काशी भाग-९

Pg12_Kashiहजारों वर्षों से बसी इस काशीनगरी में भला क्या नहीं है? इस काशी में साधारण लोग भी रहते हैं, ज्ञान की प्राप्ति के उद्देश्य से आनेवाले भी रहते हैं, मुक्ति की आस लिये आनेवाले भी रहते हैं, स्वयं के पापों को धोकर पुण्यप्राप्ति की इच्छा से आनेवाले भी रहते हैं। यह हुई मनुष्यों की बात। इसी काशी में कई तीर्थ, मंदिर, कुंड हैं, कई घाट भी हैं और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि काशी में गंगाजी और सारे विश्‍व के अधिपति काशीविश्‍वेश्‍वरजी भी हैं।

प्राचीन समय में काशी व्यापार के लिए मशहूर थी। उस समय गंगा नदी में से काशी का व्यापार-कार्य होता था। मग़र आज वह स्थिति नहीं रही। किंबहुना आज गंगा नदी में से व्यापार-कार्य नहीं होता, क्योंकि बदलते व़क़्त के साथ साथ व्यापार के लिए अनुकूल परिस्थिति नहीं रही। बढ़ती हुई आबादी, जंगलतोड़ इनके कारण गंगा नदी के पात्र की गहराई घट जाने से उसमें से माल को ले जाना- ले आना मुमक़िन नहीं रहा।

व्यापार के क्षेत्र में काशी के लिए रुकावट बने कई कारण हो सकते हैं, मग़र फिर भी आज भी कारीगरी के लिए वह मशहूर है। एक व़क़्त ऐसा भी था, जब काशी में बननेवाला वस्त्र, सुगन्धी द्रव्य, वहाँ की लकड़ी की कारागीरी ये सब काफी मशहूर थें। बनारसी सिल्क के लिए तो आज भी काशी मशहूर है। पत्थरों से तराशे गये शिल्प और लकड़ी को कुरेदकर बनायी गयी ऩक़्क़ाशी ये काशी की विशेषताएँ हैं। इनके अलावा मीनाकारी, चांदी के वर्ख़ से बनीं वस्तुएँ यह भी काशी की ख़ासियत है। मनुष्यों के द्वारा बनाये गये सुन्दर कार्पेट्स भी काशी में उपलब्ध हैं। काशी के आसपास के गाँवों में कारीगर कार्पेट्स बनाने का काम करते हैं। शोभिवन्त वस्तुओं के निर्माण के लिए ताँबे एवं पीतल इन धातुओं का इस्तेमाल किया जाता है। काशी में इन धातुओं से कई प्रकार की उत्तम दर्जे की वस्तुओं का निर्माण किया जाता है।

काशी के बढ़ते हुए व्यापार ने इस नगरी को नृत्य और संगीत इन कलाओं से संपन्न बनाया, यह तो हमने देखा ही है। इसी काशी ने कई मशहूर कलाकार, साहित्यकार, गायक और वादक इन्हें जन्म दिया।

कबीर, तुलसीदासजी जैसे श्रेष्ठ सन्तों ने काशी में रहकर आध्यात्मिक साहित्य का निर्माण किया, वहीं पंचतंत्र की रचना करनेवाले विष्णुशर्मा भी काशी के ही थें, ऐसा कुछ लोगों का मानना है। विष्णुशर्मा ने पंचतंत्र की कथाओं के माध्यम से राजा के राजपुत्रों को प्रशिक्षण दिया और उन्हें राज्य का कारोबार सँभालने योग्य बनाया।

भारतेन्दु हरिश्‍चंद्र, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ला, मुन्शी प्रेमचंद, बलदेव उपाध्याय, हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि कई हिन्दी साहित्यकारों के नाम काशी के साथ जुड़े हुए है।

वाराणसी के पास के एक गाँव में जन्मे मुनशी प्रेमचन्दजी ने हिंदी साहित्य को एक नया परिमाण प्रदान किया।

काशी के एक संपन्न खानदान में जन्मे भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्रजी आधुनिक हिन्दी भाषा के जनक एवं नवयुग-प्रवर्तक साहित्यिक माने जाते हैं। एक साहित्यकार के रूप में मशहूर होनेवाले भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्रजी ने समाज में सुधार लाने की भी कोशिशें की। इन्हीं कोशिशों में से एक थी, उन्होंने अपने ही घर में शुरू की हुई अंग्रेज़ी भाषा की शिक्षा प्रदान करनेवाली पाठशाला। उन्होंने कई मासिक पत्रिकाओं को संपादित किया, जिनमें से एक मासिक पत्रिका महिलाओं के लिए भी थी। सामाजिक कार्य करनेवाली कई संस्थाओं की स्थापना भी उन्होंने की। ‘भारतेन्दु’ यह उन्हें प्राप्त हुई उपाधि थी और आगे चलकर इसी नाम से वे मशहूर हुए।

काशी के साहित्यकरों में एक अग्रणी नाम है, आचार्य रामचंद्र शुक्लाजी का। हिन्दी भाषा के इतिहास का संकलन करने का बहुमूल्य कार्य इन्होंने ही किया। पंडित मदनमोहन मालवीयजी के समय से आचार्य शुक्लाजी ने बनारस हिन्दु युनिव्हर्सिटी में अध्यापन का कार्य किया।

शहनाई इस वाद्य को आन्तरराष्ट्रीय स्तर पर ख्यातनाम बनानेवाले शहनाईवादक बिस्मिल्ला खानजी भी काशी के ही रहनेवाले थें। शहनाई के सुरों से श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध करनेवाले बिस्मिल्लाजी का अन्त काशी में ही हुआ। विख्यात सितारवादक पं रविशंकरजी का जन्म भी काशी में ही हुआ। मशहूर व्हायोलीनवादक डॉ. एन्. राजमजी का नाम भी काशी के साथ जुड़ा हुआ है। इन सब के साथ एक और वाद्य बनारस के साथ जुड़ा हुआ है और वह है सारंगी। सारंगी वाद्य के वादकों की एक बड़ी परंपरा बनारस में है।

नृत्य के क्षेत्र में काशी पहले से ही अग्रणी एवं मशहूर है। आज भी उत्तरी भारत की ‘कथक’ या ‘कथ्थक’ इस नृत्यशैली के लिए बनारस मशहूर है। कथक या कथ्थक यह नृत्यप्रकार कथा कहना, कथा कथन करना इस भूमिका से उद्गमित हुआ है। प्राचीन समय में कथा कहते हुए उसे अधिक परिणामकारक बनाने और श्रोताओं के लिए दिलचस्प बनाने के उद्देश्य से गायन और नृत्य को भी उसके साथ जोड़ दिया गया और उसीसे इस नृत्यशैली का निर्माण हुआ। प्राचीन समय में जब इस नृत्यप्रकार का जन्म हुआ, तब उसका प्रस्तुतीकरण मंदिर में होता था। इसके द्वारा भगवान की कथाओं का श्रोताओं के सामने प्रस्तुतीकरण किया जाता था। अर्थात् भक्ति के साधन के रूप में उसे देखा जाता था। लेकिन मुघलों के समय में यह नृत्य मंदिर में से निकलकर उनके दरबार में पहुँच गया और इस नृत्य का स्वरूप पूरी तरह बदल गया। कथ्थक नृत्य प्रस्तुत करनेवाले कईं कलाकार बनारस में हुए हैं।

नृत्य के साथ साथ बात आती है, गायन की। पिछले भाग में काशी में होनेवाले ध्रुपद मेले के बारे में हमने जानकारी प्राप्त की। इस ध्रुपद गायकी के साथ साथ धमार, होरी, चतुरंग आदि गायनप्रकार भी बनारस की विशेषता है। इसीलिए इन विभिन्न प्रकार की गायकी के गायकों की एक परंपरा बनारस में है।

बनारस की इस संगीत-नृत्यकला की परम्परा के बारे में जानकारी कहाँ से मिली, यह प्रश्न आपके मन में उपस्थित हो सकता है। प्राचीन समय में लिखे गये विभिन्न प्रकार के वर्णनों के द्वारा यह जानकारी प्राप्त हुई। उक्ति-व्यक्ति प्रकरणम्, कुट्टनीम्मतम् जैसे प्राचीन समय के वर्णन उस समय काशी में प्रचलित नृत्य एवं गायन के प्रकारों की जानकारी देते हैं।

चाहे भूतकाल हो या वर्तमानकाल, काशी हमेशा ही मनुष्य के आकर्षण का केन्द्र रही है। भूतकाल में ज्ञान प्रदान करनेवाली नगरी के रूप में वह अनगिनत विद्यार्थियों का आकर्षण रही, यहाँ पर चलनेवाले व्यापार के कारण व्यापारियों को भी इस नगरी का आकर्षण था और इस व्यापार के साथ साथ आनेवाले धन के कारण चोर-उचक्के भी काशी में आते थें। इस नगरी की इस सम्पन्नता के कारण ही इसपर बार बार आक्रमण होते रहे और हर एक आक्रमण का सामना करते हुए इस नगरी ने अपनी पहचान क़ायम रखी। पापमोचन, पुण्यप्राप्ति और मुक्ति इनकी आस लिये काशी में आनेवाले कईं लोग होते हैं। आज भी काशी का नाम सुनते ही कईं हाथ अपने आप पूज्यभाव के साथ जुड़ जाते हैं या मन में सम्मान की भावना तो निर्माण होती ही है।

काशी के इस प्रवास में उसके विभिन्न रूप दिखाई दिएँ। उसके इन विभिन्न रूपों ने ही कईं लोगों को संमोहित किया। मगर एक बात निश्चित है कि इन समग्र रूपों को अपने आप में समानेवाली विश्‍वेश्वर की नगरी यही उसका वास्तविक स्वरूप है।

Leave a Reply

Your email address will not be published.