क्रान्तिगाथा-३२

प्लेग के संक्रमण को रोकने के लिए पुणे के स्थानीय ब्रिटिश प्रशासन के द्वारा उपायों के नाम पर किये जा रहे अमानुष अत्याचारों ने अब सारी हदें पार कर दी थीं। आम आदमी निरंतर भय के साये में जी रहा था। एक तऱफ बीमारी का डर और दूसरी तऱफ अँग्रेज़ सैनिक कभी भी आकर घर को उजाड़ देंगे यह डर।

आम भारतीयों के असन्तोष का परिणाम हो गया, रँड और आयर्स्ट इन दो अँग्रेज़ अफसरों का वध कर देने में। पुणे में प्लेग ने जब कुहराम मचाया था, तब वहाँ पर रँड नाम के अँग्रेज़ अफसर के अधिकार में एक ‘स्पेशल प्लेग कमिटी’ की स्थापना की गयी।

२२ जून १८९७, रानी व्हिक्टोरिया के द्वारा राजगद्दी सँभालने की घटना को ६० साल पूरे हो गये थे। आम भारतीयों की हालत खराब हो रही थी। वहीं, पुणे में ब्रिटन की रानी के राज्यारोहण का हीरक महोत्सव मनाया जा रहा था। इस समारोह के लिए पुणे के अँग्रेज़ अफसर ‘गव्हर्मेंट हाऊस’ में इकट्ठा हुए थे। समारोह समाप्त होने के बाद एक एक अफसर अपनी अपनी बग्गी में बैठकर लौट रहा था। अब दिन ढल चुका था और अँधेरा छाने लगा  था। तभी गणेश घाटी में आयी एक बग्गी में बैठा अँग्रेज़ अफसर, उसपर चलायी गयी गोलियों से ढेर हो गया, वहीं अन्य एक अफसर को भी गोलियाँ चलाकर मार दिया गया।

रात के अन्धेरे में गोलियों की आवाज़ खो गयी और इस घटना के कारण आज बड़े अरसे के बाद अँग्रेज़ सरकार को बड़ा झटका लगा था। क्योंकि १८५७ के बाद और वासुदेव बळवंत फडकेजी के द्वारा अँग्रेज़ों के खिलाफ किये गये सशस्त्र आंदोलन के बाद आज भारतीयों का उबलता हुआ खून अँग्रेज़ देख रहे थे। रँड और आयर्स्ट के वध के बाद अँग्रेज़ों ने यह काम करनेवालों को पकड़ने के लिए एड़ीचोटी का पसीना एक कर दिया। यह काम करनेवाले क्रान्तिकारियों को खोजने के लिए नागरिकों घरों में वक़्त-बेवक़्त घुसकर तलाशी लेना, नागरिकों की पूछताछ करना और मारपीट करना, बेगुनाहों को बेवजह गिरफ्तार कर लेना इस तरह के अत्याचार अँग्रेज़ कर रहे थे और आख़िर तीन चाफेकर भाई और महादेव रानडे इन युवकों पर दो अँग्रेज़ अफसर्स – रँड और आयर्स्ट का ख़ून करने का इलज़ाम रखकर अँग्रेज़ सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया।
चिंचवड, पुणे स्थित हरिपंत चाफेकरजी के तीन बेटे थे- दामोदरजी, बाळकृष्णजी और वासुदेवजी।

ब्रिटिश प्रशासनकीर्तनकार हरिपंत चाफेकरजी मुंबई और पुणे में कीर्तन करते थे। उनके इन तीनों बेटों ने पुणे में हुए प्लेग के संक्रमण को और उससे पीड़ित आम आदमी की परेशानियों को देखा था। अँग्रेज़ों के द्वारा पीड़ितों पर ढाये जा रहे ज़ुल्म को प्रतिकार करने के लिए उनके मन में एक योजना बन रही थी। इसीकी पूर्वतैयारी के रूप में उन्होंने बलवर्धन के प्रशिक्षण के साथ साथ शस्त्र चलाना भी सीख लिया था। अब अपनी योजना को साकार करने के लिए रानी के राज्यारोहण के हीरक महोत्सव का अवसर उन्हें मिल गया और उन्होंने योजना के अनुसार रँड और आयर्स्ट को मौत के घाट उतार दिया।

लेकिन फिर एक बार गद्दारी ने घात कर दिया और चाफेकर भाइयों को गिरफ्तार करने में अँग्रेज़ों  को कामयाबी मिल गयी। उनपर  ‘अँग्रेज़ अफसरों का खून करने का’ इलज़ाम रखा गया। फिर मुकदमा चलाना और क़ानूनी छानबीन करना आदि फार्स भी किये गये। लेकिन सब लोग जानते ही थे कि फैसला क्या सुनाया जानेवाला है। ‘मेरी मातृभूमि के दुश्मन का मैंने ख़ात्मा कर दिया है’ इस देशप्रेम की भावना से ओतप्रोत रहनेवाले तीनों चाफेकर भाई और रानडे को अँग्रेज़ों ने फाँसी की सज़ा सुनायी। मातृभूमि को आज़ाद करने का सपना मन में सँजोनेवाले ये चारों युवक अपनी उम्र के महज़ २०-२५ वें वर्ष में मातृभूमि के लिए हँसते हुए फाँसी पर चढ़ गये।

और अँग्रेज़ सरकार ने लोकमान्य टिळकजी पर ‘राजद्रोह’ करने का इलज़ाम रखते हुए जुलाई १८९८ में उन्हें गिरफ्तार कर लिया। केसरी में टिळकजी के द्वारा लिखे गये लेखों ने इन युवकों को अँग्रेज़ विरोधी कृति करने के लिए उकसाया यह आरोप टिळकजी पर रखा गया।

टिळकजी पर मुकदमा दायर कर दिया गया। अँग्रेज़ सरकार ने टिळकजी पर के आरोप को गवाहों-सबूतों के आधार से सिद्ध किया और आख़िर अठारह महीनों के सश्रम कारावास की सज़ा टिळकजी को सुनायी गयी।

येरवड़ा की जेल में इस दौरान टिळकजी को रखा गया था। लेकिन यह कारावास तो नरकवास के समान था। जेल के सख़्त कामों का एवं वहाँ के जल, वायु तथा अन्न का बुरा असर टिळकजी के स्वास्थ्य पर हो गया। लेकिन इतनी परेशानियाँ उठाते हुए भी टिळकजी की ज्ञानसंवर्धन करने की प्रवृत्ति बरक़रार थी। इसी दौरान वे वेदों का अध्ययन कर रहे थे और वेदों का अध्ययन करते हुए उन्होंने वेदों का कालनिर्णय करना भी शुरू कर दिया था। अपने इस अध्ययन में से आगे चलकर उन्होंने ‘ओरायन’ नाम का एक ग्रन्थ भी लिखा।

अँग्रेज़ सरकार ने सितंबर १८९८ में कुछ शर्तें रखते हुए टिळकजी को रिहा कर दिया। २२ जून १८९७ की घटना से फिर एक बार देशभक्तों में चेतना का संचार होने लगा। अब अँग्रेज़ों को हमारी मातृभूमि में से खदेड़ देने के लिए क्या क्या किया जा सकता है इसके बारे में क्रान्तिकारी मन सोचने लगे और भविष्यकालीन अनेक क्रान्तिकारी योजनाओं के बीज क्रान्तिकारियों की मनोभूमि में पनपने लगे।

१८९८ में जेल में से रिहा हो चुके टिळकजी अब अपने कार्य के कारण ‘लोकमान्य’ बन गये थे।

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