काशी भाग-६

Pg12_Kahsiकाशीविश्‍वनाथजी की यह नगरी ज्ञान का वैभव, इतिहास की परंपरा, घाटों की सुंदरता, गंगाजी का साथ और मुक्ति के वलय इन सब बातों से संपन्न है। इस नगरी में आज तक कई ज्ञानी पुरुषों, सन्त-महात्माओं, साहित्यकारों एवं कलाकारों का जन्म हुआ और उन्होंने अपने कर्तृत्व से इस नगरी की महिमा बढ़ाई। वहीं कई मशहूर हस्तियों ने इस नगरी में बसकर अपने जीवनचरित्र को संपन्न बनाया। काशी को अपनी कर्मभूमि बनानेवालें इन महापुरुषों ने काशी के वैभव को बढ़ाया।

गौतम बुद्ध और काशी इनका काफी करीबी रिश्ता है यह हमने देखा ही है, लेकिन वह किस प्रकार से है यह देखते है। दरअसल काशी यह गौतम बुद्ध की जन्मभूमि नहीं है, बल्कि यह उनकी कर्मभूमि अवश्य है। ज्ञानप्राप्ति की इच्छा से बुद्ध ने अपने राज्य को त्यागकर कई स्थानों पर विचरण करके ज्ञान को आत्मसात किया था। लेकिन सर्वोच्च ज्ञान की प्राप्ति के लिए उन्होंने गया के करीब के उरुवेला इस जंगल में अपनी साधना का प्रारम्भ किया। वहाँ से करीब रहनेवाले पाँच तपस्वियों ने उस समय बुद्ध की साधना में उनका सहयोग दिया। मग़र आगे चलकर किसी कारणवश वे उस स्थान को छोड़कर वाराणसी के पास के ऋषिपत्तन चले गयें। गौतम बुद्ध को जब सर्वोच्च ज्ञान की प्राप्ति हुई, तब उन्होंने ऋषिपत्तन जाकर उन पाँच तपस्वियों को वह ज्ञान प्रदान किया। इस तरह बुद्ध-धर्म के प्रचार एवं प्रसार के कार्य का प्रारम्भ वाराणसी अर्थात् काशी के पास के ऋषिपत्तन से हुआ। इसीलिए गौतम बुद्ध का जीवनचरित्र एवं बुद्ध-धर्म इनकी दृष्टि से काशी का महत्त्व अपरंपार है।

कस्तूरी कुंडलि बसै मिग ढूंढै बनमाहि।
ऐसे घटी घटी राम है, दुनिया दैखि नाहिं॥

चराचर में बसनेवालें श्रीराम का अखंड भजन करनेवालें और हर एक मनुष्य से इस सत्य का प्रतिपादन करनेवालें संत कबीरजी की काशी।

संत कबीरजी के जन्म के बारे में प्रचलित परंपरागत कथाओं के अनुसार, काशी के एक तालाब के किनारे निरू नाम का एक जुलाहा और उसकी पत्नी निमा इन्हें एक अनाथ बालक प्राप्त हुआ। उन दोनों ने उस बालक को अपना पुत्र मानकर उसकी परवरिश की यही बालक आगे चलकर संत कबीर इस नाम से मशहूर हुआ। संत कबीरजी उनके कई पदों में स्वयं का उल्लेख काशी का जुलाहा इस तरह से करते हैं।इतना ही नहीं बल्कि अपना सारा जीवन काशी में व्यतीत करने का भी उल्लेख करते हैं। उस समय के ग़लत रीतिरिवाज़, प्रथाएँ, अनुचित कर्मकाण्ड इनकी कड़ी आलोचना करनेवालें कबीरजी ने उस समय के समाज को मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम की भक्ति की दिशा प्रदान की।

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम का नाम लेते ही फौरन याद आती है,‘श्रीरामचरितमानस’ इस ग्रन्थ की और इस ग्रन्थ के रचनाकार सन्तश्रेष्ठ श्रीतुलसीदासजी की। श्रीराम की सगुण भक्ति की नींव रखनेवालें  तुलसीदासजी का काशी यह जन्मस्थल भले ही न हों, लेकिन यह उनका कर्मस्थल अवश्य है। अयोध्या में भी तुलसीदासजी का वास्तव्य रहा, लेकिन उनके जीवनकाल का बहुत बड़ा हिस्सा काशी के साथ जुड़ा हुआ है।

तुलसीदासजी के चरित्रवर्णन के अनुसार काशी जाकर एक ब्राह्मण के घर में उन्होंने निवास कियाऔर उसी समय उनकी कवित्वशक्ति प्रकट हुई और वे संस्कृत भाषा में पद्य-रचना करने लगे। लेकिन दिन में की गईं सारी रचनाएँ रात में गायब हो जाती थी। यह लगातार सात दिनों तक चलता रहा और आठवे दिन भगवान शिवजी ने सपने में आकर आदेश दिया कि अपनी मातृभाषा में रचना करो।

इसवी १६३१ की  रामनवमी को उन्होंने श्रीरामचरितमानस की रचना का प्रारम्भ किया। श्रीराम के जन्म के समय जैसा योग था, ठीक वही योग श्रीरामचरितमानस की रचना के प्रारम्भिक दिन भी था।  श्रीराम-विवाह के दिन इस ग्रन्थ के सातों काण्डों की रचना पूरी हुई। इस तरह २ वर्ष, ७ महीने और २६ दिनों में श्रीरामचरितमानस की रचना पूरी हुई।

भगवान की आज्ञा के अनुसार काशी आकर श्रीतुलसीदासजी ने भगवान विश्‍वनाथजी एवं  माता अन्नपूर्णजी से यह चरित्र कहा। रात को श्रीरामचरितमानस की प्रत मंदिर में ही रखकर तुलसीदासजी घर चले गयें। सुबह जब मंदिर के दरवाजें खोले गयें, तब श्रीरामचरितमानस की उस प्रत पर ‘सत्यं शिवं सुंदरम्’ लिखकर भगवान ने स्वयं के हस्ताक्षर किये थें।

तुलसीदासजी के जीवनचरित्र से संबंधित एक और कथा भी कही जाती है। श्रीरामचरितमानस यह ग्रन्थ समाज में काफी सराहा गया, उसे समाजमान्यता प्राप्त हुई। इस वजह से उस समय के ज्ञानी पंडितों के मन में तुलसीदासजी के प्रति असूया की भावना उत्पन्न हुई। उन्होंने कई प्रकार से तुलसीदासजी को कष्ट पहुँचायें और श्रीरामचरितमानस की परीक्षा लेने का फैसला किया। इसके अनुसार काशी के भगवान विश्‍वनाथजी के सामने वेद-शास्त्र-पुराण और उन सब के नीचे श्रीरामचरितमानस इस क्रम से  ग्रन्थों को रखा गयाऔर रात को मंदिर के दरवाजें बन्द कर दिये गयें। लेकिन सुबह जब मंदिर के दरवाजें खोले गयें, तब श्रीरामचरितमानस की प्रत सब से ऊपर थी।

काशी को अपनी कर्मभूमि बनानेवालें तुलसीदासजी ने काशी में ही आख़िरी साँस ली। काशी में तुलसीदासजी का निवास जहाँ था, वह घाट आज ‘तुलसी घाट’ के नाम से मशहूर है। तुलसीदासजी द्वारा स्थापित रामदूत श्रीहनुमानजी का मंदिर, तुलसीदासजी का निवासस्थान इस इतिहास को आज की  काशी ने सँभालकर रखा है।

भगवान का निवासस्थल होनेवाली काशीनगरी और सन्त इनकी भेंट तो अवश्य होगी ही। संत श्रीएकनाथजी के चरित्र में भी काशीनगरी का महत्त्व है। काशी भले ही एकनाथजी की जन्मभूमि और कर्मभूमि भी न हों, लेकिन भगवान की इस भूमि का स्थान एकनाथजी के चरित्र में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।

एकनाथजी ने श्रीमद्-भागवत के एकादश स्कंध पर प्राकृत भाषा में (मराठी में) लिखे हुए पाँच अध्यायों की पैठण के एक ब्राह्मण ने प्रतिलिपि  बनाई थी और वह उसका नित्य-पारायण करता था। जब यह ब्राह्मण काशीयात्रा के लिए गया था, तब वहाँ पर भी वह अपने नियम का पालन कर रहा था। उसे देखकर काशी के विद्वानों  ने उस समय के काशी के पीठाधिपति के पास इस संदर्भ में शिकायत की। पीठाधिपति ने उस ब्राह्मण को बुलाकर उससे उस संदर्भ में सारी जानकारी प्राप्त की और एकनाथजी से काशी आकर मिलने के लिए कहा। पीठाधिपति का आदेश प्राप्त होते ही नाथ काशी के लिए रवाना हुए। दरअसल पीठाधिपति की यह सारी कृति एकनाथजी के प्रति होनेवाली असूया की भावना के कारण ही थीऔर एकनाथजी से उनकी इस रचना के बारे में जवाब माँगने के लिए उन्हें वहाँ बुलाया गया था।

एकनाथजी जब पीठाधिपति से मिलने गयें, तब श्रीमद्भागवत जैसे पवित्र ग्रन्थ पर संस्कृत के बजाय प्राकृत भाषा में (मराठी में) रचना करनेवाले का मुँह भी न देखने की इच्छा से पीठाधिपति और एकनाथजी के बीच एक परदा लगाया गया था। पीठाधिपतीने एकतरफ़ा निर्णय करके एकनाथजी के ग्रन्थ का गंगाजी में विसर्जन करने की आज्ञा दी। पीठाधिपति के शिष्यगणों ने उसके अनुसार एकनाथजी के हस्तलिखित ग्रन्थ को गंगाजी में फेक दिया। लेकिन जिस ग्रन्थ की  रचना स्वयं भगवान ने ही करवायी है, उस ग्रन्थ को गंगाजी भला डूबने कैसे दे सकती हैं? एकनाथजी के ग्रन्थ को अर्थात् उन पाँच अध्यायों को हाथ में लेकर गंगामैय्याजी स्वयं प्रकट हुई और उन्होंने उस ग्रन्थ को एकनाथजी को पुन: सौंप दिया। इस घटना के कारण एकनाथजी का विरोध करनेवालों को चुप बैठना पड़ा।  फिर  एकनाथजी ने काशी में रहकर ही भागवत के शेष अध्यायों के भाष्य का लेखनकार्य पूरा किया।

कबीर, तुलसीदासजी और एकनाथजी इन सन्तों का रिश्ता काशी के साथ इस तरह से जुड़ा हुआ है; किसी का अल्प समय के लिए तो किसी का दीर्घ समय के लिए। मुक्ति के लिए काशी की राह चलनेवालों को मुक्ति के लिए भक्ति की राह दिखायी, वह इन सन्तों ने ही।

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