क्रान्तिगाथा-३०

बड़ा ही धूमधाम भरा समय, लेकिन उतनी ही देशभक्ति से भरा समय। ‘देश को आज़ाद करने’ के विचार से प्रभावित कई देशभक्त देश के विभिन्न प्रदेशों में उदयित हो रहे थे और अपनी अपनी क्षमता से समाजजागृति का कार्य और अँग्रेज़ों को अपने देश से खदेड़ देने का कार्य उत्साहपूर्वक कर रहे थे।

लोकमान्य बाळ गंगाधर टिळक। बहुत ही निर्भय एवं प्रखर देशभक्त।  रत्नागिरी में २३ जुलाई १८५६ को टिळकजी का जन्म हुआ।  बहुत ही बुद्धिमान रहनेवाले टिळकजी की निर्भयता का परिचय उनकी छात्रावस्था में ही मिलने लगा था। टिळकजी ने बी.ए. की उपाधि अर्जित करके फिर क़ानून की उपाधि (एल्.एल्.बी. डीग्री) भी अर्जित की। कॉलेज में ही उनकी गोपाळ गणेश आगरकरजी से दोस्ती हुई। दोनों भी उस वक़्त देशप्रेम से अत्यधिक प्रेरित थे और मातृभूमि को आज़ाद करना यही दोनों का ध्येय था।

समाजजागृतिइससे पहले भारतभर में तथा महाराष्ट्र में से उदयित हुए प्रज्ञावान देशभक्तों का आदर्श उन्होंने अपने सामने रखा था और इसी प्रक्रिया में से पुणे में स्थापना हुई ‘न्यू इंग्लिश स्कूल’ की। १८८० के आरंभ में ही विष्णुशास्त्री चिपळुणकरजी के मार्गदर्शन में यह स्कूल शुरू हो गयी। देशप्रेम से भारित हुई पिढ़ी ही इस माध्यम से तैयार होनेवाली थी। चिपळुणकर, आगरकर और टिळक तीनों भी इस स्कूल में अध्यापन करते थे। लोकमान्य टिळक एक बहुत ही उत्तम अध्यापक भी थे और जनजागरण के लिए उन्होंने अध्यापन का कार्य शुरू किया था।

देश की उदयित हो रही नयी पिढ़ी को बेहतरीन बनाने का कार्य तो शुरू हो गया था, लेकिन अन्य देशवासियों में भी देशप्रेम की यह चेतना जागृत होनी चाहिए और इसी ध्येय से जन्म हुआ, दो महत्त्वपूर्ण समाचारपत्रों का। ये दो समाचार पत्र थें – ‘केसरी’ और ‘मराठा’।

‘केसरी’ यह मराठी में प्रकाशित होनेवाला समाचार पत्र था और मराठा अँग्रेज़ी में। लेकिन दोनों का कार्य एक ही था – जनजागृति। अँग्रेज़ों के दबावतन्त्र एवं अन्याय के खिलाफ देशवासियों को जागृत करने के ध्येय से इन समाचारपत्रों की शुरुआत की गयी थी। इन समाचार पत्रों में अँग्रेज़ सरकार के खिलाफ लिखे गये लेखों के कारण प्रसंगवश टिळक-आगरकर को मुंबई में कुछ महीनों का कारावास भी भुगतना पड़ा था।

अब अपने कार्य के स्वरूप को अधिक व्यापक बनाने के लिए १८८४ में टिळकजी ने डेक्कन एज्युकेशन सोसायटी की स्थापना की और इसके तहत जनवरी १८८५ में पुणे में फर्ग्युसन कॉलेज की स्थापना की गयी। इसी कॉलेज में लोकमान्य टिळक स्वयं गणित और संस्कृत सिखाते थे। लेकिन इसी दौरान टिळक और आगरकर के बीच के वैचारिक मतभेद तीव्र हो गये और परिणामस्वरूप टिळकजी ने अपना ध्यान केसरी और मराठा के संपादन में लगाया।

उस समय के भारतीयों के जीवन में जागृति करने का काम समाचारपत्रों के साथ साथ अनेक कथा-उपन्यासों ने भी किया। उसमें अग्रस्थान में जिसका नाम लिया जा सकता है, वह उपन्यास था – ‘आनंदमठ’। लेखक थे बंकिमचन्द्र चटर्जी/चटोपाध्याय। बंगाल के विख्यात लेखक। इस उपन्यास ने उस समय भारतीयों के जीवन को काफी प्रभावित किया। १८८२ में ‘आनन्दमठ’ प्रकाशित हुई और उसने नवचेतना जगा दी। १८वीं सदी के उत्तरार्ध में बंगाल में पड़े भयानक सूखे की और उसके बाद बंगाल में ही संन्यासी लोगों ने किये हुए विद्रोह की पार्श्‍वभूमि आनन्दमठ को थी। इस आनन्दमठ ने हज़ारों भारतीयों के मन में फिर एक बार स्वतन्त्रता की आस जगा दी और उस दिशा में कदम पड़ने भी लगे। आनन्दमठ की एक ख़ासियत यह थी कि स्वतन्त्रतासंग्राम के दौरान जो देशभक्तिमय गीत भारतीयों का स्फूर्तिस्थान बन गया था, वह इसी उपन्यास का ही एक हिस्सा था और वह देशभक्तिमय गीत था – ‘सुजलां सुफलां सस्यशामलां मातरं….. वन्दे मातरम्।’

जनजागृति के लिए ‘लिखना’ इस शस्त्र के साथ साथ लोकमान्य ने एक अन्य अस्त्र भी खोज लिया था और वह था, लोगों के इकट्ठा होने का, उनमें परस्पर विचार, मतों का आदान प्रदान करने का। इसके लिए लोकमान्य ने दो प्रचंड बलस्थानों के सार्वजनिक उत्सव शुरू किये। एक बुद्धिदाता गणपति का ‘गणेशोत्सव’ और स्वराज्य, स्वधर्म एवं स्वतन्त्रता इस त्रिसूत्री के लिए जीवनभर जूझनेवाले प्रचंड बहादुर छत्रपति शिवाजी महाराज की जयंती का उत्सव।

ये दो उत्सव शुरू हो गये और जनता में चेतना आ गयी। बड़ी संख्या में इकठ्ठा होनेवाले लोगों में आपसी वैचारिक आदान-प्रदान शुरू हो गया। इन सारी कोशिशों में लोगों को धीरे धीरे अपने हक़ों का एहसास होने लगा और अँग्रेज़ किस तरह हमारे मूलभूत हक़ों को हमसे छीन रहे हैं और मूलभूत सुविधाओं से भी हमें वंचित रख रहे हैं यह भी जनता की समझ में आने लगा।

इसी दौरान १८९६-९७ में महाराष्ट्र में भयानक सूखा पड़ गया और सूखापीड़ित जनता की तकलीफ देखकर भी सरकार किसी भी प्रकार की सहायता नहीं कर रही थी।

केसरी में लेख लिखकर लोकमान्य ने सरकार को स्वकर्तव्य का एहसास कराया और इसी दौरान अपने देशवासियों की हर संभव सहायता टिळकजी क़ानूनी मार्ग से कर ही रहे थे। वहीं अँग्रेज़ सरकार टिळकजी को कारागृह में डालने के अवसर के तलाश में थी।

Leave a Reply

Your email address will not be published.