लेह-लद्दाख़ (भाग-३)

भारत में सबसे अधिक ऊँचाई पर रास्तों का निर्माण कहाँ पर हुआ है? ऐसा यदि कोई पूछे, तो उसका उत्तर ‘लद्दाख़’ यह होगा। लद्दाख़ में निर्माण किए गए ये रास्तें वहाँ के दो गाँवों को आपस में जोड़ने का काम तो करते ही हैं, साथ ही दो घाटियों के प्रदेश को जोड़ने का काम भी करते हैं। इनमें से कुछ रास्तें ‘पास’ इस नाम से भी जाने जाते हैं और इसी कारण लद्दाख़ को ‘द लॅण्ड हाय पासेस’ भी कहा जाता है।

ladakhलेह यह लद्दाख़ प्रान्त का सबसे बड़ा एवं महत्त्वपूर्ण शहर है। इसीके साथ लद्दाख़ प्रान्त में शेय, बास्गो, स्कार्डू, पदम् आदि कुछ प्रमुख गाँव भी हैं। ये प्रमुख गाँव तथा लेह जैसा शहर भी नदी के आसपास ही बसे हैं और इसका प्रमुख कारण है, वहाँ पर बहुत ही कम मात्रा में होनेवाली बरसात। लद्दाख़ यह प्रदेश ‘पर्जन्यछाया (रेन शॅडो) का प्रदेश’ होने के कारण वहाँ मान्सून के बादलों को प्रवेश ही नहीं मिलता, परिणामस्वरूप अत्यधिक कम मात्रा में वर्षा होती है। लेह जैसे शहर में सर्दियों का तापमान २८  अंश से. तक रहता है, वहीं गर्मियों का तापमान ३३ अंश से. तक रहता है।

प्राकृतिक दृष्टि से अत्यन्त विषमता से युक्त ऐसे इस प्रदेश के लोग कैसे होंगे, वे यहाँ किस तरह से रहते होंगे, ऐसे कई प्रश्न आपके मन में उठना स्वाभाविक ही है।

हम पहले भाग में देख ही चुके हैं कि यहाँ आकर सबसे पहले बसनेवाले लोग थें, मोन और दर्द वंश के लोग और आगे चलकर मंगोलवंशीय लोग भी यहाँ आकर बस गए। इसी कारण इन उपरोक्त वंशों के लोगों के मिश्रण से उत्पन्न हुए लोग ही आज की यहाँ की आबादी है।

इन लोगों को देखते ही उनका रंग, रूप, शरीर का गठन कुछ अलग प्रकार का है, यह महसूस होता है और इसका मुख्य कारण यह है कि ईेर ने कुदरत के अनुसार उनके शरीर में कुछ परिवर्तन करके उन्हें वहाँ के वातावरण में रहनेयोग्य ऐसी शरीररचना प्रदान की है।

इस अत्यधिक विषम मौसम में रहनेवाले लोगों का क़द छोटा होता है। उनके गालों की हड्डियाँ ऊपर उठी हुए रहती हैं और चेहरे के गालों के नीचे के भाग की चौड़ाई कम होती है। उनका नाक उसके मूलस्थान में चपटा और अग्रभाग में चौड़ा रहता है। उनकी ठोढ़ी छोटी होती है और आँखें भी छोटी होती हैं। ये लोग हँसमुख, आतिथ्यशील, भोले होते हैं। इनका जीवन बहुत ही मशक्कतभरा रहता है। नृत्य और गायन यह उनकी जीवनशैली का एक अविभाज्य अंग होता है। किसी भी उत्सव, त्योहार के अवसर पर या खुशी के मौके पर ये लोग अपनी खुशी जाहिर करने के लिए नृत्य और गायन का आधार लेते हैं। दर असल नृत्य और गायन यह लद्दाख़ी संस्कृति का एक अविभाज्य घटक है।

अत्यधिक रूखे एवं ठंडे मौसम से अपनी रक्षा करने के लिए ये लोग ऊनी कपड़ों का इस्तेमाल करते हैं। ये कपड़े उनके पूरे शरीर को कुछ इस प्रकार से ढँकते हैं, जिससे कि पूरा शरीर सुरक्षित रहें। साथ ही वे चमड़े के तल के ऊनी जूतों का इस्तेमाल करते हैं, सिर पर ऊनी से बनी या रजाई जैसे मोटे कपड़े से बनी टोपी पहनते हैं। इस विशेष टोपी की रचना कुछ इस प्रकार से होती है, जिससे कि सिर के साथ कान भी ढँक जाए और ठंड से अधिक सुरक्षित रहा जा सकें। यह रही पुरुषों की पोषाक। महिलाएँ भी पूरे शरीर को ढँकनेवाले ऊनी कपड़े पहनती हैं। वे भी पुरुषों की तरह सिर पर टोपी पहनती हैं। उनकी टोपियों पर शुभचिह्नों की आकृतियाँ अंकित की गई होती हैं। वहीं कुछ लड़कियों की टोपियों पर चाँदी के पदक, बहुमूल्य रत्न जड़े हुए होते हैं। महिलाएँ गले में विभिन्न प्रकार के मणियों की मालाएँ तथा कर्ण-आभूषण भी पहनती हैं।

महिलाओं को रहनेवाली स्वतन्त्रता यह इस लद्दाख़ प्रान्त की विशेषता है। इसीलिए यहाँ की महिलाएँ जिस तरह घर सँभालती हैं, उसी तरह खेती भी करती हैं और व्यवसाय या उद्योग भी करती हैं।

लद्दाख़ में खेती करनेयोग्य ऊपजाऊँ जमीन बहुत ही अल्प प्रमाण में है। इसीलिए यहाँ के लोगों के भोजन में यहाँ की फसल से बने पदार्थों का ही समावेश रहता है।

यहां जौ की खेती बड़े पैमाने पर होने के कारण जौ का उपयोग यहाँ के लोगों के भोजन में अधिक प्रमाण में किया जाता है। इतना ही नहीं, बल्कि मादक पदार्थ बनाने के लिए भी जौ का इस्तेमाल किया जाता है। ऊँचाई पर स्थित इन स्थानों में चाय को बनाने की एक अलग ही पद्धति रहती है। यहाँ के लोग चायपत्ती, मक्खन और नमक को एकसाथ मिलाकर उससे विशिष्ट पद्धति से चाय बनाते हैं। इस चाय को ‘गुरगुर चा’ कहा जाता है। आज समय की धारा के साथ साथ कईं स्तरों पर प्रगति एवं विकास हो रहा है, इसी कारण भारत के अन्य प्रान्तों के पदार्थ भी लेह-लद्दाख़ में उपलब्ध हो रहे हैं। जिसे हम हररो़ज पीते हैं, वह शक्करवाली चाय भी आज यहाँ उपलब्ध है।

इस प्रदेश में मुख्य रूप से दो मंजिला घरों का निर्माण किया जाता था और उनके निर्माण में पत्थर एवं मिट्टी का इस्तेमाल किया जाता था, लेकिन बदलते समय के साथ-साथ घरों के निर्माण की पद्धति में भी बदलाव आ चुके हैं।

इस प्रदेश के लोगों के पास पुराने जमाने से चले आ रहे, विभिन्न प्रसंगों पर गाये जानेवाले गीतों का ख़जाना है और इस ख़जाने की रक्षा कई पीढ़ियों से की जा रही है। गायन यह इन लोगों की जीवनशैली का एक अविभाज्य अंग रहने के कारण इन गीतों की परंपरा की कईं पीढ़ियों से रक्षा होती आ रही है।

अत्यधिक दुर्गम प्रदेश, प्रतिकूल मौसम ऐसी प्राकृतिक मुसीबतों के कारण पुराने जमाने में लद्दाख़ प्रान्त में स्कूली शिक्षा की सुविधा यह बहुत ही कठिन बात थी। बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण गोम्पा (बौद्ध प्रार्थनामन्दिर) में, वहाँ भेजे गये बच्चों को शिक्षित किया जाता था। यहाँ पर दी जानेवाली शिक्षा में प्रमुख रूप से धार्मिक शिक्षा का समावेश होता था। इसी कारण स्कूली शिक्षा के विषय में लद्दाख़ के लोग कुछ उदासीन ही थें। लेकिन आधुनिक युग के साथ साथ चलते रहने के लिए स्कूली शिक्षा की आवश्यकता तो है ही। इसी उद्देश्य के साथ मोराविएन मिशन ने लेह में इसवी १८८९ में स्कूली शिक्षा देनेवाले पहले स्कूल का निर्माण किया। उस समय के यहाँ के शासकों ने हुक्मनामा जारी किया था कि मातापिता अपने बच्चों को इस स्कूल में भेजें। लेकिन आधुनिक युग के साथ परिचित न होने के कारण यहाँ के लोगों के मन में स्कूली शिक्षा के बारे में कुछ गलत फहमी थी और इसीलिए शुरू शुरू में इस स्कूल को यहाँ के बच्चों को शिक्षित करने में कईं मुसीबतों का सामना करना पड़ा। लेकिन आगे चलकर शिक्षा के महत्त्व को जानने और समझने के बाद लद्दाख़ में स्कूली शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा धीरे-धीरे मिलने लगी। इतना सबकुछ होने के बावजूद भी यहाँ के लोगों में उच्च शिक्षा का प्रमाण कम ही था और साथ ही माध्यमिक शिक्षा को भी कईं छात्र बीच में अधूरा ही छोड़ जाते थें। कुछ वर्ष बाद ये हालात भी बदल गए और आज लेह में साक्षरता का प्रमाण लगभग ७५ % है, ऐसा विदित होता है।

हम पहले ही देख चुके हैं कि यहाँ के लोगों का जीवन मशक्कतभरा है। यहाँ के कई गाँवों में महिलाएँ एवं पुरुष बुनाई का काम करते हैं और शाल तथा कार्पेट्स् तैयार करते हैं। विलो नाम के पेड़ की शाखाओं से या विशेष प्रकार की घास से बास्केट्स् बनाना, यह भी यहाँ के स्थानीय लोगों का एक प्रमुख व्यवसाय है। इन बास्केट्स् का इस्तेमाल वे उनके रोजमर्रा के जीवन में करते हैं। वहीं यहाँ के कारागिर भी कलाकौशल की वस्तुओं के निर्माण से अधिक दिलचस्पी रखते हैं, रोजमर्रा के जीवन में उपयोग में लायी जानेवाली वस्तुओं के निर्माण में ।

नृत्य और गायन के जितना ही पोलो और तीरंदा़जी इन दो बातों का भी लद्दाख़ियों के जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। तीरंदा़जी यानि कि तीर चलाना। लेह और लद्दाख़ के कईं गाँवों में तीरंदा़जी की प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। साधारण तौर पर गर्मी के मौसम में इन प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। इन प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने के लिए विभिन्न गाँवों में से टीम्स भेजी जाती हैं। शिष्टाचार के अनुसार वाद्यों के संगीत के साथ ये प्रतियोगिताएँ सम्पन्न होती हैं। हिमालय के अधिकतर विभागों में पोलो यह खेल खेला जाता है। अधिकतर गाँवों में पोलो खेलने के लिए ग्राऊंड रहता है। लेह में स्थित पोलो ग्राऊंड पर भी पोलो की मैचेस तथा पोलो के प्रदर्शनीय मुक़ाबलें होते रहते हैं। पोलो यह यहाँ के लोगों के मनोरंजन का साधन रहनेवाला खेल है और इसीलिए यहाँ के लोग भी मुख्य रूप से उनकी खुशी के लिए ही पोलो खेलते हैं।

नृत्य, गायन, पोलो और तीरंदा़जी इन छोटी छोटी बातों में से खुशी प्राप्त करनेवाले लद्दाख़ के लोग और उनका प्रदेश; आज की भोगवादी जीवनशैली में इस तरह से जीने का लु़फ़्त उठानेवाले ये लोग निश्चित तौर पर दूसरों से कुछ निराले ही हैं।

One Response to "लेह-लद्दाख़ (भाग-३)"

  1. onkar wadekar   July 25, 2016 at 12:26 pm

    लद्दाख में रहने वाले लोगोंका वर्णन हूबहू किया हैं। साधारण मौसम में रहनेवाले लोग जब लदाख पहुँचते है तो यहाँ पर रहनेवाले लोगों प्रति एक रहस्यमय कड़ी सुलझाने की कोशिश करते है। और आज इस लेख के जरिए वह कड़ी अचानक से सुलझ गयी।

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