काशी भाग-५

Pg12_chauraकाशीनगरी के विकास के साथ-साथ ज्ञानदान की परंपरा भी काशी में विकसित होने लगी। प्राचीन भारतवर्ष में भी काशी यह एक मशहूर विद्यापीठ था।प्राचीन समय में गुरु-शिष्य परंपरा के माध्यम से ज्ञानदान का कार्य होता था। उस जमाने में शिष्यगण गुरुकुल में रहकर अध्ययन करते थें। इससे लाभ यह हुआ कि कई परकीय आक्रमणों के बावजूद भी काशी की ज्ञानदान की परंपरा अखंडित रही। पुराने जमाने में छात्र काशी में वेद-वेदांग एवं भारतीय दर्शनशास्त्रों का अध्ययन करते थें।

बौद्ध एवं जैन धर्मों का भी काशी के साथ करीबी रिश्ता होने के कारण यहाँ बौद्ध एवं जैन धर्मों की शिक्षा भी प्रदान की जाती थी।काशी की ज्ञानदान के क्षेत्र की कीर्ति के कारण काशी के विद्वानों को दूसरे देशों में भी सम्मान मिलता था एवं उन्हें मान्यता भी थी। तुलसीदासजी जैसे सन्तश्रेष्ठ का यहाँ प्रदीर्घ समय तक वास्तव्य था। सन्त एकनाथजी, उनके द्वारा विरचित  श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्द के मराठी भाष्य को काशी के विद्वज्जनों की एवं धर्मपीठ की मान्यता प्राप्त हो, इस उद्देश्य से काशी आये थें। आद्य शंकराचार्यजी का भी कुछ समय तक काशी में वास्तव्य था।

इससे यही सिद्ध होता है कि प्राचीन समय में काशी विद्यापीठ और उसके बाद गुरुकुल में रहकर शिक्षा प्राप्त करनेवाले छात्र, इस तरह से काशी की ज्ञानदान की परंपरा का विकास होता रहा और ज्ञानदान का कार्य अखंडित रूप से जारी रहा।

आज भी इस परंपरा का निर्वाह ‘बनारस हिंदू युनिव्हर्सिटी’ (बी.एच.यु.) कर रही है।

Pg12_coins3-nidhiभारत जब अंग्रेज़ों की परतन्त्रता में था, उस समय १९०४ में पंडित मदनमोहन मालवीयजी ने इस युनिव्हर्सिटी की स्थापना का प्रस्ताव सर्वप्रथम सब के सामने रखा। उसी समय डॉ. अ‍ॅनी बेझंट ने भी इस तरह की युनिव्हर्सिटी वाराणसी में बननी चाहिए, यह कहकर उस प्रस्ताव का समर्थन किया। १९११ में पं. मदनमोहन मालवीयजी और डॉ. अ‍ॅनी बेझंट इन्होंने साथ मिलकर युनिव्हर्सिटी के इस प्रस्ताव पर काम करने का फैसला किया। इस तरह के विश्‍वविद्यालय की काशी में स्थापना होनी चाहिए, यह इच्छा रखनेवालें कइयों ने डॉ. बेझंट और पं. मदनमोहन मालवीयजी की सहायता की। ‘हिंदू युनिव्हर्सिटी सोसायटी’ की स्थापना करके इस विश्‍वविद्यालय की स्थापना का पहला कदम रखा गया। लेकिन उस समय सारे भारतवर्ष पर राज करनेवाले अंग्रेज़ सरकार ने प्रत्यक्ष योजना को कार्यान्वित करने से पहले विशिष्ट धनराशि को इकट्ठा करने की शर्त  संस्थास्थापकों के सामने रख दी। १९१५ की शुरुआत में आवश्यक धनराशि इकट्ठा की गई। मगर उस समय फिर एक बार तत्कालीन अंग्रेज़ सरकार ने और एक शर्त रख दी कि ‘सेंट्रल हिंदू कॉलेज’ का समावेश भी इसी युनिव्हर्सिटी में किया जाना चाहिए। उसके अनुसार सेंट्रल हिंदू कॉलेज का समावेश हिंदू युनिव्हर्सिटी सोसायटी में किया गया और आख़िर ४ फरवरी १९१६ को तत्कालीन गव्हर्नर जनरल और व्हॉइसरॉय लॉर्ड हार्डींग ने इस विश्‍वविद्यालय की नींव रखी। इस शुभ अवसर पर कई सम्माननीय विद्वानों के  व्याख्यानों का आयोजन किया गया था। चार दिन तक चले इस समारोह में प्रो.सी.व्ही.रामन, डॉ.जगदीशचंद्र बोस, डॉ.अ‍ॅनी बेझंट और हाल ही में दक्षिण अफ्रीका से लौटे हुए महात्मा गाँधीजी आदि  कई मान्यवरों ने व्याख्यान दिएँ।

इस युनिव्हर्सिटी का कार्य १ अक्तूबर १९१७ से शुरू हुआ। सेंट्रल हिंदू कॉलेज तो बहुत पहले से ही इस युनिव्हर्सिटी का एक हिस्सा बन ही चुका था। जुलाई १९१८ में ‘कॉलेज ऑफ ओरियन्टल लर्निंग’ की और अगस्त १९१८ में ‘टिचर्स ट्रेनिंग कॉलेज’ की शुरुआत हुई। इस युनिव्हर्सिटी के द्वारा १९१८ में सर्वप्रथम परीक्षाओं की शुरुआत हुई और १९१९  में युनिव्हर्सिटी का पहला कॉन्व्होकेशन समारोह संपन्न हुआ।

१३००  एकर्स में फैली इस युनिव्हर्सिटी में आज १४ शाखाएँ और १२४  विभागों का समावेश है। इस युनिव्हर्सिटी के कई कॉलेजेस् और इंजिनियरिंग एवं वैद्यकीय शिक्षणसंस्थाएँ आज भारत में शिक्षा की दृष्टि से सर्वोत्तम मानी जाती हैं। भारत को आज़ादी मिलने तक इस युनिव्हर्सिटी में सिर्फ ३  इंजिनियरिंग कॉलेजेस् थी। १९७१ में आय.आय.टी. की स्थापना होने के बाद ‘इन्स्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी’ के नाम से इन तीनों कॉलेजेस का एकत्रीकरण किया गया। इस प्रकार से ‘आय.टी. – बी.एच.यु.’की स्थापना १९७१ में हुई। इस नामांकित इंजिनियरिंग कॉलेज के साथ ही युनिव्हर्सिटी की वैद्यकीय शाखा भी उच्च श्रेणि की शिक्षा के लिए मशहूर है। ‘आय.एम.एस.- बी.एच.यु.’ इस नाम से वह पहचानी जाती है। यहाँ आयुर्वेद इस प्राचीन भारतीय चिकित्सापद्धति के ज्ञान के साथ-साथ आधुनिक वैद्यकीय शास्त्र का ज्ञान भी प्रदान किया जाता है। इस तरह से ज्ञान के क्षेत्र में काशी आज भी ‘बनारस हिंदू युनिव्हर्सिटी’ के माध्यम से अपनी ध्वजा लहरा रही है।

‘बी.एच.यु.’ की एक विशेषता यह भी है कि निवास की (रहने की) व्यवस्था होनेवाली यह आशिया की सब से बड़ी युनिव्हर्सिटी है। गुरुकुल में रहने के बजाय विश्‍वविद्यालय के परिसर में रहना, इतना ही कल और आज में फर्क है।

इसी युनिव्हर्सिटी के परिसर में ‘भारत कला भवन’ नामक एक संग्रहालय है। इस संग्रहालय में पुरातन शिल्प, चित्र एवं कई पुरातन वस्तुओं का संग्रह है। यहाँ मुग़ल तथा अन्य राज्यकर्ताओं के दरबार के कई पेंटिंग्ज् का संग्रह है। इस संग्रहालय के कई विभाग हैं और उस उस विभाग में किये गये  संग्रह के अनुसार उस विभाग का नामकरण किया गया है। पं. मदनमोहन मालवीयजी के जीवनचरित्र से संबंधित वस्तुओं का संग्रह होनेवाली ‘महामना मालवीय गॅलरी’, पेंटींग्ज की ‘छवी गॅलरी’, बहूमूल्य वस्तुओं का संग्रह होनेवाली ‘निधी गॅलरी’, इसके अलावा ‘स्कल्पचर गॅलरी’, ‘आर्किऑलॉजिकल गॅलरी’ और ‘बनारस थ्रू एजेस्’ गॅलरी।

काशी के बारे में जानकारी प्राप्त करते हुए संस्कृत का उल्लेख न हों, यह नामुमक़िन है। ‘गीर्वाणभारती’ के नाम से विख्यात संस्कृत भाषा के अध्ययन एवं अध्यापन का काशी यह एक प्रमुख केन्द्र था और आज भी है।

१७९१  में ईस्ट इंडिया कंपनी के जोनाथन डंकल ने बनारस में संस्कृत कॉलेज की स्थापना करने का प्रस्ताव रखा। इसके पीछे दो उद्देश्य थें, एक- संस्कृत भाषा का जतन एवं संवर्धन करना और दूसरा- अंग्रेज़ भारतीयों के हित की ही सोच रहे हैं, यह दर्शाना। उस समय के गव्हर्नर जनरल की मान्यता से इस कॉलेज की शुरुआत हुई। पं. काशीनाथजी इस कॉलेज के पहले शिक्षक थें। १८५७  में इस कॉलेज में पोस्ट-ग्रॅज्युएट स्टडीज की शुरुआत हुई और १८८०  में यहाँ की परीक्षाओं का  कार्य शुरू हुआ। भारत की आ़ज़ादी के बाद १९५८  में संपूर्णानंदजी की कोशिशों के कारण इस कॉलेज का युनिव्हर्सिटी में रूपान्तरण हुआ और १९७४ में इसका नामकरण ‘संपूर्णानंद संस्कृत युनिव्हर्सिटी’ किया गया। यहाँ वेद-वेदांग, संस्कृत साहित्य, दर्शनशास्त्र, आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और पाली एवं थेवाद इनका ज्ञान प्रदान किया जाता है।

हजारों हस्तलिखितों को  सुरक्षित रूप में रखने के लिए १८९४  में ‘सरस्वती भवन ग्रंथालय’ का निर्माण किया गया। इन हस्तलिखितों का अन्वेषण करके उन्हें ‘सरस्वती भवन पुस्तक’ इस नाम से पुस्तकरूप में प्रकाशित किया जाता है।

समय बदल गया, समय के साथ-साथ कई बातें बदल गई, नहीं बदले हैं वे इस काशी ने जतन किये हुए ज्ञानदान जैसे मूल्य।

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