आगरतला भाग – १

उत्तर में हिमालय और दक्षिण में सागर को साथ लेकर बसा हुआ हमारा भारतवर्ष! हमारे भारतवर्ष में इतनी विविधता है कि उसे देखकर हम दंग रह जाते हैं। वैसे तो दक्षिणी तथा उत्तरी राज्यों से हम थोड़ेबहुत तो परिचित रहते ही हैं, लेकिन देश के एक कोने में यानि कि ईशान्य दिशा में बसे राज्यों का परिचय केवल स्कूल के भूगोल इस विषय तक ही सीमित रहता है।

चलिए, तो फ़िर आज हम भारत की ईशान्य दिशा में स़फ़र करते हैं।

आगरतला

भारत की ईशान्य दिशा के राज्य वैसे तो क्षेत्रफ़ल की दृष्टि से छोटे, लेकिन कुदरती सुन्दरता से भरपूर हैं। उनमें से ही एक है ‘त्रिपुरा’ और हम जिस ‘आगरतला’ की सैर करनेवाले हैं, वह है त्रिपुरा राज्य की राजधानी।

अब इस राजधानी की सैर करने निकले ही हैं, तो चलते चलते इस राज्य के बारे में भी थोड़ीबहुत जानकारी प्राप्त करते हैं।

दूरदूर तक फ़ैली हुईं पर्वतश्रेणियाँ, उन पर्वतों पर फ़ैले हुए घने जंगल, विशेष रूप से बांबू के जंगल और साथ ही नदियाँ और नदियों की घाटियाँ, यह हुआ त्रिपुरा राज्य का भौगोलिक परिचय। त्रिपुरा राज्य की पर्वतश्रेणियाँ जंगलों से व्याप्त हैं और घाटियों में लोग बसे हुए हैं। आगरतला यह शहर भी इसी तरह हावड़ा नदी के पास की घाटी में बसा हुआ है। पुराने जमाने में त्रिपुरा राज्य की पहाड़ियों और जंगलों में कई मानवी समूह बसे थे।

दरअसल ‘त्रिपुरा’ इस नाम को सुनते ही देवी का एक नाम याद आता है – ‘त्रिपुरसुन्दरी’। कहा जाता है कि ‘त्रिपुरसुन्दरी’ ही इस प्रदेश की मुख्य आराध्य थीं और उन्हीं के नाम से यह प्रदेश ‘त्रिपुरा’ इस नाम से जाना जाने लगा। एक मत ऐसा भी है कि इस प्रदेश पर शासन करनेवाले ‘त्रिपुर’ राजा के नाम से इस प्रदेश को ‘त्रिपुरा’ कहा जाने लगा।

लेकिन यह त्रिपुरा प्रदेश प्राचीन समय से इतिहास को ज्ञात है। महाभारत, पुराण, सम्राट अशोक के शिलालेख इनमें ‘त्रिपुरा’ इस नाम का उल्लेख मिलता है। यह बात सच है कि त्रिपुरा का इतिहास बहुत ही प्राचीन है, मग़र आगरतला का इतिहास अर्वाचीन है। क्योंकि आज अस्तित्व में होनेवाले आगरतला का जन्म ही १९ वी सदी के मध्य में हुआ और उसे ‘आगरतला’ यह नाम भी उसके जन्म के साथ ही प्राप्त हुआ।

जिस तरह नदी का मूल (उद्गमस्थान) उसके समुद्र में मिलने के स्थान से सैंकड़ों मील दूर रहता है और उसे खोजने के लिए का़फ़ी दूरी तय करनी पड़ती है; उसी तरह त्रिपुरा का इतिहास जानने के लिए हमें उसके अस्तित्वरूपी नदी के प्रवाह में सैंकड़ों वर्ष पीछे अतीत में जाना पड़ेगा और इसी स़फ़र के दौरान किसी मोड़ पर हमारी मुलाक़ात आगरतला से होगी।

हालाँकि यह प्रदेश पहाड़ों और जंगलों का है, मग़र फ़िर भी इसपर राजा का शासन था। इस राज्य को ‘त्विप्रा’ कहा जाता था। लेकिन उसका विस्तार केवल आज के त्रिपुरा तक ही सीमित नहीं था, बल्कि आसपास के इला़के में भी यह राज्य फ़ैला हुआ था।

‘त्विप्रा’ अथवा ‘तिप्रा’ इन शब्दों का अर्थ है – नदियों का दुआब (दो नदियों का जहाँ पर संगम होता है, वह स्थान)। इस ‘त्विप्रा’ राज्य पर कुल १८६ राजाओं ने शासन किया, ऐसा कहा जाता है।

त्रिपुरा और उसके आसपास के इला़के पर इन राजाओं ने का़फ़ी सालों तक शासन किया। साधारण रूप से १३वी सदी में त्रिपुरा में माणिक्य राजवंश का उदय हुआ और आगरतलासहित त्रिपुरा पर उनकी सत्ता अगले कई शतकों तक यानि कि भारत की आ़जादी (इसवी १९४७) तक बनी रही।

१७ वी सदी की शुरुआत में मुगलों ने त्रिपुरा पर कब़्जा कर लिया, लेकिन सम्पूर्ण त्रिपुरा पर वे कब़्जा नहीं कर सके। त्रिपुरा के कुछ इलाक़ों पर माणिक्य राजाओं की सत्ता अबाधित थी।

१३वी सदी में उदयित हुआ माणिक्य राजवंश ही त्विप्रा राज्य का शासक था। त्विप्रा राज्य के एक शासक (राजा) ने ‘माणिक्य’ इस बिरुद को धारण किया। इन राजा का नाम ‘रत्न फ़ा’ था, ऐसा कहा जाता है।

दरअसल ‘माणिक्य’ इस बिरुद को धारण करने से पहले इन त्विप्रा राजाओं ने अर्थात् त्विप्रा राज्य पर राज करनेवाले राजाओं ने ‘फ़ा’ इस बिरुद को धारण किया था। त्रिपुरा में प्रचलित रहनेवाली ‘कोक्बोरोक’ इस स्थानीय भाषा के अनुसार ‘फ़ा’ का अर्थ है, पिता। राजा यह उसकी प्रजा के लिए पिता के समान होता है, इसी बात को ‘फ़ा’ यह बिरुद दर्शाता है। ‘फ़ा’ इस बिरुद को धारण करनेवाले राजाओं के वंश के एक राजा ने आगे चलकर ‘माणिक्य’ इस बिरुद को धारण किया और वहीं से त्रिपुरा के इन राजाओं के नाम के आगे ‘माणिक्य’ यह बिरुद प्रयुक्त किया जाने लगा।

ख़ैर, १३वी सदी के बाद माणिक्य राजवंश त्रिपुरा पर शासन करने लगा।

मुगलों के बाद आये अंग्रे़ज। अंग्रे़जों ने कोलकाता और उसके आसपास के इला़के पर कब़्जा करने के बाद त्रिपुरा के कुछ हिस्से पर भी कब़्जा कर लिया। लेकिन लगभग सौ वर्ष तक अंग्रे़जों की हुकूमत यहाँ पर प्रस्थापित नहीं हो सकी। सारांश, त्रिपुरा यह एक रियासत के रूप में बना रहा और उसपर माणिक्य राजवंश का शासन बरक़रार रहा। अंग्रे़ज त्रिपुरा को ‘हिल तिपेरा’ कहते थे और इस तरह अंग्रे़जों ने त्रिपुरा में चंचुप्रवेश तो कर ही लिया।

दरअसल इस त्रिपुरा राज्य की राजधानी पहले ‘रंगमती’ में थी, जिसे आज ‘उदयपुर’ (त्रिपुरास्थित उदयपुर) कहा जाता है। यह रंगमती यानि आज का उदयपुर गोमती नदी के तट पर है। महाराजा कृष्णकिशोर माणिक्य ने रंगमती से राजधानी स्थलान्तरित कर हावड़ा नदी के तट पर स्थापित की। इस राजधानी को ‘हवेली’ कहा जाने लगा। यह हवेली ही है, पुराना आगरतला। लेकिन इस राजधानी पर आसपास के शत्रुओं द्वारा किये जानेवाले हमलों के कारण इस राजधानी को दूसरी जगह ले जाया गया और स्थापित हुई इस नयी राजधानी का नाम था ‘नयी हवेली’ अर्थात् आज का आगरतला। इस तरह आज के आगरतला का जन्म इसवी १८४९ में हुआ।

इसवी १८७४-७५ के समय में आगरतला नामक राजधानी को म्युन्सिपालटी का दर्जा दिया गया और आगरतला म्युन्सिपालटी की स्थापना हुई। इस दौरान अंग्रे़जों ने यहाँ की शासनव्यवस्था में दखलअन्दाजी करना शुरू कर दिया था। आगरतला म्युन्सिपालटी की स्थापना होने के बाद इसके चेअरमन के पद पर एक अंग्रे़ज अ़फ़सर को नियुक्त किया गया। मिस्टर पॉवर नाम का यह अंग्रे़ज अ़फ़सर अंग्रे़ज सरकारद्वारा तिपेरा हिल में नियुक्त किया गया पहला पॉलिटिकल एजंट था। जब आगरतला म्युन्सिपालटी की स्थापना जब हुई, तब वहाँ पर महाराजा बीरचंद्र माणिक्य का शासन था। लेकिन म्युन्सिपालटी की स्थापना करना और एक अंग्रे़ज को वहाँ का चेअरमन बनाना, इन ऊपरि तौर पर मामूली लगनेवालीं कृतियों द्वारा अंग्रे़जों ने वहाँ की शासनव्यवस्था में हस्तक्षेप करना शुरू किया।

भारत के कई सुनियोजित (प्लान्ड) शहरों में से एक शहर आगरतला भी है और इस बात का श्रेय जाता है, महाराजा बीर बिक्रम माणिक्य बहादुर को। उनके शासनकाल में आगरतला शहर में अत्यन्त सुनियोजित रूप से रास्तों और इमारतों का निर्माण किया गया।

इस तरह त्रिपुरा की राजधानी के रूप में आगरतला का जन्म हुआ। भारत की ग़ुलामी के कालखण्ड में भी एक रियासत के रूप में रहनेवाला त्रिपुरा आख़िर भारत की आ़जादी के साथ साथ अंग्रे़जी हुकूमत में से भी मुक्त हो गया।

इसवी १९४७ में त्रिपुरा के राजाओं की हुकूमत समाप्त हुई और अक्तूबर १९४९ में वह भारत का एक अविभाज्य अंग बन गया। नवम्बर १९५६ में त्रिपुरा केन्द्रशासित प्रदेश बन गया और आगे चलकर जनवरी १९७२ में उसे राज्य का दर्जा बहाल किया गया। अर्थात् समय की इन बदलती करवटों के बीच आगरतला ही त्रिपुरा की राजधानी बनी रही और आज भी बनी हुई है। आज भी आगरतला ही त्रिपुरा का एक बड़ा शहर है।

इस ईशान्यी राज्य की राजधानी की, भारत के नक़्शे पर रहनेवाले स्थान की महत्त्वपूर्णता को समझने के लिए इतना ही वर्णन का़फ़ी है कि आगरतला से बाँगलादेश की सीमा मह़ज दो किलोमीटर की दूरी पर है। इससे हमारी समझ में यह आ जाता है कि यह स्थान कितना महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि सीमापार से होनेवाला मानवीय स्थलान्तरण, यह आगरतला जैसे शहर की दृष्टि से चिन्ता का विषय बन गया है।

पुराने जमाने में त्रिपुरा राज्य में लोग खंभों पर घर बनाकर रहते थे, लेकिन बदलते समय के अनुसार उन्होंने भी बदली हुई जीवनपद्धति को अपनाया है। त्रिपुरा में आज भी कई जनजातियाँ बसती हैं। आगरतला जैसे शहर में भी कई जनजातियों की बोलियाँ बोली जाती हैं। ऊपर उल्लेखित ‘कोक्बोरोक’ भी ऐसी ही एक स्थानीय बोली है। यह ‘त्रिपुरी’ नामक जनजाति की बोली है। हालाँकि आगरतला में प्रमुख रूप से बंगाली भाषा का इस्तेमाल किया जाता है, मग़र साथ ही कोक्बोरोक, मणिपुरी, चकमा आदि बोलियाँ बोली जाती हैं।

कोक्बोरोक का अर्थ है, ‘मनुष्यों की भाषा’ या ‘बोरोक लोगों की भाषा’। इस भाषा की लिपि को ‘कोलोमा’ कहा जाता है।

इस सुनियोजित शहर का ऊँचाई से लिया गया छायाचित्र यदि देखें, तो उसमें एक स़फ़ेद रंग की इमारत, उसके दोनों ओर पानी और उस इमारत तक पहुँचनेवाले सुन्दर रास्ते दिखायी देते हैं। यह इमारत कौनसी है, इसका पता इतनी ऊँचाई से नहीं लग सकता, उसके लिए उन रास्तों से होकर उस इमारत तक जाना पड़ेगा। लेकिन उससे पहले एक ह़फ़्ते का विश्राम करना पड़ेगा।

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