कांची भाग – १

भारतीय महिलाओं का ‘वीक पॉईंट’क्या है? मेरे ख़याल से इस प्रश्‍न के कई जवाब हो सकते हैं। मग़र फ़िर भी अधिकतर भारतीय महिलाओं का ‘वीक पॉईंट’ होता है, साड़ी। दरअसल देश के हर एक प्रदेश के अनुसार सा़डियों के भी कई प्रकार हैं। लेकिन साड़ियों के प्रमुख प्रकारों में हमेशा एक नाम होता है,‘कांजीवरम्’ साड़ी का। ‘कांजीवरम्’ यह साड़ी का एक प्रकार है और हज़ारों लाखों महिलाओं की पहली पसंद कांजीवरम् साड़ी होती है। लेकिन शायद आप यह सोच रहे होंगे कि कांजीवरम् और कांची का क्या संबंध है? कांजीवरम् सिल्क कांची में बनता है। ‘कांजीवरम्’ की यह छोटीसी पहचान भी का़फ़ी है। आइए, अब झाँकते हैं, कांची के अतीत में।

महाकवि कालिदासजी ने ‘नगरेषु कांची’ इन शब्दों में कांची का गुणगान किया है। ‘नगरेषु कांची’ का अर्थ है कि कालिदासजी के समय के भारत की सभी नगरियों में कांची सब से खूबसूरत है। कालिदासजी के इस वर्णन द्वारा कांची की सुन्दरता का हम अनुमान कर सकते हैं और साथ ही कांची की प्राचीनता भी हमारी समझ में आती है।

प्राचीन  समय में उत्तर में जो महत्त्व काशी का था, वहीं दक्षिण में कांची का। इस से भी कांची का महत्त्व अधोरेखित होता है। ‘मोक्षदायिनी’ सप्त पुरियों के नाम हैं- अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवंतिका और द्वारका। इनमें से ही एक है- ‘कांची’।

दरअसल यह कांची नगरी कांचीपुरम्, कांचनपूर, कच्ची, कांजीवरम् और कच्चीपेडु इन नामों से भी जानी जाती है। इनमें से ‘कांजीवरम्’ इस नाम से तो हमारा परिचय हो ही चुका है। आज हम ‘कांचीपुरम्’ इस नाम से इस नगरी को जानते हैं।

प्राचीन समय से यह नगरी अस्तित्व में थी। ‘पट्टुपट्टु’ नामक तमिल संघम कालीन साहित्य में यह उल्लेख प्राप्त होता है कि ‘तोंडैमन इलंदिरयन्’ नामक राजा इस नगरी के लगभग २५०० वर्ष पूर्व शासक थे। कांची के प्राचीन अस्तित्व के सबूत इस तरह के साहित्यीय वर्णन द्वारा प्राप्त होते है। पतंजलि के ‘महाभाष्य’में कांची का उल्लेख है।तमिल भाषा के ‘मणिमेखलायै’ नामक बेहतरीन साहित्य में कांची का वर्णन किया गया है। कालिदासकृत कांची का वर्णन तो हम देख ही चुके है। ‘पेरुंपंत्रु पदै’ नामक तमिल कवि भी कांची का वर्णन करते हैं और ७वीं सदी में भारत आये चिनी यात्री ह्यु-एन-त्संग ने भी कांची का वर्णन किया है। संक्षेप में, यह दक्षिण की बहुत ही प्राचीन नगरी है, जो इसवीसन कालगणना शुरु होने के पहले से अस्तित्व में थी।

‘कांची’ इस शब्द में ही तेज अन्तर्भूत है। ‘कांची’ यह शब्द ‘कांचन’ इस संस्कृत शब्द से बना है, ऐसा कुछ लोगों का मानना है।‘कांचन’ इस संस्कृत शब्द का अर्थ है-स्वर्ण (गोल्ड)। इसी वजह से कांची को ‘सुवर्णनगरी’ भी कहा जाता है। ‘कांची’ इस  शब्द की दूसरी उपपत्ति इस नगरी के ‘कांजीयुर’ इस प्राचीन साहित्यीय नाम के साथ जुड़ी है।यहाँ पर ‘कांजी’ नामक पेड़ बड़े पैमाने पर होने के कारण इसे  ‘कांजीयुर’ कहा जाता था। लेकिन बहुतांश विद्वान और शोधकर्ता ‘कांची’ को कांचन इस शब्द से जुड़ा हुआ मानते हैं। खैर, कांची नाम की इन उपपत्तियों के अलावा कांची इस नामकरण के बारे में इससे अधिक हम कुछ नहीं जान सकते।

किसी भी नगर, गाँव या स्थान का इतिहास कई बातों से ज्ञात होता है। उनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण होते हैं, ऐतिहासिक लिखित दस्तावेज़। लेकिन जब कागज़ या भूर्जपत्र उपयोग में नहीं लाये जाते थे, उस समय का इतिहास शिलालेख, ताम्रपट आदि द्वारा प्राप्त होता है। इनके अलावा वहाँ के मंदिर और विभिन्न वास्तुओं द्वारा भी हम अतीत में झाँक सकते है। उन वास्तुओं तथा मंदिरों की विशिष्ट रचनाशैली तथा वास्तुकला आदि के अध्ययन से उनका निर्माण किन शासकों के काल में किया गया है, इसका निर्णय किया जाता है और उन शासकों के शासन काल को ध्यान में रखते हुए उस स्थान, शहर या नगर का इतिहास तथा उनके अस्तित्वकाल का निर्णय किया जाता है।

दक्षिण भारत के तमिलनाडू राज्य में चेन्नई से कांची लगभग ७०-७२ कि.मी. की दूरी पर स्थित है, जिसके अतीत के पन्ने काफ़ी रोचक हैं। दक्षिण भारत की समूची सुंदरता को प्राचीन समय में वहाँ पर बनायी गयी बेहतरीन वास्तुओं ने आज भी क़ायम रखा है। कांची भी इस बात के लिए अपवाद नहीं है। इसी कांची का उल्लेख ‘मंदिरों की नगरी’ इस तरह भी किया जाता है और इसमें कोई अचरज भी नहीं है। शिवजी तथा विष्णुजी के प्रमुख मंदिरों के साथ साथ कई अन्य देवताओं के मंदिर भी कांची में हैं। दक्षिणी भारत के अधिकांश विख्यात मंदिरों के भव्य गोपुरों की तरह यहाँ के भव्य गोपुर भी गगनस्पर्शी हैं। कांची के शासकों को  शिल्पकला, मूर्तिकला में काफ़ी दिलचस्पी थी, यह सच है; लेकिन साथ ही उन्हें भव्यता(ऊँचाई) का भी काफ़ी आकर्षण था, इसमें भी कोई संदेह नहीं है।

इसीलिए केवल एक प्राचीन नगरी इतनी ही कांची की पहचान नहीं है; बल्कि राजकीय तथा आध्यात्मिक दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण नगरी और ज्ञानसंसपन्न तथा  ज्ञानदान का यज्ञ निरंतर जारी रखनेवाली एक नगरी यह भी उसकी पहचान है।

कांची की आध्यात्मिक महानता दो बातों से ज्ञात होती है- १) मोक्षदायिनी सप्तपुरियों में उसकी गणना की गयी है और २) कहा जाता है कि कांची में १८ विष्णु स्थल, १०८ शिवस्थल और १००० गणेशस्थल (स्थल-स्थान) हैं। कांची की  ज्ञानसंपन्नता से और वहाँ की वास्तुओं तथा मंदिरों से हम आगे चलकर परिचित होने ही वाले हैं। लेकिन उससे पहले प्राचीन समय में रहनेवाला कांची का राजकीय महत्त्व, जिसे नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता, उसे देखने के लिए हमें अतीत में झाँकना पड़ेगा।

कांची पर शासन करनेवाले शासकों में पल्लव राजवंश, चोल राजवंश, विजयनगर के सम्राट और इनके बाद मुगल और फ़िर अंग्रेज़ इनका समावेश होता है।

कांची के शासकों का शासनकाल इस तरह है- तीसरी सदी से लेकर नौंवी सदी तक यहाँ पर पल्लव राजवंश का शासन था। ‘कांची’ उनकी राजधानी थी, जहाँ से वे अपने दक्षिणी साम्राज्य की बागडोर सँभालते थे। फ़िर कुछ समय तक कांची दक्षिण के महापराक्रमी विजयनगर साम्राज्य का एक हिस्सा रही। विजयनगर साम्राज्य के अस्त का कारण था, विदेशी आक्रमण। विजयनगर साम्राज्य का अस्त होने के बाद दक्षिणी भारत के कई शहरों की तरह कांची पर भी मुग़लों की हुकूमत स्थापित हो गयी और उन्हें शह देकर अंग्रेज़ों ने अपने पाँ व जमाये और १५० वर्ष तक राज किया। कारोबार की आड़ में भारत आये अंग्रेज़ों ने धीरे धीरे सारे भारतवर्ष पर कब्ज़ा कर लिया। कांची भी इसके लिए अपवाद नहीं थी; क्योंकि तब कांची पर किसी एक राजा या शासक का एकछत्र शासन नहीं था।

आज़ादी तक कांची पर अंग्रेज़ी हुकूमत रही। आज़ादी के बाद फ़िर तमिलनाडू राज्य में कांची का समावेश किया गया। ऐसा था इस नगरी का आज तक का स़फ़र!

प्राचीन समय से अस्तित्व में रहनेवाली इस नगरी के विकास का दौर शुरू हुआ, पल्लव शासकों के शासनकाल से। इतिहास के लिए अज्ञात रहनेवाला और कांची पर काफ़ी लंबे अरसे तक राज करनेवाला यह राजवंश था।

इन पल्लवों की सत्ता जिस प्रदेश पर थी, उस प्रदेश को ‘तोंडमंडलम्’ कहा जाता था, लेकिन पल्लवों की राजधानी ‘कांची’ ही थी।

इस पल्लव राजवंश के उदय के संदर्भ में कई मतमतान्तर हैं। तीसरी सदी के एक ताम्रपट से ‘सिंहवर्मन्’ और ‘शिवस्कंदवर्मन्’ इन दो राजाओं के नाम ज्ञात होते हैं। उनका राज कृष्णा नदी से लेकर पेन्नार नदी तक था, इतनी ही जानकारी उपलब्ध है। बाद में इस राजवंश के कई राजाओं ने कांची पर शासन किया; लेकिन उनके बारे में कुछ ख़ास जानकारी प्राप्त नहीं होती। लेकिन पल्लव वंश की ख्याति में चार चाँद लगाने वाले ‘सिंहविष्णु’ नामक राजा छठी और सातवी सदी के थे, यह इतिहास से ज्ञात होता है। सिंहविष्णु राजा के पुत्र ‘महेंद्रवर्मन्’ भी पल्लव वंश के एक श्रेष्ठ राजा माने जाते हैं। कला, साहित्य, संगीत इनमें महारत प्राप्त यह राजा उतने ही बहादुर भी थे। उन्होंने ही एक बड़ी शिला में से संपूर्ण मंडप तराशने की शिल्पपद्धति की शुरुआत की। उनके पुत्र ‘नरसिंहवर्मन्’ (प्रथम) ने तो पिता के ऩक़्शे कदम पर चलकर कांची को विकास के शिखर पर बिठाया। उस समय कांची यह विद्या का एक महान केंद्र था। इससे हम पल्लव राजवंश के कांची के विकास में रहनेवाले योगदान को समझ सकते हैं।

रेशम के कई धागों की बुनाई से इसी कांची में बनता है, कांजीवरम् सिल्क। कांची का इतिहास भी कई राजवंशों की बुनाई से ही बना है। लेकिन उसे समझने के लिए हमें एक एक धागे को धीरे धीरे हलके से सुलझाकर आगे बढ़ना चाहिए।

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