कोझिकोड भाग-५

 

सात वर्ष की आयु में कलरि में यानि कि ‘कलरिपयट्टु’ का प्रशिक्षण देनेवाली पाठशाला में दाखिल होनेवाला छात्र सबसे पहले दाहिना कदम भीतर रखकर प्रवेश करता था, ऐसा पढने में आता है। अब ज़ाहिर है कि वह छात्र कलरि में किसी पवित्र दिन या नये सत्र के आरम्भ में दाखिल होता था। कलरि में प्रविष्ट छात्र फिर दाहिने हाथ से भूमि को स्पर्श करके प्रणाम करता था और ज़मीन पर माथा टेकता था। इस तरह पाठशाला के प्रति सम्मान की भावना उसके मन में पहले ही दिन यानि प्रवेश करते ही उत्पन्न होने लगती थी।

फिर कलरि में दाखिल हुआ छात्र सबसे पहले कलरि में आराध्यस्थान में जाकर वहाँ भी इसी तरह वन्दन करता था। उसके बाद वह एक अन्य महत्त्वपूर्ण स्थान में जाकर वन्दन करता था, जो स्थान कलरि में ही रहता था और उसे ‘गुरुत्तर’ कहा जाता था। ‘गुरुत्तर’ यह ऐसा स्थान है, जहाँ कलरिपयट्टु सिखानेवालें सभी गुरुजनों के प्रति सम्मान की भावना व्यक्त करने के लिए एक दीपक निरन्तर जलता रहता है। अन्त में, इस कला का प्रशिक्षण देनेवाले गुरु के पास जाकर, जिन्हें ‘गुरुक्कल’ कहा जाता है, उनके सामने छात्र नतमस्तक होता था। इस तरह कलरि में दाखिल हो चुके छात्र की शिक्षा अब गुरु के मार्गदर्शन में शुरू हो जाती थी।

इस कलरि का यानि स्कूल का निर्माण शास्त्रशुद्ध पद्धति से किया जाता है। इसके दो प्रकार रहते हैं। १) ‘चेरुकलरि’ या ‘कुळिकलरि’ और २) ‘अंककलरि’। कुळिकलरि में ज़मीन को खोदकर विशिष्ट आकार के गड्ढे का निर्माण किया जाता है और वहाँ पर छात्रों को ट्रेनिंग दी जाती है। अंककलरि के बारे में यह जानकारी मिलती है कि कुश्तियों की प्रतियोगिता की तरह कलरिपयट्टु के दो प्रतिद्वन्द्वी यहाँ पर एकदूसरे के साथ मुक़ाबला करते थे। इसके लिए अंककलरि को ख़ास तौर पर बनाया जाता था। मुक़ाबले के लिए ख़ास मंच (प्लॅटफॉर्म) का निर्माण किया जाता था। इस प्लॅटफॉर्म की ऊँचाई ४ से ६ फीट रहती थी।

कलरिपयट्टु की शिक्षा प्राप्त करनेवाले छात्र के लिए कलरि के साथ साथ वहाँ पर स्थित आराध्य स्थल, उसके गुरु और गुरुत्तर ये अत्याधिक आदरणीय स्थान रहते हैं। कलरि में दाखिल होते समय जिस तरह इन्हें वन्दन करने की परिपाटी है, उसी तरह कलरि में प्रविष्ट होने के बाद या शिक्षा का आरंभ करने से पहले भी इन्हें वन्दन करने की परिपाटी है।

कलरिपयट्टु के नॉर्दन, सदर्न और सेंट्रल इन प्रकारों का ज़िक्र मैने गत लेख में किया था। इनका प्रशिक्षण देनेवालें गुरुओं को विशिष्ट संज्ञा से संबोधित करने की परिपाटी भी है। उन्हें ‘गुरुक्कल’ इस नाम के अलावा ‘असन’, ‘पनिक्कर’ इन नामों से भी संबोधित किया जाता है।

नॉर्दन कलरिपयट्टु इस शिक्षाप्रकार में मुख्य रूप से शस्त्रविद्या पर ज़ोर दिया जाता है, वहीं सदर्न प्रकार में एक बार छात्र जब शस्त्र-अस्त्रों के प्रशिक्षण में माहिर हो जाता है, तब उसे बचाव और आक्रमण इन कृतियों में अत्यधिक गतिशील बनाने पर ज़ोर दिया जाता है। संक्षेप में, कलरिपयट्टु का शास्त्र उस शिष्य को ऐसा हुनर सिखाता है, जिससे कि वह अपने हाथ, पैर या अन्य किसी शस्त्र-अस्त्र के साथ दुश्मन या प्रतिद्वन्द्वी पर ऐसी फुर्ती और गति के साथ वार करता था कि मानों जैसे बचाव और आक्रमण इनमें एक साँस जितनी ही दूरी हों।
‘कलरिपयट्टु’ के इन तीनों प्रकारों के उद्गाता के रूप में विभिन्न ऋषियों के नाम लिये जाते हैं।

‘कलरिपयट्टु’ का यह प्रशिक्षण प्रमुख रूप से चार स्तरों पर दिया जाता है।

प्राथमिक स्तर पर सीखनेवाले छात्र के शरीर के अवयवों में लचीलापन एवं फुर्तीलापन लाया जाता है। इस स्तर को ‘मैथरि’ कहते हैं। इसमें शरीर को शास्त्रशुद्ध पद्धति से मोड़ने का, विभिन्न पैंतरें लेने का एवं ऊँचीं, लंबीं, छोटीं इस तरह की विभिन्न प्रकार की छलाँगें लगाने का प्रशिक्षण दिया जाता है। आगे चलकर जब शस्त्र-अस्त्रों से लड़ने का प्रशिक्षण दिया जाता है, तब ये विभिन्न पैंतरें एवं छलाँगें उसके लिए बहुत ही उपयोगी साबित होती हैं।

इस ट्रेनिंग की शुरुआत शरीर को ताकतवर एवं सुदृढ बनानेवालीं शारीरिक कसरतों से होती है। इसी का अगला हिस्सा होता है, विभिन्न प्रकार की छलाँगें एवं पैंतरें।

यहाँ पर एक महत्त्वपूर्ण बात पर ग़ौर करना आवश्यक है कि ‘कलरिपयट्टु’ सीखनेवाले छात्र का शारीरिक बल के साथ साथ मानसिक बल से समृद्ध रहना भी आवश्यक है। क्योंकि युद्ध करते समय मन की एकाग्रता और साथ ही चौकन्नापन्न इनका होना ज़रूरी है। दुश्मन चाहे आपके आगे हो या पीछे, आपकी सुरक्षा के लिए उसपर वार करना आपके लिए ज़रूरी है।

एक बार जब छात्र को इस प्राथमिक स्तरीय प्रशिक्षण से शारीरिक बल की प्राप्ति हो जाती है, तब अगले पायदान पर उसे ‘लाठी’ चलाने की शिक्षा दी जाती है। हमारे भारतवर्ष में पुराने समय से हाथ में एकाद छोटी-बड़ी लाठी साथ में रखने की परिपाटी है। यह लाठी सहारे के काम भी आती है और साथ ही अपनी हिफ़ाज़त करने के भी। शायद इसीलिए इस युद्धकौशल में भी सर्वप्रथम बहुत ही साधारण सी प्रतीत होनेवाली, लेकिन बहु उपयोगी साबित होनेवाली इस लाठी से स्व-सुरक्षा कैसी करनी चाहिए, यह सिखाया जाता है।

इस स्तर को ‘कोल्थरि’ कहा जाता है। इसमें तीन विभिन्न प्रकार की, आकार की और लंबाई-चौड़ाईवालीं लाठियों को चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता है। लाठी को ‘कलरिपयट्टु’ के प्रशिक्षण का ‘मास्टर वेपन’ एवं ‘प्रारम्भिक साधन’ माना जाता है।

एक बार जब छात्र लकड़ी से बने अस्त्रों को चलाने में महारत हासिल कर लेता है, तब अगले स्तर पर उसकी प्रत्यक्ष युद्ध करने की ट्रेनिंग शुरू हो जाती हैं। यहाँ पर उसे धातुओं (मेटल्स) से बने विभिन्न शस्त्रों को चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता है। इसमें त्रिशूल, कुल्हाड़ी, ढाल-तलवार चलाने के प्रशिक्षण का समावेश होता है। पुराने समय में ‘कलरिपयट्टु’ में इस स्तर पर दिये जानेवाले प्रशिक्षण में और आज की ट्रेनिंग में समय के साथ साथ कुछ परिवर्तन भी हुआ है और इसकी वजह है, शस्त्र-अस्त्रों का लुप्त होना एवं समय के साथ साथ उनमें परिवर्तन होना।

इस स्तर को ‘अंकथरि’ कहते हैं। ‘अंकथरि’ का अर्थ है- युद्ध का प्रशिक्षण।

इस स्तर पर अन्त में एक ख़ास शस्त्र को चलाने का प्रशिक्षण छात्र को दिया जाता है और वह शस्त्र है – ‘फ्लेक्झिबल स्वोर्ड’ यानि किसी भी दिशा में बिना टूटे मुड़ सकनेवाली बड़ी ही लचीली ,ऐसी तलवार। अब ज़ाहिर है कि इस प्रशिक्षण को प्राप्त करने के लिए छात्र में अत्यधिक कुशलता का होना ज़रूरी है, क्योंकि इसे बहुत ही घातक शस्त्र माना जाता है। अत एव यह प्रशिक्षण किसे देना चाहिए, इसका फ़ैसला पूरी तरह उन छात्रों के गुरु ही करते हैं।

इन शस्त्र-अस्त्रोंको चलाने में महारत हासिल कर चुके छात्र को बिना किसी शस्त्र के, केवल हाथों से युद्ध करने का प्रशिक्षण दिया जाता है। शायद कोई सोचेगा कि इसमें कौनसी बड़ी बात है? लेकिन सोचिए कि केवल हाथों से बिना किसी डर के दुश्मन के साथ लड़ना कोई आसान काम नहीं है। इसे ‘वेरूम्काई’ कहते हैं। इस स्तर पर शिष्य को गुरु हाथों का इस्तेमाल करने की ऐसी तकनीकें सिखाते हैं, जिससे वह दुश्मन या प्रतिद्वन्द्वी को मात देने में कामयाब हो सके।

यहाँ पर एक महत्त्वपूर्ण बात का ज़िक्र करना मुनासिब होगा कि वैद्यकशास्त्र में भी ‘हाथ’ को ही सबसे महत्त्वपूर्ण अस्त्र-शस्त्र माना जाता है। इससे हम मानवीय हाथ के महत्त्व को समझ सकते हैं।

‘कलरिपयट्टु’ की इस ट्रेनिंग का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता है ‘मर्मशास्त्र’। लेकिन मर्मशास्त्र की ट्रेनिंग जिसे देनी हो, उस छात्र का चयन उसके गुरु उसकी कुशलता, समर्पण आदि बातों को देखकर करते हैं।

अब अन्त में ‘मर्मशास्त्र’ के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी प्राप्त करते हैं। हर एक मानव के शरीर पर कुछ ऐसे पॉईंटस् रहते हैं या मनुष्यशरीर के ऐसे कुछ अंग रहते हैं, जिनपर आघात या प्रहार करने पर अथवा चोट लगने पर उस व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है या शरीर का अवयव हमेशा के लिए अपाहिज हो सकता है। आयुर्वेद ने इन मर्मों का सविस्तार वर्णन किया है। मनुष्य के शरीर में कुल मिलाकर १०७ मर्म है। इन मर्मों पर आघात से मृत्यु और अपाहिजता के साथ साथ आघात हुए स्थान या अंगों में हमेशा के लिए वेदना भी उत्पन्न हो सकती है। कुछ मर्मों पर हुए आघात से फ़ौरन मौत आ सकती है, वहीं कुछ पर हुए आघात से कुछ समय पश्‍चात् मृत्यु हो सकती है। इस वर्णन से हमारे ध्यान में आता हैं कि मर्मशास्त्र की शिक्षा प्रदान करनेवाले और प्राप्त करनेवाले दोनों के पास अत्यधिक परिपक्वता का होना आवश्यक है, जिससे कि इस विद्या का ग़लत इस्तेमाल न किया जाये।

तो ऐसी यह ‘कलरिपयट्टु’ नाम की युद्धविद्या, जिसने केवल कोझिकोड को ही नहीं, बल्कि सारे केरल की भूमि को ही सम्मान प्रदान किया है। मलबार इलाके की कोझिकोड की भूमि में जहाँ मसालों की महक है, जहाज़ों और मुसाफ़िरों की आवाजाही लगी रहती है, मन को मोह लेनेवाली कुदरती ख़ूबसूरती भी है, वहाँ पर ‘कलरिपयट्टु’ जैसी आव्हानात्मक युद्धकला भी है।

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