क्रान्तिगाथा-२६

भारत में अब एक नये पर्व की शुरुआत हो रही थी। सशस्त्र क्रान्ति की राह पर चलकर की गयी कोशिशों को हालाँकि क़ामयाबी न भी मिली हो, मग़र फिर भी भारतीयों के मन में रहनेवाली स्वतन्त्रताप्राप्ति की आस अब भी बरक़रार थी, दर असल दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही थी।

इस भारतभूमि में आज भी अनेक विविधताएँ हैं और उस ज़माने में भी वे थीं ही। प्रत्येक इला़के की भौगोलिकता के अनुसार वहाँ के निवासियों के आचार, विचार, रीतिरिवाज़ अलग अलग थे और इसीलिए संपूर्ण भारतीय समाज को एकसंध रूप में बाँधने का कार्य मशक्कतभरा था और चुनौती भरा भी। इसी समय भारत के विभिन्न प्रान्तों में अनेक तत्त्वज्ञों तथा समाजसुधारकर्ताओं का उदय होने लगा।

भारतीय समाजमानस प्राय: धार्मिक ही रहा है। परंपरागत रीतिरिवाज़ों और रूढ़ियों का प्रभाव भारतीय समाजमन पर का़फी रहा है और इनमें से ही फिर कई अनिष्ट रीतिरिवाज़ों ने भारतीय समाजमन पर कब्ज़ा कर लिया था।  १८५७ के सशस्त्र आंदोलन के बाद के समय में भारत में एक बहुत ही अलग तरह की क्रान्ति होना शुरू हो गया। हालाँकि इस क्रान्ति के कुछ बीज १८५७ से पहले ही बोये गये थे और उन कुछ बीजों में से निकले हुए अंकुरों को भारतीयों ने इससे पहले भी देखा था। भारतीय समाज में अब एक वैचारिक क्रान्ति होने जा रही थी।

इस क्रान्ति में शस्त्र थे, तत्त्वज्ञों तथा सुधारकों के विचार और उनपर अमल करते हुए की गयी प्रत्यक्ष कृति। इस क्रान्ति में सहायभूत साबित होनेवाला एक और अस्त्र था, क़लम।

भारतीय जनता के मामले में उदारतावादी नीति अपनाने का दिखावा करते हुए भारत की सत्ता हाथ में ले चुकी ब्रिटन की रानी ने खास भारतीयों के लिए एक घोषणापत्र प्रकाशित किया। इस घोषणापत्र के अनुसार-भारतीयों के सामाजिक एवं धार्मिक जीवन में, राज करनेवाले शासक अँग्रेज़ों द्वारा किसी भी प्रकार की दखल अंदाज़ी न देने का, रियासतों को ख़ालसा न करने का और भारतीयों का अधिक कल्याण करने का; इस तरह के कई आश्‍वासन दिये गये थे। लेकिन इससे ‘ग़ुलामी’ के फंदे से भारतीय आज़ाद होनेवाले नहीं थे।

१८६० के बाद के कालखंड में क़लम, तत्त्वज्ञों एवं सुधारकों के विचार और उस के अनुसार  की गयी प्रत्यक्ष कृति ये बातें भारतीय समाज को बहुत बड़े प्रमाण में जागृत करानेवाली साबित हुईं और खून का एक क़तरा तक न बहाते हुए वैचारिक परिवर्तन करानेवालीं साबित हुईं।

‘वेद’ ये सदा ही भारतीयों के लिए ‘आप्तवाक्य’ रहे हैं और ‘वेदप्रामाण्य’ यह भारतीय जीवनपद्धति का आधार है।

भारत में अब अनेक तत्त्वज्ञों एवं सुधारकों द्वारा किये गये भारतीय समाज और समाजमन के अध्ययन में से अनेक धार्मिक-सामाजिक पंथों/मार्गों का उदय हो गया। इनमें से अधिकतर पंथों/मार्गों की वैचारिक नींव वेदप्रामाण्य पर ही आधारित थी। इन पंथों या मार्गों का उदय होने से एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुआ, वह था, भारतीयों में प्रचलित रहनेवाली कई अनिष्ट प्रथाओं, रूढ़ियों और विचारों का कड़ा विरोध करके इन सब को भारतीयों के जीवन से निकाल बाहर कर दिया गया। इन पंथों/मार्गों ने अपनी अपनी क्षमता से भारतीयों को ‘ईश्‍वर और इन्सानियत’ ये दोनों बातें सिखाने की कोशिशें कीं।
इन सब बातों सें भारत में महिलाओं की स्थिति में सुधार हुआ। साथ ही जातिव्यवस्था पर आधारित उच्च-नीचता का उच्चाटन होने में सहायता मिली। भारत में सती की प्रथा सदियों से चली आ रही थी। इस बुरी प्रथा को पूरी तरह खत्म कर देने के लिए पहला कदम उठाया था ‘राजा राममोहन रॉय’ने। उन्हीं के द्वारा की गयी लगातार कोशिशों से अँग्रेज़ों ने १८२९ में क़ानूनी तौर पर सती की प्रथा भी कर दी।

सशस्त्र क्रान्ति२२ मई १७७२ में पश्‍चिम बंगाल में जन्मे राजा राममोहन रॉय ने वेदों का अध्ययन भी किया था। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में कुछ समय तक नौकरी भी की थी। इसी दौरान भारतीय समाज में चल रही सती की प्रथा का दिल दहला देनेवाला रूप देखकर वे बेचैन हो गये और इसके खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए उन्होंने क़लम हाथ में ले ली। १८२१ में उन्होंने ‘संवाद कौमुदी’ नाम का बंगाली भाषा का एक अखबार भी शुरू कर दिया। १८३० में उन्होंने देबेन्द्रनाथ टागोर के साथ कलकत्ता में ब्राह्मो समाज की स्थापना की।

ऊपर वर्णित प्रश्‍नों के साथ साथ अन्य कई प्रश्‍न भी भारतीय समाज के सामने थे। दर असल भारतीय समाज के लिए उनका रूप रूढ़ियाँ और रीतिरिवाज़ इस तरह का होने के कारण भारतीयों को वे कभी प्रश्‍न लगे ही नहीं थे।

भारत में विधवाओं की स्थिति बहुत ही दर्दनाक थी। बालविवाह भी हो रहे थे। शिक्षा के मामले मे महिलाएँ बहुत ही पिछड़ी हुई थीं।

इन सामाजिक परिस्थितियों में सुधार करने के उद्देश्य से डॉ.आत्माराम पांडुरंग ने १८६७ में ‘प्रार्थना समाज’ की स्थापना मुंबई में की। इस प्रार्थना समाज की स्थापना का बीज इससे पहले गुप्त रूप से स्थापित की गयी ‘परमहंस सभा’में था।

प्रार्थना समाज के कार्य में रामकृष्ण भांडारकर, नारायण चंदावरकर और न्यायमूर्ति रानडे ने अपना योगदान दिया।

इस तरह की सभाओं/समाजों की स्थापना और कार्य के कारण भारतीय समाज अनिष्ट रूढ़ियों, रीतिरिवाज़ों के चंगुल से धीरे धीरे मुक्त होने लगा था और इसी दौरान कुछ ऐसे नेतृत्वों का भी उदय हो रहा था, जो आगे चलकर समाज को प्रगतिपथ पर ले जानेवाले थे।

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