कोझिकोड भाग-४

केरल की भूमि को कुदरत ने भरपूर सुन्दरता प्रदान की है। घने हरे जंगल और नीला जल इनका तो इस भूमि के साथ अटूट रिश्ता है। ऐसी इस केरल की भूमि में प्राचीन समय में कुछ ऐसी सांस्कृतिक धरोहरों का निर्माण हुआ कि आज वे सांस्कृतिक धरोहरें सारे भारतवर्ष का गौरवस्थान बन गयी हैं।

इनमें से ही एक है – ‘कलरिपयट्टु’।

दक्षिण भारत की भूमि के विभिन्न प्रदेशों में यह ‘कलरिपयट्टु’ नामक युद्धतन्त्र विकसित हुआ। ‘कलरिपयट्टु’ के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए इतिहास में झाँकना ज़रूरी है।

‘कलरिपयट्टु’ को हम एक तरह की मार्शल आर्ट कह सकते हैं। पुराने समय में दक्षिण भारत के विभिन्न इलाक़ों में इसका प्रचार एवं प्रसार हुआ। ‘कलरिपयट्टु’ यह एक ऐसा युद्धतन्त्र है, जिसमें स्वयं का बचाव करना और प्रतियोगी को मात देना इनका समावेश होता है। इसका प्रचार और प्रसार मुख्य रूप से पुराने समय में योद्धाओं में ख़ास कर हुआ। इस युद्धतन्त्र का मुख्य उद्देश स्व-सुरक्षा करना और शत्रु को मात देना यह तो था ही, साथ ही ये योद्धा इसी युद्धतन्त्र का उपयोग करके उनके राजा और मातृभूमी की भी रक्षा क़रते थे।

‘कलरिपयट्टु’ यह शब्द ‘कलरि’ और ‘पयट्टु’ इन दो शब्दों से बनता है। कलरि का अर्थ है – जहाँ शिक्षा प्रदान की जाती है ऐसा स्थान। पयट्टु का अर्थ है – युद्ध या अभ्यास। संक्षेप में ‘कलरिपयट्टु’ का अर्थ है – ऐसी स्कूल/जिम्नॅशियम जहाँ युद्धकला का प्रशिक्षण एवं अभ्यास (प्रॅक्टिस) दोनों बाते होती हैं।

लोककथाओं में कहा जाता है कि इस ‘कलरिपयट्टु’ का उद्गम लगभग ३००० वर्ष पूर्व हुआ। वहीं इस विषय के अध्ययनकर्ता इसका उद्गम बारहवीं सदी में हुआ ऐसा मानते हैं। वहीं कुछ इतिहासकारों की राय में इसकी शुरुआत ग्यारहवीं सदी में हुई। जब चेर और चोळ राजवंश के बीच में बहुत दीर्घ समय तक जंग लड़ी जा रही थी, उस अवधि में यानि साधारणत: ग्यारहवीं सदी में इस ‘कलरिपयट्टु’ का जन्म हुआ और विकास भी। ‘कलरि’ यानि इस युद्धतन्त्र की शिक्षा प्रदान करनेवाली पाठशाला। फिर धीरे धीरे ऐसी पाठशालाएँ कई जगह शुरू हो गयीं। आज भी इस ‘कलरिपयट्टु’ की शिक्षा गुरु-शिष्य परंपराद्वारा दी जाती है। कुछ अध्ययनकर्ता तो ऐसा भी कहते हैं की पुराने ज़माने में कुछ गुरुकुलों में अन्य विषयों के साथ साथ यानि भाषा, गणित इन जैसे विषयों के साथ साथ इस मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग भी दी जाती थी। ‘कलरिपयट्टु’ के प्रशिक्षण को उस समय पढने-लिखने जितना ही महत्त्वपूर्ण माना जाता था। इसमें केवल लड़को को ही नहीं, बल्कि एक विशिष्ट आयु तक लड़कियों को भी इसका प्रशिक्षण दिया जाता था।

अब ‘कलरिपयट्टु’ इस शब्द के साथ तो आप परिचित हो ही चुके हैं, लेकिन इसमें आख़िर किया क्या जाता है? यह सवाल आपके मन में उठ रहा होगा।

कलरिपयट्टु’ नामक इस युद्धतन्त्र में विभिन्न शस्त्र, अस्त्र इनका इस्तेमाल करके स्व-सुरक्षा और प्रतिद्वंद्वि को धूल चटाना इसकी ट्रेनिंग दी जाती है। इसमें मुख्य रूप से हाथ, विभिन्न लंबाईवालीं लाठियाँ, तलवार और कुछ अन्य शस्त्र इनका इस्तेमाल किस तरह करना चाहिए, इसका शास्त्रशुद्ध प्रशिक्षण दिया जाता है। इसमें से ही एक अंग है – सारे बदन को तेल से मसाज करना, वहीं कलरिपयट्टु के कुछ प्रकारों में ‘मर्मशास्त्र’ नामक एक अनोखे शास्त्र की शिक्षा दी जाती है। मर्मशास्त्र यह शत्रू या प्रतियोगी के शरीर के कुछ विशिष्ट स्थानों पर आघात करके उसे पलभर में परास्त करने का शास्त्र है।

तो ‘कलरिपयट्टु’ की इस प्रारंभिक जानकारी से हमें यह ज्ञात हुआ होगा कि इसे सीखने के लिए बहादुरी एवं धैर्य इन दो प्रमुख गुणों के साथ साथ शारीरिक तन्दुरुस्ती एवं फुर्ती का होना भी आवश्यक है। ‘कलरिपयट्टु’ की इस युद्ध कुशलता में हम देखते हैं कि पलक झपकते ही योद्धा बड़ी फुर्ती के साथ अपने शरीर के अंगों की मुव्हमेंट करते हैं, मानों जैसे पवन से फड़फड़ाती हुई कोई ज्योति ही धधक रही हो। इसमें शरीर का लचीला होना बहुत ही आवश्यक है और इसीलिए ‘कलरिपयट्टु’ के कुछ प्रकारों में तेल से मसाज करना अनिवार्य होता है। हम इस तेल की मसाज को ‘तैलमर्दन’ कहेंगे।

नित्य तैलमर्दन करने से युद्धकुशलता सीखनेवाले छात्र का शरीर लचीला तो बनता ही है, साथ ही हर रोज़ की शिक्षा एवं अभ्यास में शरीर पर होनेवाले आघातों एवं चोटों से होनेवाली हानि को पूरी तरह भरने में सहायता भी मिलती है।

शायद इसे विषयान्तर कहा जा सकता है, मग़र फिर भी यहाँ पर ज़िक्र करना आवश्यक है कि आयुर्वेद में तैलमर्दन की प्रशंसा करते हुए ऐसा कहा गया है कि बैलगाड़ी के पहिये को जिस तरह नियमित रूप में तेल आदि ओंगने से वह बिना कुरकुराते हुए चलते रहता है, उसी तरह मनुष्य के शरीर पर किया हुआ तैलमर्दन मनुष्यशरीर को लचीला एवं फुर्तीला रखता है।

ख़ैर, अब पुन: मुख्य विषय की ओर रुख करते हैं।

सोलहवीं सदी में केरल पधार चुके किसी पुर्तग़ाली यात्री ने अपने सफ़रनामे में ‘कलरिपयट्टु’ का वर्णन किया है।

स्वरक्षा के साथ साथ अपने स्वामी की यानि राजा की तथा राज्य की सुरक्षा करना इस उद्देश के कारण ‘कलरिपयट्टु’ का विकास एवं प्रसार पुराने समय में बड़ी तेज़ी के साथ हुआ। अत एव उस समय केरल प्रदेश के या दक्षिणी भारत के विभिन्न प्रदेशों के युद्धपथक इस शास्त्र में माहिर रहते थे।

‘कलरिपयट्टु’ को युद्धकला, युद्धकुशलता या इंडियन मार्शल आर्ट इन जैसे नामों से हालाँकि संबोधित किया जाता है, लेकिन दर असल यह युद्ध करने की एक शास्त्रशुद्ध प्रणालि है, इस बात को हमें ध्यान में रखना चाहिए। अत एव शास्त्रशुद्ध पद्धति से गुरु से इसे सीखा जाता था। शिक्षा के हर पड़ाव को पार करने के बाद उस छात्र को आगे क्या सिखाना चाहिए, इसे गुरु तय करते थे। इस प्रशिक्षण में तलवार चलाना और मर्मशास्त्र के प्रशिक्षण को बहुत ही मुश्किल माना जाता था। अत एव इनका प्रशिक्षण गुरु बहुत ही कुशल रहनेवाले छात्र को देते थे और वह भी उसकी कई वर्षों की प्रगति देखने एवं उसे परखने के बाद ही।

दक्षिणी भारत के विभिन्न प्रदेशों में इस ‘कलरिपयट्टु’ का उद्गम एवं विकास हुआ, इसलिए उस प्रदेश के अनुसार इसकी टेक्निक्स में थोड़ा बहुत फ़र्क़ रहता है। यह फ़र्क़ उसमें रहनेवालीं आक्रमण एवं बचाव की पद्धतियों के कारण रहता है।

उत्तरी केरल प्रदेश में विकसित हुए कलरिपयट्टु को ‘नॉर्दन कलरिपयट्टु’ कहा जाता है, वहीं दक्षिण में विकसित हुए कलरिपयट्टु को ‘सदर्न कलरिपयट्टु’ कहा जाता है। इन दोनों में स्थित महत्त्वपूर्ण बातों का संगम देखने मिलता है – ‘सेंट्रल कलरिपयट्टु’ में।

नॉर्दन कलरिपयट्टु उत्तर मलबार प्रांत में प्रचलित है, सदर्न कलरिपयट्टु का प्रचलन पुराने त्रावणकोर राज्य में था और कोझिकोड, पलक्कड, त्रिसूर इन स्थानों पर सेंट्रल कलरिपयट्टु का प्रचलन दिखायी देता है।

‘कलरिपयट्टु’ के विकास एवं प्रसार में अँग्रेज़ों ने बाधा डाली। दक्षिण में दाखिल हो चुके अँग्रेज़ इस कला के सामर्थ्य से इतने सहमा गये थे कि उन्होंने इसके प्रशिक्षण पर पाबंदी लगा दी। मग़र तब भी कुछ स्थानों में अँग्रेज़ो को पता न चलने देते हुए गुप्त रूप में इसका अभ्यास (प्रॅक्टिस) चलता रहा। लेकिन अब लोगों की स्मृति में से इस युद्ध कौशल का अस्त होने लगा।

इस अस्तमानता का अन्त अचानक से होकर इस शास्त्र को नवसंजीवनी प्राप्त हुई, १९२० में। इस अवधि में अपनी परंपरा को जतन करना तथा प्राचीन कला-शास्त्रों को पुनरुज्जीवित करना, इस लगन के साथ फिर एक बार ‘कलरिपयट्टु’ लोगों के सामने आ गया और यहीं से उसका पुन: विकास होना शुरू हो गया।

‘कलरिपयट्टु’ सीखने के लिए सातवें वर्ष की आयु में छात्र कलरि में गुरु के पास जाता था। उसका अगला सफ़र कैसा रहता था, यह हम देखेंगे अगले भाग में।

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