कोड़ाईकनाल भाग – २

गरमी और बीमारी इन दोनों से राहत दिलानेवाला स्थान, कोड़ाईकनाल के रूप में अमरीकी मिशनरी और अंग्रे़जों को मिल गया। १९वी सदी में प्रकाशित हुए इस हिल स्टेशन तक आराम से पहुँचने के लिए २०वी सदी तक इन्त़जार करना पड़ा। इसवी १९१६ में आम लोगों के लिए खुले किये गये मोटरेबल रोड़ द्वारा लोग अपने वाहनों से बड़ी आसानी से कोड़ाईकनाल तक जाने लगे और इसके बाद फ़िर इस हिल स्टेशन आनेवाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ती ही चली गयी और लोगों ने इसे नाम दिया – ‘प्रिन्सेस ऑफ़ हिल्स’।

कोड़ाईकनाल में पानी और जंगल इन दोनों से आपकी यक़ीनन मुलाक़ात होती ही है। यहाँ पर पानी आपको कईं प्रपातों (वॉटरफॉल ), तालाबों और सरोवरों के रूप में दिखायी देता है; वहीं, नीलगिरी, सोलावुड, पाइन, वॅटल और जी हाँ, कुरिंजी भी यहाँ के का़फ़ी दूर तक फ़ैले हुए जंगल में मौजूद हैं।

हर बारह वर्ष बाद खिलनेवाली कुरिंजी यह कोड़ाईकनाल की ख़ासियत है और कोड़ाईकनाल के साथ इस कुरिंजी का घना रिश्ता है, क्योंकि जिन पहाड़ियों तथा टीलों पर कुरिंजी खिलती है, उनमें से महत्त्वपूर्ण स्थान हैं, पलानी पहाड़ियाँ और कोड़ाईकनाल।

पश्चिमी घाटी में लगभग १८०० मीटर्स से अधिक ऊँचाई पर पाया जानेवाला कुरिंजी यह एक पौधा है। यह पौधा प्रमुख रूप से पलानी पहाड़ियाँ, नीलगिरी और केरल की कुछ गिनींचुनीं पहाड़ियों पर ही पाया जाता है। इसका वनस्पतिशास्त्रीय नाम है – ‘स्ट्रोबिलान्थस कुन्थियाना’। इस पौधे को नीले रंग के, घण्टा के आकार के (बेल-शेप) फ़ूल आते हैं और एक बार खिलने के बाद यह पौधा १२ वर्ष बाद पुनः खिलता है और यही इस वनस्पति की ख़ासियत है। इन फ़ूलों के नीले रंग के कारण इसे ‘नील कुरिंजी’ भी कहा जाता है। जिस समय कुरिंजी खिलने लगती है, तब कोड़ाईकनाल और उसके आसपास का इलाक़ा नीले रंग में इस कदर रंग जाता है कि उसकी सुन्दरता को बयान ही नहीं किया जा सकता, वह सुन्दरता तो प्रत्यक्ष देखने से ही महसूस की जा सकती है। कहा जाता है कि कोड़ाईकनाल और उसके आसपास की पहाड़ियों पर बसनेवाले आदिम समय के मानव, उन्होंने कितनी बार इन कुरिंजियों को खिलते हुए देखा है, उस हिसाब से अपनी आयु निर्धारित करते थे। तो ऐसे ये कुरिंजी के नीले नीले फ़ूल २००६ में खिले थे। तो अब इन्हें खिलते हुए देखने के लिए और नौ वर्ष तक इन्तजार करना पड़ेगा। हर बारह वर्ष बाद खिलने की इस ख़ासियत के कारण कुरिंजी को हम कुदरत का एक करिश्मा भी कह सकते हैं।

कोड़ाईकनाल और कुरिंजी इनका नाता इतना गहरा है कि यहाँ के एक मन्दिर को ‘कुरिंजी अंदवर’ कहा जाता है। इस मन्दिर के देवता को ‘श्रीकुरिंजी ईश्‍वर’ कहा जाता है। ये देवता हैं – मुरुगन भगवान अर्थात् कार्तिकेय स्वामी। इसवी १९३६ में इस मन्दिर का निर्माण किया गया।
कई हिल स्टेशन्स की तरह कोड़ाईकनाल में भी देखनेलायक कई स्थल हैं, लेकिन यदि कोड़ाईकनाल की सैर करने का म़जा उठाना है, तो आपको यहाँ मनमौजी बनकर घूमना चाहिए। फ़िर घूमते हुए कभी अचानक आपकी मुलाक़ात किसी वॉटरफॉल से हो जायेगी या फ़िर कभी कोई जंगल आपके मन को तथा आपकी आँखों को सुकून देगा। अर्थात् कुदरत के जिस आविष्कार के साथ मुलाक़ात हो जायेगी, उसका आपको लु़फ़्त उठाना चाहिए। फ़िर कहीं दूर के बादल आपके लिए नीचे उतर आयेंगे, तो कभी कोहरा आपके साथ आपके रास्ते को भी अपनी बाहों में ले लेगा। इन पलानी पहाड़ियों का और बऱफ़ का हालाँकि आपस में कोई रिश्ता तो नहीं है, मग़र फ़िर भी मीठी सर्दी और सालभर हरीभरी रहनेवालीं वादियाँ यह कोड़ाईकनाल की ख़ासियत है।

यहाँ की आबोहवा में ऊपर वर्णित नीलगिरी, सोलावुड इन पेड़ों के अलावा कई औषधि वनस्पतियाँ भी उगती हैं। आजकल इन औषधि वनस्पतियों के उत्पाद पर विशेष रूप से जोर दिया जा रहा है। अब जंगल कहें तो उसमें ऑर्किड्स का होना यह तो स्वाभाविक बात है और कोड़ाईकनाल भी इसके लिए अपवाद नहीं है। यहाँ पर ऑर्किड्स की लगभग ३०० प्रजातियाँ पायी जाती हैं। कोड़ाईकनाल और उसके आसपास के इला़के में कई प्रकार के फ़लों और सब़्जियों की फ़सल ली जाती है।

यहाँ की वनसम्पदा को लोग एक ही स्थान पर देख सकें, इस उद्देश्य से यहाँ पर एक उद्यान का निर्माण किया गया। ब्रायंट नाम के अंग्रे़ज अ़फ़सर ने इसका निर्माण किया और उन्हीं की स्मृति में इसवी १९०८ में निर्मित तथा २०.५ एकर में फ़ैले हुए इस उद्यान को ‘ब्रायंट पार्क’ यह नाम दिया गया। यहाँ पर वनस्पतियों की कुल ३०० प्रजातियाँ पायी जाती हैं। इसी उद्यान में नीलगिरी (युकॅलिप्टस) का १५० वर्ष पुराना पेड़ है। उद्यान के एक विभाग में कई रंगों तथा आकारों के गुलाब रखे गये हैं।

संक्षेप में, कोड़ाईकनाल की प्रकृति के रंग और गन्ध दोनों का मिलाप यहाँ पर हुआ है। ऐसे इन रंगबिरंगे खुशबूदार फ़ूलों का उत्सव यहाँ पर ‘समर फ़ेस्टिवल’ के रूप में मनाया जाता है।

जहाँ पर जंगल है, वहाँ पर विभिन्न प्राणि तो होंगे ही। लेकिन मनुष्य की करतूतों के कारण प्राणियों की कई प्रजातियाँ आज नष्ट होने की कगार पर हैं। प्रकृति में विद्यमान प्राणियों का महत्त्व समझ में आ जाने के कारण आज उनकी रक्षा करने पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। यहाँ के जंगल में दिखायी देनेवाले ब्लॅक पॅन्थर, जायन्ट मलबार स्क्विरल (बड़ी मलबारी गिलहरी) और सिवेट कॅट (एक प्रकार की बिल्ली) इन प्राणियों की प्रजातियाँ खतरे में हैं। लेकिन आज भी इन जंगलों में उड़नेवाली गिलहरी, बायसन, सांबर, हिरन, नीलगिरी लंगूर ये प्राणि जरूर दिखायी देते हैं और कभी-कभार हाथी भी दिखायी देते हैं। लेकिन जंगलों के आसपास स्थित किसी शान्त जगह पर दोपहर में भी विभिन्न प्राणियों की आवा़जें सुनायी देती हैं।

कोड़ाईकनाल की एक और विशेषता यह है कि यहाँ विभिन्न पंछी दिखायी देते हैं। इसी कारण पंछी-निरीक्षकों तथा पंछी-प्रेमियों के लिए कोड़ाईकनाल यह स्थान विशेष है। लेकिन इसके लिए किसी विशेषज्ञ का साथ होना जरूरी है। कहा जाता है कि इन पंछियों को पाइन, वॅटल, युकॅलिप्टस ये पेड़ अधिक प्रिय नहीं होते यानि कि वे उनके घोंसले उन पेड़ों पर नहीं बनाते; लेकिन घोंसले बनाने के लिए वे सोलावुड के पेड़ों का चयन करते हैं। नित्य पाये जानेवाले पंछियों के साथसाथ कई विशेष पंछी यहाँ पर पाये जाते हैं।

संक्षेप में, कोड़ाईकनाल को प्रकृति ने सुन्दरता तथा वन्यसंपदा का दान मुक्त रूप से दिया है।

हम पहले ही यह देख चुके हैं कि पानी यह भी कोड़ाईकनाल की सुन्दरता का अविभाज्य घटक है। कोड़ाईकनाल में प्रवेश करते समय ही ‘सिल्व्हर कास्केड’ से हमारी मुलाक़ात होती है और उसके बाद ऐसे कई वॉटरफॉलो से हमारी मुलाक़ात होती है। यहाँ की पहाड़ियों में ऐसे कई स्थान हैं, जहाँ पर ऊँचाई से पानी गिरने के कारण उन्हें वॉटरफॉलो का स्वरूप प्राप्त हुआ है। लेकिन इन वॉटरफॉलों का असली म़जा तो बारिश के मौसम में आता है।

यहाँ पर पानी एक और रूप में हमारे सामने आता है – झीलों (लेक) के रूप में। उनमें से प्रमुख है – कोड़ाईकनाल लेक। यह मानवनिर्मित है और यह कोड़ाईकनाल का प्रमुख आकर्षण है। इसी कारण कई बार कोड़ाईकनाल के कई वास्तुओं तथा दर्शनीय स्थलों की दूरी इस लेक को मध्यवर्ति मानकर बतायी जाती है। अर्थात् कोड़ाईकनाल के किसी भी स्थान की दूरी का वर्णन करते हुए – वह इस लेक से इतने इतने मीटर्स की दूरी पर है, ऐसा बताया जाता है। इससे हम इस लेक के भौगोलिक महत्त्व का अन्दा़जा लगा सकते हैं। इसवी १८६३ में सर हेन्री लिव्हिंग इस मदुराई के कलेक्टर ने इस लेक का निर्माणकार्य शुरू किया। लगभग साठ एकड़ के अहाते में निर्मित इस लेक में बोटिंग करने के लिए हेन्री लिव्हिंग ने तुतीकोरिन से पहली बोट मँगवायी, ऐसा कहा जाता है।

इस सुन्दर स्थान के लोगों ने अपनी विरासत को अच्छी तरह से सुरक्षित रखा है। जो आदिम मानवीय टोलियाँ यहाँ पर बसती थीं, उनके अस्तित्व के प्रमाणस्वरूप मिली कुछ वस्तुएँ आदि यहाँ के इला़के में प्राप्त हुई हैं, जिनका ‘शेनबागनूर म्युझियम’ में जतन किया गया है।

यहाँ पर बसने आये लोगों ने यहाँ की प्रकृति का म़जा तो उठाया ही, साथ ही अपने साथ आये हुए अपने बालबच्चों के भविष्य के निर्माण की दृष्टि से भी कदम उठाये। इसी में से कोड़ाईकनाल में कई शिक्षासंस्थाएँ स्थापन की गयीं, जिनमें से एक महत्त्वपूर्ण शिक्षासंस्था है – ‘कोड़ाईकनाल इंटरनॅशनल स्कूल’, जिसकी स्थापना इसवी १९०१ में की गयी।

कोड़ाईकनाल का हिल स्टेशन के रूप में जब विकास हो रहा था, तब यहाँ पर ‘गोल्फ़ क्लब’ तथा उसके साथ ‘बोट क्लब’ की भी स्थापना की गयी। गोल्फ़ और बोटिंग इन दोनों शौकों को पूरा करने के लिए ही कोड़ाईकनाल के शुरुआती निवासियों ने शुरुआती समय में ही उनकी स्थापना की। इनमें से गोल्फ़ क्लब की स्थापना इसवी १८९५ में और बोट क्लब की स्थापना इसवी १८९० में की गयी।

सोलार ऑब्झर्व्हेटरी

इसी कोड़ाईकनाल में एक ऐसी महत्त्वपूर्ण तथा अनोखी वास्तु का निर्माण किया गया, जो बहुत ही कम स्थानों पर दिखायी देती है। कोड़ाईकनाल की ऊँचाई ही इस वास्तु के निर्माण का आधार बनी। यह वास्तु है – ‘सोलार ऑब्झर्व्हेटरी’ (जन्तरमन्तर)। सूर्य और अन्य ग्रहतारों का निरीक्षण, सूर्य का पृथ्वी पर होनेवाला परिणाम, मान्सून का निरीक्षण और टेलिस्कोप द्वारा सूर्य-ग्रह-तारों की उत्तम छायाचित्र प्राप्त करना, इन जैसे कई उद्देश्यों से इस ऑब्झर्व्हेटरी की स्थापना की गयी। लगभग एक सदी से यहाँ पर कार्यान्वित रहनेवाली इस ऑब्झर्व्हेटरी द्वारा सूर्य-ग्रह-तारों से सम्बन्धित कई महत्त्वपूर्ण निरीक्षण और टिप्पणियाँ द़र्ज की गयी हैं।

कोड़ाईकनाल में कहीं से भी देखने पर माथे पर फ़ैला हुआ नीला आसमान दिखायी देता है। इस नीले आसमान के नीचे एक बड़े हिल स्टेशन का निर्माण होगा, इसकी कल्पना इन पहाड़ियों को सबसे पहले चढ़कर यहाँ आनेवाले उन तीन लोगों ने भी की होगी क्या? इसका जवाब वे ही जानते होंगे। लेकिन एक बात तो सच है कि जरूरत ही खोज की जननी है।

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