क्रान्तिगाथा-३१

लोकमान्य टिळक जी की क़लम और विचार से भारतीय जनता जागृत होने लगी है और भारतीयों को अपने अधिकारों का एहसास होने लगा है यह बात अँग्रेज़ सरकार के लिए सिरदर्द साबित होने लगी थी।

लोकमान्य टिळकक्योंकि टिळकजी महज़ जनजागृति करके रूकते नहीं थे, बल्कि अँग्रेज़ सरकार को खत लिखना, उनकी कमिटी से चर्चा करना इन मार्गों का भी अवलंबन करते थे। इसका यह एक ही उदाहरण पर्याप्त है कि मुंबई युनिव्हर्सिटी की सिनेट पर लोकमान्य टिळक जी को चुना गया था, साल था इसवी सन १८९४। ब्रिटन में आय.सी.एस. की परीक्षा लेकर उसमें से प्रशासकीय अधिकारी बनाये जाते थे। इस मसले का गहन अध्ययन करके टिळक जी ने अँग्रेज़ सरकार को एक अर्ज़ी दी और उसमें ‘आय.सी.एस. की परीक्षा भारत में भी ली जानी चाहिए’ यह माँग की।

टिळकजी ने अँग्रेज़ों के क़ायदे क़ानून का गहराई से अध्ययन किया था और उसकी जानकारी भी वे भारतीयों को दे रहे थे। जानकारी देने के साथ साथ टिळकजी भारतीयों को अपने अधिकारों के प्रति जागृत भी कर रहे थें। सारांश, अब टिळकजी को रोकने की स़ख्त ज़रूरत अँग्रेज़ सरकार को महसूस हो रही थी।

दुर्भाग्य कहिए कि अँग्रेज़ों को ऐसा मौका जल्द ही मिल गया।

साल था १८९७। हुआ यूँ की १८९६ में मुंबई में प्लेग का संक्रमण हुआ था। मुंबई बंदरगाह में प्रतिदिन होनेवाली माल और यात्री इनकी आवाजाही यह इसकी वजह है यह निष्कर्ष अध्ययन के बाद सामने आ गया था। प्लेग की वजह रहनेवाले जीवाणुओं का संक्रमण इस आवाजाही के ज़रिये हुआ होगा ऐसी विशेषज्ञों की राय थी। इस प्लेग को ‘ब्युबॉनिक प्लेग’ कहा जाता था। आज वैद्यकीय सुविधाओं एवं दवाइयों के विकसित हो जाने के कारण हालाँकि हमें इस प्लेग की भयानकता प्रतीत नहीं होती, लेकिन उस समय को देखते हुए १८९६ में फैला हुआ यह प्लेग एक महामारी ही थी।

चूहों के बदन पर रहनेवाले पिस्तुएँ (एक तरह के कीड़ें) इसके संक्रमण की वजह होते है। ब्युबॉनिक प्लेग के शुरुआती लक्षण थे, जाँघों में गाँठें आना, तेज़ बुख़ार आना और कुछ ही समय में यह बीमारी रोगी को निगल जाती थी। रोग का संक्रमण भी एक मनुष्य से दुसरे मनुष्य में तेज़ी से होता था और देखते ही देखते घर, गली, मोहल्ला, गाँव इस रोग का शिकार हो जाता था। सारांश, तेज़ी से फैल रही यह भयानक महामारी महज़ कुछ ही दिनों में पूरे के पूरे मोहल्ले को, गाँव को नष्ट कर देती थी।

मुंबई में फैला हुआ यह प्लेग पहले वर्ष केवल मुंबई तक ही सीमित रहा। लेकिन १८९७ में इसका संक्रमण पुणे, कलकत्ता (कोलकाता) और बंगाल, सेंट्रल प्रोव्हिन्स, युनायटेड प्रोव्हिन्स इस तरह अन्य प्रान्तों में भी हुआ।

उस वक़्त भारत पर अँग्रेज़ राज कर रहे थे, सरकार उनकी थी और इसलिए प्लेग पर फौरन आवश्यक उपाययोजनाएँ करना यह उन्हींकी ज़िम्मेदारी थी। इस उपाययोजना के दो प्रमुख भाग थें- १)  प्लेगग्रस्त रोगियों का फौरन इलाज करना और  २) प्लेग के संक्रमण को रोकना। इस महामारी को रोकने की दृष्टि से १८९६ में ही एक प्लेग कमिशन की स्थापना की गयी थी।

प्लेग का संक्रमण जिन प्रान्तों में हुआ था, वहाँ के स्थानीय प्रशासन को भारत के अँग्रेज़ गव्हर्नर जनरल ने विशेष अधिकार दिये थे और इसके तहत संक्रमण को रोकने के लिए हर संभव उपाय करने के विशेष अधिकार उन्हें मिले थे।

इस अधिकार के अन्तर्गत रोगीयों का इलाज करने के साथ साथ अन्य बातें भी की जाती थीं। दर असल इस जानलेवा बीमारी की तीव्रता इतनी भयानक थी कि कई बार पीडित रोगी का इलाज शुरू होने से पहले ही उसपर मौत कब्ज़ा कर लेती थी। इलाज के अन्तर्गत संक्रमित रोगी और संभाव्य संक्रमित व्यक्ति को अन्य लोगों से पूरी तरह अलग रखा जाता था(क्वारंटाईन)। साथ ही रोगी के घर के सदस्यों की जाँच की जाती थी, घर का निर्जंतुकीकरण किया जाता था, इससे पहले उन्हें संक्रमित घर से दूर रहने के लिए भेजा जाता था। लेकिन यह सब करते समय अँग्रेज़ इस अधिकार का ग़लत इस्तेमाल करके जिस घर में प्लेग का रोगी पाया जाता था उस घर को धराशायी कर देते थे; साथ ही कई बार घर की चीजों को जला देते थे या लूट लेते थे और महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार भी किया जाता था। प्लेग को रोकने का उपाय करने के बजाय अँग्रेज़ अपने अधिकार की आड़ में पीड़ित जनता पर अत्याचार कर रहे थे।

लोगों के सर पर बिमारी का खतरा तो मँडरा ही रहा था, साथ ही अपनों को खोने का दुख भी उन्हें था। एक तऱफ अपनी आँखों के सामने अपने घर को धराशायी होते हुए लोग देख रहे थे और अँग्रेज़ सैनिक कभी भी किसी भी घर में घुसकर जाँच करेंगे यह डर हमेशा लगा रहता था और सामान्य जनता पर अँग्रेज़ बलप्रयोग भी करते थे। इन सब बातों से भारतवासियों में तीव्र असंतोष फैला हुआ था और हालात विस्फोटक बन गये थे। तो ऐसे इन हालातों में जनक्षोभ न होता तो वह ताज्जुब की बात होती!

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