हंपी भाग ६

हंपी – विजयनगर का स्वर्णिम इतिहास। आज की हंपी वहाँ की वास्तुओं द्वारा हर दर्शक के मन की आँख के सामने विजयनगर के उस वैभव को साकार करती है।

हंपी के अब तक के इस स़फर में हमने हंपी से संबंधित कई बातों की जानकारी प्राप्त की। लेकिन एक महत्त्वपूर्ण बात तो रह ही गयी – हंपी से और इसीलिए विजयनगर से संबंधित दो प्रमुख व्यक्तित्वों का परिचय। क्योंकि उनके परिचय के बिना हंपी का यह वर्णन कुछ अधूरा सा ही होगा।

विजयनगरउन दो व्यक्तित्वों में से एक है, विजयनगर के और इसीलिए हंपी के उदय से संबंधित व्यक्तित्व। जी हाँ, आपने ठीक सोचा। उनका नाम है, विद्यारण्य स्वामी। विजयनगर की स्थापना करनेवाले हरिहर और बुक्क इन दो भाइयों के वे गुरु थे। वे एक महान वैदिक विद्वान तथा यति थे। उनका पूर्वाश्रम का नाम ‘माधवाचार्य’ था। विजयनगर की स्थापना के बाद शुरुआत के लगभग ३० वर्षों तक उन्होंने विजयनगर का प्रधानमन्त्रीपद सँभाला। उन्होंने वेदान्तसंबंधित ‘पंचदशी’ यह ग्रन्थ लिखा। कहा जाता है कि आद्य शंकराचार्यजी के बाद संस्कृत भाषा में सुबोध रचना करनेवाले ऐसे वे एक अधिकारी पुरुष थे। इससे यह ज्ञात होता है कि विद्यारण्य स्वामी जैसे मार्गदर्शक पूर्वाचार्य का व्यक्तित्व केवल आध्यात्मिक अधिकारी का व्यक्तित्व नहीं था, बल्कि शासनव्यवस्था जैसे प्रजाहित से संबंधित विषय में भी वे अधिकारी थे।

हंपी से जुड़ा हुआ दूसरा नाम है, ‘संत पुरंदरदासजी’ का। पुरंदरदासजी के पिता व्यवसाय से सरा़फ थे। उस समय के अनुसार पुरंदरदासजी ने शिक्षा ग्रहण की और वे अपने पिता का व्यवसाय सँभालने लगे। अपनी मेहनत से वे एक कुशल जोहरी बन गये। विजयनगर के सम्राट कृष्णदेवराय के दरबार में उन्हें सम्मान का स्थान मिला। लेकिन यह जोहरी का़फी कंजूस था; वहीं उनकी पत्नी का़फी दयालु तथा दरियादिल थी।

उनके बारे में एक किंवदन्ति ऐसी कही जाती है कि एक दिन स्वयं विठ्ठल भगवान एक वृद्ध ग़रीब ब्राह्मण का रूप लेकर उनके सरा़फे में पधारे और अपने बेटे की शादी के लिए कुछ पैसे पुरंदरदासजी से माँगने लगे। लेकिन उन्होंने उसे एक फूटी कौड़ी तक नहीं दी। वहीं, उनकी पत्नी ने अपनी नथुनी (नाक में पहनने का एक बाली जैसा गहना) उस ब्राह्मण को दे दी। उस नथुनी को लेकर वह ब्राह्मण पुनः उनके सरा़फे में आ गया और उसे गिरवी रखकर उसके बदले में कुछ पैसे देने के लिए कहने लगा। पुरन्दरदासजी को वह नथुनी कुछ जानी-पहचानी सी लगी और घर आकर उन्होंने अपनी पत्नी से उसकी नथुनी के बारे में पूछा। तब पत्नी ने डर के मारे जहर खाने का फैसला किया। उतने में उसने देखा कि उस जहर के प्याले में उसकी नथुनी थी। उसने वह नथुनी निकालकर अपने पति को दिखायी। पुरंदरदासजी ने सरा़फे में जाकर अपनी तिजोरी को खोलकर देखा, तो वहाँ पर भी वह नथुनी मौजूद थी। उन्हें जब पत्नी से सच्चाई ज्ञात हुई और उन्होंने उस ब्राह्मण को खोजने की का़फी कोशिश की। लेकिन उसका कोई पता नहीं चला। उस समय वे यह जान गये कि उस ब्राह्मण का रूप लेकर स्वयं विठ्ठल भगवान ही आये थे।

इस घटना से वे पूरी तरह विरक्त हो गये और सपने में हुए विठ्ठल भगवान के आदेश के अनुसार वे हंपी चले गये। वहाँ पर व्यासरायजी से दीक्षा लेने के बाद उनका नाम ‘पुरंदरदास’ हो गया।

पुरंदरदासजी स्वयं ही भक्तिगीतों को रचकर प्रतिदिन सुबह हंपी नगर में घूमकर उन्हें गाते थे। पुरंदरदासजी ने कन्नड भाषा में कई भक्तिगीतों की रचना की। सारांश, पुरंदरदासजी ने तत्कालीन समाज में भक्तिबीज को अंकुरित किया। भक्ति की नींव रखने के साथ साथ उनका दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य माना जाता है, कर्नाटकी संगीत को शास्त्रशुद्ध रूप देने का। इसलिए संत होने के साथ साथ पुरंदरदासजी को  श्रेष्ठ संगीतज्ञ तथा कर्नाटकी संगीत के पितामह भी माना जाता है। जीवन भर वे हंपी में ही रहे।

ऐसे सन्तसज्जनों के वास्तव्य से पुनीत हुई हंपी की भूमि बार बार वहाँ की वास्तुओं की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है। जाते जाते एक ऩजर डालते हैं, हंपी की अब तक न देखी हुईं कुछ वास्तुओं पर।

हंपी का निरन्तर साथ निभानेवाली तुंगभद्रा में ‘चक्रतीर्थ’ नाम का एक तीर्थ है। यह स्थल अत्यन्त पवित्र माना जाता है। इसके सामनेवाले तट पर खड़े हैं, ‘कोदंडधारी राम’! अखण्ड पाषाण में से तराशी गयी १५ फीट की ऊँचाई की कोदंडधारी राम की मूर्ति सीतामैया और लक्ष्मणजी के साथ यहाँ के गर्भगृह में विराजमान है। इस मन्दिर के बारे में कहते हैं कि सुग्रीव को श्रीराम ने राज्यपद जहाँ पर पुनः दिलाया था, अर्थात् सुग्रीव का जहाँ पर राज्यारोहण समारोह हुआ था, वहाँ पर यह मंदिर बनाया गया है।

आज तक हंपी में हमने जितनी वास्तुएँ, विशेष रूप से मन्दिर देखे, उनके नाम वहाँ के प्रमुख देवता के नाम से ही जुड़े हैं, लेकिन हंपी में आज भी एक मन्दिर ऐसा है, जो उसके देवता के नाम से नहीं, बल्कि उसके निर्माणकालावधि में हंपी के शासक रहनेवाले राजा के नाम से जाना जाता है। १६ वी सदी के विजयनगर के शासक ‘अच्युतराय’ नामक राजा के एक मन्त्री ने इस मन्दिर का निर्माण किया था और आगे चलकर यह मन्दिर ‘अच्युतराय मन्दिर’ इस नाम से जाना जाने लगा। इस मन्दिर के मुख्य देवता थे -‘भगवान तिरुवेंगलनाथ’। लेकिन हंपी के कुछ अन्य मन्दिरों की तरह ही इस मन्दिर में भी प्रमुख देवता की मूर्ति आज नहीं है। लेकिन इस मन्दिर की रचना, कलाकौशल हंपी के अन्य विशाल मन्दिरों की तरह ही है। फिर भी माना जाता है कि यह मन्दिर विजयनगर की वास्तुशैली के विकास का एक बेहतरीन नमूना है। ऐसा भी माना जाता है कि विजयनगर के साम्राज्य का अस्त होने से पहले बनाया गया शायद यह आखरी मन्दिर था। कहें तो, विजयनगर के वास्तुभाण्ड़ार का आखरी अनमोल रत्न!

अब जाते जाते ही सही, लेकिन ‘प्रसन्न विरूपाक्ष’ के मन्दिर के दर्शन करना जरूरी है। यदि सरल शब्दों में कहना हों, तो यह मन्दिर ‘अंडरग्राऊंड’ है, अर्थात् आज की जमीन की सतह के नीचे यह बसा हुआ है और यही इसकी ख़ासियत है। इस मन्दिर के एक शिलालेख से पता चलता है कि सम्राट कृष्णदेवराय ने अपने राज्यारोहण समारोह में इस मन्दिर को का़फी धन दान के रूप में दिया था। इससे ज्ञात होता है कि इस मन्दिर का निर्माण सम्राट कृष्णदेवराय से भी का़फी पहले हुआ है।

दरअसल हंपी की इन वास्तुओं का समृद्ध ख़जाना इतना विशाल है कि उनमें से हर एक का वर्णन करना असंभव है; क्योंकि हंपी और उसके आसपास के इला़के में छोटी-बड़ी मिलकर लगभग ५०० वास्तुएँ हैं। यहाँ की हर एक वास्तु को देखना तो बहुत मुश्किल काम है, लेकिन यदि आप थोड़े ही समय में हंपी से परिचित होना चाहते हैं, तो आपले लिए विकल्प है – कमलापुर का म्युजियम।

दरअसल स्वयं हंपी ही विशाल आसमान के तले कई मीलों तक फैला हुआ एक म्युजियम ही है। हंपी की वास्तुओं में से कुछ महत्त्वपूर्ण वस्तुओं को कमलापुर के म्युजियम में जतन किया गया है।

यहाँ पर आप विभिन्न मूर्तियाँ, शिलालेख और ताम्रपट देख सकते हैं। उस समय के शस्त्र-अस्त्र तथा उस समय का चलन यानि कि सिक्कें भी यहाँ पर रखे गये हैं। विजयनगर के साम्राज्य में चलन के रूप में सोना, चांदी, तांबा इनके सिक्कों का प्रयोग किया जाता था। उसमें भी सोना अधिक मात्रा में पाया जाने के कारण सोने के सिक्कें अधिकतर उपयोग में लाये जाते थे। उस मुक़ाबले चाँदी के सिक्कों का प्रयोग बहुत ही कम किया जाता था। सोने के सिक्के को ‘वराह’, चांदी के सिक्के को ‘तार’ और तांबे के सिक्के को ‘जितल’ कहा जाता था।

इस समूचे वास्तुवैभव को सीने से लगाये हुए आज भी हंपी खड़ी है। इसवी १९८६ में युनेस्को ने हंपी की वास्तुओं को ‘वर्ल्ड हेरिटेज’ का द़र्जा दिया।

समय के घाव सहते हुए भी आज भी विद्यमान इन वास्तुओं की सुरक्षा के बारे में फिलहाल एक बहुत बड़ा प्रश्‍नचिन्ह निर्माण हो गया है। इसका अहम कारण समय की धारा ही है। ते़ज हवाएँ, बारिश, गर्मी, सर्दी इस तरह काल के विभिन्न रूप इन वास्तुओं की आयुर्मर्यादा को प्रभावित कर रहे हैं और इस असर से बचना नामुमक़िन है, लेकिन साथ ही मनुष्यनिर्मित कारणों से भी यहाँ की वास्तुओं को खतरा है।

हंपी की कई वास्तुएँ आज भग्नावस्था में हैं। लेकिन जो कुछ वास्तुएँ आज भी सुस्थिति में हैं, उनका जतन करने की दृष्टि से कदम उठाये गये हैं। साथ ही जीर्ण हो चुकीं, भग्नावस्था को प्राप्त हो चुकीं वास्तुओं का हूबहू पुनर्निर्माण कर उनकी आयु तथा सुन्दरता को बरक़रार रखने की दृष्टि से कोशिशें की जा रही हैं। इन वास्तुओं का पुनर्निर्माण करने के लिए उस समय की वास्तुशैली का गहरा अध्ययन करना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इस अध्ययन से ही आशा है कि इन रचनाओं का पुनर्निर्माण संभव हो। हंपी की इन वास्तुओं की सुरक्षा तथा पुनर्निर्माण का कार्य, देखा जाये तो, का़फी मुश्किल काम है, लेकिन इस अनमोल विरासत को जतन करने के लिए यह बहुत ही आवश्यक कार्य है।

हमारी इस वैभवशाली धरोहर से हर एक भारतीय परिचित हो, इस उद्देश्य से आज की हंपी में नृत्य, संगीत आदि के ‘हंपी उत्सव’ का आयोजन किया जाता है, जिससे कि इस उत्सव में उपस्थित रहनेवाला हर एक नागरिक विजयनगर के इस वैभव को कम से कम एक बार तो देखें।

दरअसल हंपी के वर्णन को शब्दों में समेटना बहुत ही मुश्किल काम है, क्योंकि यह स़िर्फ किसी समय के विजयनगर साम्राज्य की राजधानी ही नहीं है, बल्कि वह है एक मूक खामोश वैभवशाली संस्कृति!

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