या उससे पहले उदयित हुए अन्य कुछ महत्त्वपूर्ण धार्मिक-सामाजिक पंथों/मार्गों का भारत में वैचारिक क्रान्ति कराने में योगदान तो है ही, साथ ही इन पंथों/मार्गों के कुछ संस्थापकों तथा अनुयायियों का भारत की आज़ादी के आन्दोलन में भी बहुत बड़ा योगदान रहा है।

जातिव्यवस्था पर आधारित उच्च-नीचता उस समय के भारतीय समाज में बिकट परिस्थितीयों  का निर्माण कर रही थी। इससे भारतीय समाज का काफी नुक़सान हो रहा था और इसका फायदा अँग्रेज़ अपने स्वार्थ के लिए उठा सकते थें।

संस्कृतिसितंबर १८७३ में पुणे में ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना हुई। इसके संस्थापक थे ‘महात्मा ज्योतिबा फुले’। अप्रैल १८२७ में सातारा में जन्में ज्योतिबा फुले को उनके इस समाजकार्य में बहुमूल्य और मज़बूत साथ मिला, उनकी पत्नी ‘सावित्रीबाई फुले’ का।

सत्यशोधक समाज ने समाजसुधार कार्य के साथ साथ एक और महत्त्वपूर्ण कार्य किया, वह था स्त्रियों की शिक्षा के लिए कदम उठाना। समाज के निम्न स्तर में जहाँ पुरुषों में अज्ञान था, वहाँ स्त्रियों की स्थिति का क्या कहना!

एक स्त्री के शिक्षित होने से महज़ उसका परिवार ही नहीं, बल्कि धीरे धीरे सारा समाज ही आगे बढ़ता है, यह जानते हुए महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले इस दंपती ने स्त्रियों को पढ़ाने का अपना कार्य शुरू कर दिया। समाज के रूढ़ीवादी, परंपरावादी लोगों का विरोध और गुस्सा भी उन्हें सहना प़ड़ा। सावित्रीबाई फुले ने कार्य की लगन से अध्यापिका की भूमिका का स्वीकार किया और १ मई १८४७ को केवल एक ही बच्ची को सिखाना शुरू करके स्त्री-शिक्षा की नींव रखी। १ जनवरी १८४८ में पुणे के भिड़ेवाडा में पढ़ने आनेवाली छात्राओं की संख्या थी ९ और १८४८ में यह दंपती छात्राओं के लिए ५ स्कूल शुरू करने में कामयाब रहा।

यहाँ पर एक मुद्दे पर ग़ौर करना ज़रूरी है कि आगे चलकर भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में भारत भर में जो नेतृत्व उदयित हुए, उनमें से अनेकों का शुरुआती दौर में इस तरह की धार्मिक-सामाजिक सुधार आंदोलनों से संबंध रहा था या फिर वे इससे प्रभावित हुए थे।

समय जैसे जैसे आगे बढ़ रहा था, वैसे वैसे भारतीय समाज की स्थिति तेज़ी से बदल रही थी। प्राचीन समय से भारतीयों के जीवन की बुनियाद रहनेवाले वैदिक धर्म को फिर एक बार जनमानस में जगाने का कार्य किया, ‘स्वामी दयानंद सरस्वती’जी ने।

अज्ञान और कई ग़लत प्रथाओं और धारणाओं के कारण भारतीयों की पूजनपद्धतियों में पशुबलि जैसी ग़लत रूढ़ियाँ शुरू हो गयी थीं। समाज इस क़दर उनका आदी बन चुका था कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को ये बातें सिखायी जा रही थी।

इस तरह की ग़लत बातों को बदलने का मुश्किल काम करने के लिए स्वामी दयानंद सरस्वती आगे बढ़े। फरवरी १८२४ में गुजरात के ‘टंकारा’ में जन्मे स्वामी दयानंद सरस्वती का मूल नाम था-मूलशंकर। उन्होंने युवावस्था में ही संन्यास ले लिया था और कुछ समय तक गहरा अध्ययन किया।

मुंबई में अप्रैल १८७५ में स्वामी दयानंद ने ‘आर्य समाज’ की स्थापना की और फिर समाजप्रबोधन के लिए भारत के विभिन्न इलाकों में से यात्रा करते हुए उन्होंने प्रवचन दिये। १८७७ में लाहोर में भी ‘आर्य समाज’ की एक शाखा की स्थापना की गयी।

वैदिक धर्म का प्रचार और प्रसार, सती, सामाजिक विषमता, स्त्रीशिक्षा, गायों की सुरक्षा जैसे कई महत्त्वपूर्ण कार्य ‘आर्य समाज’ के द्वारा किये गये।

३० अक्तूबर १८८३ को स्वामी दयानंद सरस्वती इस दुनिया को छोड़कर चले गये, लेकिन उनकी प्रेरणा से स्थापित हुए ‘आर्य समाज’ का कार्य चलता रहा।

इसी दौरान १८८३ में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटना घटित हुई। अब तक भारतीय न्यायाधीशों के पास अँग्रेज़ गुनाहगारों की तहक़िकात करने का अधिकार नहीं था, फिर उन्हें सजा देने की बात तो दूर ही रही। १८८३ में पारित हुए एक बिल से भारतीय न्यायाधीशों को यह अधिकार दिया गया।

साथ ही भारत के गाँवों तथा शहरों के निवासियों की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण सुधार भी किया गया। इस सुधार के तहत तालुका, ज़िला, शहर इन स्तरों पर स्वास्थ्य, सड़कें, शिक्षा, जलपूर्ति आदि कामों के लिए म्युनिसिपालटी, तालुका लोकल बोर्ड आदि की स्थापना की गयी और यहाँ पर काम करनेवालों को चुनने का अधिकार जनता को दिया गया और २८ दिसंबर १८८५ को घटित हुई घटना ने आनेवाले समय में होनेवाले आज़ादी के आंदोलन को एक नया मोड़ दे दिया।

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