कोझिकोड भाग-२

कोझिकोड-कोळिकोड-कालिकत यह शहर दर असल एक ‘बंदरगाह’ के रूप में कई सदियों से विकसित होता रहा। बंदरगाह होने के कारण यहाँपर ज़ाहिर है कि व्यापारियों की निरन्तर आवाजाही लगी रहती थी। फिर व्यापार करने आये लोगों के मन में यहाँ राज करने का यानि इस प्रदेश पर कब्ज़ा करने का लालच पनपने लगा और अपने सपनों को सच करने की उनकी कोशिशों में से ही कालिकत का विस्तृत इतिहास बन गया। इस भूमि पर हुकूमत स्थापित करने के उद्देश्य के पीछे यहाँ की धनसमृद्धि यह सब से अहम वजह थी, यह भी कहा जा सकता है; क्योंकि इस इला़के पर सत्ता स्थापित हो जाते ही यहाँ के व्यापार पर भी यानि अर्थकारण पर भी अपने आप ही कब्ज़ा किया जा सकता था।

इस कोझिकोड का इतिहास भी इसी तरह की हैरत अंगेज़ घटनाओं से भरा हुआ है। इस कोझिकोड के इतिहास के रंगमंच पर देशी-विदेशी विभिन्न सत्ताओं का एवं सत्ताधारियों का उदय हुआ और अस्त भी। यह सिलसिला कई सदियों से चल रहा था, जो भारत की आज़ादी के साथ ख़त्म हो गया। चलिए, तो हम भी कोझिकोड के इतिहास के रंगमंच के सामने एक दर्शक बनकर यहाँ के नाट्य को देखते हैं।

कहा जाता है कि आज की कोझिकोड की भूमि पर संगमकाल में चेर राजवंश का शासन था। उस समय में भी इस चेर राजवंश की जिस प्रदेश पर सत्ता थी, वहाँ के कुछ बंदरगाह विकसित हो चुके थे, जहाँ से भारत का विदेशों के साथ व्यापार चलता था। अध्ययनकर्ताओं की राय में उस समय कोझिकोड के दक्षिण में बसा ‘तोंडी’ यह एक सुविकसित बंदरगाह था। लेकिन उस समय कोझिकोड का यानि कालिकत का, एक बंदरगाह के रूप में विकसित होने का या बंदरगाह के रूप में उसके मशहूर रहने का उल्लेख नहीं मिलता। इस वजह से माना जाता है कि तेरहवीं सदी तक कालिकत यह एक बंदरगाह के रूप में विकसित नहीं हुआ होगा। दर असल उस समय तक कालिकत यह किसी राजवंश की हुकूमत का हिस्सा रहनेवाला शहर या गाँव होगा; क्योंकि चौदहवीं सदी के मध्य में भारत आये ‘इब्न बतूत’ ने ‘कालिकत’ का एवं कालिकत के राजा-‘सामूतिरि’ का वर्णन किया है; लेकिन उसके पूर्व तेरहवीं सदी के अन्त में भारत आये ‘मार्को पोलो’ ने, जो केरल भी आया था, उसने कालिकत का ज़िक्र नहीं किया है।

अत एव कुछ खोजकर्ता इस शहर या नगर की स्थापना होने का समय ग्याहरवीं सदी का मध्य यह मानते हैं, लेकिन एक बंदरगाह के रूप में उसका विस्तार एवं ख्याति बाद में ही हुई होगी।

संगम काल के पश्‍चात् नौंवी सदी में फिर एक बार कालिकत इतिहास के रंगमंच पर अवतरित होता है और इस बार उसका अधिपत्य था, द्वितीय चेर राजवंश के पास। इस चेर राजवंश का शासन लगभग बारहवीं सदी की शुरुआत तक यहाँ पर था। उस समय के चेर राजा ‘पेरुमल’ इस नाम से भी जाने जाते थे।

कोझिकोड के इतिहास के पन्ने कई अध्ययनकर्ताओं, खोजकर्ताओं का अन्वेषण, केरलविषयक विभिन्न साहित्य, वाङ्मय एवं विभिन्न कालखंडों में विभिन्न यात्रियों द्वारा लिखे गये सफ़रनामें या अन्य व्यक्तिओं द्वारा किया गया वर्णन इनके माध्यम से खुलते जाते हैं, इस बात पर भी हमें ग़ौर करना चाहिए। इसी वजह से इस इतिहास में हमें एक ही घटना के संदर्भ में कई मतमतान्तर दिखायी देते हैं।

इस चेर राजवंश की यानि पेरुमलों की यहाँ पर रहनेवाली हुकूमत के ख़त्म हो जाने के बाद इस भूमि का विभिन्न प्रदेशों में विभाजन हुआ और इन प्रदेशों को उस समय ‘नाडु’ कहा जाता था। आख़िरी चेर राजा के अधिकारी ही फिर इन विभिन्न नाडुओं के शासक बन गये।

एक अध्ययनकर्ता की राय में इस चेर राजवंश के आख़िरी राजा का नाम था-राम कुलशेखर। इसकी हुकूमत के ख़त्म होने के साथ साथ कालिकत और उसके आसपास का इलाक़ा ‘पोलनाड’ राज्य का एक हिस्सा बन गया। इस समय ‘इर्नाड’ प्रान्त पर राज्य करनेवाले शासकों का पोलनाड के राज्यकर्ताओं से लगभग ४५-५० सालों तक संघर्ष चल रहा था। इस संघर्ष में इर्नाड के शासकों की जीत हुई और उन्होंने जीती हुई भूमि पर एक ‘कोयिल कोट्ट’ का निर्माण किया, जो कालिकत के उदय की शुरूआत थी।

एक अन्य अध्ययनकर्ता की राय में इसी ‘राम कुलशेखर’ नाम के राजा का खास रिश्ता था मनविक्रम से जो इर्नाड प्रदेश का गव्हर्नर था। इस मनविक्रम ने कई बड़े बड़े युद्ध जीतकर कुलशेखर के मन में अपनी जगह बना ली थी। एक दिन इस कुलशेखर राजा ने इसी मनविक्रम को ज़मीन इनाम में दे दी और उस जगह को नाम मिला, ‘चुल्लिकड’। शायद यही कालिकत की स्थापना की शुरुआत थी।

ख़ैर! तो इस तरह कालिकत नाम का नगर बस गया और साथ ही इस भूमि के शासकों को ‘सामूतिरि’ इस नाम से जाना जाने लगा। आगे चलकर कालिकत आनेवाले विदेशी सैलानियों ने ‘सामूतिरि’ का उल्लेख ‘झामोरिन’ इस नाम से करना शुरू किया और ये सामूतिरि-झामोरिन इस नाम से इतिहास में मशहूर हो गये।

इस भूमि के इन शासकों के समय ही समुद्री मार्ग से व्यापार की शुरुआत हुई, उसमें बढ़ोतरी भी हुई और आगे चलकर वह इतना विकसित हुआ कि इस व्यापारी बंदरगाह ने विदेशी व्यापारियों का मन मोह लिया।

इसी दौरान पंद्रहवीं सदी का अन्त होने में बस दो ही साल बाक़ी थे कि उस समय कोझिकोड के पास के ‘कप्पड’ नाम की जगह एक विदेशी यात्री उतरा और वह विदेशी मुसाफिर इतिहास में अमर हो गया। उस सैलानी का नाम था – ‘वास्को-द-गामा’।

यहाँ आनेवाले विदेशी व्यापारी व्यापार करने की ख़्वाहिश के साथ साथ उनके शासकों की सत्ता स्थापित करने की सुप्त इच्छा भी शायद मन में लेकर आते थे। ‘वास्को-द-गामा’ के कालिकत पधारने के साथ साथ यहाँ के इतिहास में एक नया ही मोड़ आ गया।

कालिकत के सामूतिरियों के साथ इस ‘वास्को-द-गामा’ ने सुलह, समझौते आदि माध्यमों से नज़दीकी बनाना शुरू कर दिया। इसी दौरान इन विदेशी लोगों की यहाँ हुकूमत जमाने की ख़्वाहिश पनपने लगी और फिर उसका नतीजा हुआ सत्तासंघर्ष में।

अब इस संघर्ष में वैसे तो दोनों पक्षों का हालाँकि काफ़ी नुक़सान हुआ, लेकिन साथ ही इस नगर को एवं यहाँ के निवासियों को भी काफ़ी नुक़सान उठाना पड़ा। इस सत्तासंघर्ष में समय के विभिन्न पड़ावों पर विभिन्न किरदारों की ‘एण्ट्री’ भी हुई और ‘एक्झिट’ भी।

इस संघर्ष को पूर्णविराम मिला, वह कालिकत की सरज़मीन पर डचों के कदम रखने के बाद।

‘स्टीव्हन वॅन-डर हेगन’ नाम के एक डच अ‍ॅडमिरल ने कालिकत बंदरगाह में कदम रखा और उसने यहाँ के शासक के साथ सुलह कर ली। समय था, सतरहवीं सदी की शुरुवात का।

इस सुलहनामे के तहत यह तय किया गया कि डच उनके पहले यहाँ पर कब्ज़ा कर चुके विदेशी आक्रमकों को यहाँ से खदेड़ दें और उसके बदले में वे यहाँ से व्यापार करें। लेकिन डच भी इस भूमि पर अधिक समय तक टिक नहीं सके। त्रावणकोर के ‘मार्तंडवर्मा’ नामक राजा के साथ हुए युद्धों ने उन्हें परेशान कर दिया और फिर वे यहाँ से रफ़ा दफ़ा हो गये।

इसके बाद म्हैसूर के राजा ने केरल प्रदेश पर आक्रमण किया, जिससे कि फिर एक बार संघर्ष शुरू हो गया। अठारहवीं सदी के मध्य के बाद यह म्हैसूर का आक्रमण हुआ और उन्होंने इस ज़मीन पर कदम रखा। अब कालिकत के झामोरिन और म्हैसूर के शासक इनके बीच सत्तासंघर्ष शुरू हो गया, जिसमें पहले तो म्हैसूर पक्ष का पलड़ा भारी हुआ। लेकिन उसी दौरान उनकी सरज़मीन पर हुए आक्रमण का मुक़ाबला करने के लिए उन्हें अपनी भूमि में लौटना पड़ा।

मग़र उसके बाद फिर एक बार उन्होंने कालिकत पर धावा बोल दिया। लेकिन इस बार अँग्रेज़ों की सहायता से उनका मुक़ाबला करने में कालिकत के शासक कामयाब रहे।

इस संघर्ष के दौरान कभी म्हैसूर के पक्ष का पलड़ा भारी हो जाता था, तो कभी कालिकत के शासकों का। इसी दौरान कई इलाक़ों में म्हैसूर के शासक और अँग्रेज़ इनके बीच में कई युद्ध लड़े जा रहे थे।

लेकिन इस म्हैसूर के आक्रमण के दौरान कालिकत के इतिहास में भारत को ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकड़नेवाले विदेशी अँग्रेज़ों की ‘एंण्ट्री’ हो चुकी थी।

सारे भारतवर्ष पर शासन करने की ख़्वाहिश मन में लेकर आये अँग्रेज़ों की नज़र से भला कालिकत अछूता कैसे रह सकता था? क्योंकि अँग्रेज़ यहाँ आये थे, वह व्यापार करने का मक़सद लेकर ही। फिर जहाँ से कई सदियों से व्यापार किया जा रहा है, उस व्यापारी बंदरगाह पर कब्ज़ा किये बिना अँग्रेज़ कैसे रह सकते हैं?

सतरहवीं सदी की शुरुआत में अँग्रेज़ों का एक कप्तान कालिकत आ गया। उसने झामोरिन के साथ सुलह भी कर ली। इस सुलहनामे के तहत पुरानी सुलह की तरह ही तय किया गया कि विदेशी आक्रमकों को खदेड़ देने के काम में अँग्रेज़ यहाँ के स्थानीय शासकों की मदद करें और उसके बदले में वे यहाँ से व्यापार कर सकते हैं। लेकिन इस सुलहनामें के पहले मुद्दे पर अमल करने में अँग्रेज़ों ने जानबुझकर अनदेखी कर दी और आख़िर उन्होंने यहाँ पर अपनी हुकूमत स्थापित कर दी।

अँग्रेज़ों के शासनकाल में कालिकत में स्वतन्त्रता आन्दोलन ने जड़ें पकड़ लीं। विभिन्न स्वतन्त्रतासेनानियों की अगुआई में यहाँ पर आज़ादी की लहर तेज़ी से फैल गयी। भारत भर स्वतन्त्रता आन्दोलन छिड़ ही चुका था और इन कोशिशों के नतीजे के रूप में भारत को आज़ादी मिल गयी।

केरल राज्य की स्थापना होने के बाद कालिकत यह केरल राज्य का एक हिस्सा बन गया।

कालिकत के इस विस्तृत इतिहास की एक झलक आज हमने देखी। दर असल एक दर्शक की भूमिका में हमने इस इतिहास के नाट्य को देखा। चलिए, तो दर्शक की ही भूमिका को क़ायम रखते हुए कोझिकोड शहर की सैर करते हैं। लेकिन थोड़ा सा विश्राम करने के बाद।

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