इंफाल भाग-१

चारों ओर फैली हुई पर्वतों की शृंखला के बीच में स्थित ईशान्य भारत का एक राज्य। मानो यह पर्वतशृंखला जैसे गले का एक हार हो और उस हार में जड़ा हुआ पदक हो मणिपुर। ईशान्य भारत के राज्यों का आपस में बहनोंजैसा नाता है अर्थात् उनमें बहनोंजैसी समानता पायी जाती है। इन बहनों में से एक बहन है, मणिपुर। इंफाल यह मणिपुर की राजधानी है।

'इंफाल'इस मणिपुर के बारे में एक कथा पुराणों में कही गयी है। प्राचीन समय में यहाँ पर जमीन नहीं, बल्कि सागर था। फिर देवताओं ने उसमें मिट्टी डालकर इस भूमि का निर्माण किया। कुछ समय बाद जब शिव-पार्वतीजी नृत्य करने के लिए यहाँ पधारे थे, तब उन्हें कहीं पर भी सूखा, समतल प्रदेश दिखायी नहीं दिया। फिर शिवजी ने उनके त्रिशूल द्वारा पर्वत को फोड़कर जल को निकासित कर दिया और बसने योग्य ऐसी सूखी एवं समतल भूमि का निर्माण किया, जिसे आज हम ‘मणिपुर’ इस नाम से जानते हैं।

इतिहासकारों की राय के अनुसार आर्यों के भारत में आकर यहाँ पर बस जाने के पूर्व ही मणिपुर की इस भूमि पर एक सुसंस्कृत एवं स्वतन्त्र राज्य विद्यमान था। मग़र फिर भी आठवी सदी तक के मणिपुर के इतिहास के बारे में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। लेकिन पुराणों में मणिपुर के बारे में कुछ पौराणिक कथाएँ उपलब्ध हैं।

मणिपुर के लोग केवल नौ देवताओं को ही मानते थें और इनमें भी शिव-पार्वतीजी को वे श्रेष्ठ मानते थे। आगे चलकर पुराणों के प्रभाव के कारण वहाँ के देवताओं की संख्या बढ़ती गयी और बाद में वहाँ के लोग श्रीहरि को सर्वश्रेष्ठ मानने लगे। आज भी मणिपुर में मुख्य रूप से श्रीकृष्णभक्ति दिखायी देती है।

८ वी सदी से लेकर १७ वी सदी तक की अवधि में मणिपुर पर ३६ राजाओं ने शासन किया, ऐसा माना जाता है; लेकिन इस अवधि में इन राज्यों की स्थिति कैसी थी, इसका ब्योरा उपलब्ध नहीं।

मणिपुर की आज की राजधानी होनेवाले इंफाल शहर में एक पुराना क़िला है। इस क़िले का नाम है – ‘कांगला क़िला’ (पॅलेस ऑफ कांगला)। इंफाल नाम की नदी के तट पर बसा और इंफाल शहर के मध्य में विद्यमान यह क़िला ही मणिपुर की प्राचीन राजधानी था। इसी क़िले में से मणिपुर के शासकों ने मणिपुर पर शासन किया। कांगला का यह क़िला सिर्फ राजकीय दृष्टि से ही नहीं, बल्कि धार्मिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण माना गया है। यह क़िला आज जहाँ पर है, वहीं पर पहले से स्थित है और प्राचीन मणिपुर की राजधानी यह क़िला ही था।

‘निंगथोउजा’ नाम के राजवंश ने इसी राजधानी में से शासन करके फिर राजकीय तथा फौजी ताकत को बढ़ाते हुए एक प्रबल एवं प्रभावी राजवंश के रूप में अपनी एक जगह बना ली। विभिन्न राजाओं ने उनके शासनकाल में कांगला के क़िले का विस्तार किया और इस क़िले को म़जबूत बनाया। इसवी १६३२ में शासक रह चुके ‘खागेंबा’ नाम के राजा ने इस क़िले के पश्चिमी द्वार के पास इटों से बनी एक दीवार का निर्माण किया। उसके बाद राजगद्दी सँभालनेवाले उसके ‘खुंजाओबा’ नाम के बेटे ने इस क़िले की खूबसूरती को और भी बढ़ाया और साथ ही इस क़िले की चहारदीवारी को भी म़जबूत बनाया। ऐसा भी कहा जाता है कि इस राजा ने इस कांगला क़िले की सुरक्षा के लिए, उसकी पश्चिमी दिशा में एक खंदक का निर्माण किया। यही समय था, जब मणिपुर का राज्य वैभव की चरमसीमा पर था।

‘ग़रीबनिवा़ज’ इस नाम से मशहूर राजा ने इस क़िले की सुन्दरता को और भी बढ़ा दिया। इस ‘ग़रीबनिवा़ज’ नाम के राजा के बारे में यह जानकारी प्राप्त होती है कि इसका मूल नाम था ‘पाम्हैबा’। राजवंश में पैदा होने के बावजूद भी एक नागवंशीय सरदार के घर में इसका बचपन गु़जरा। यह राजा बहुत ही पराक्रमी था। उसने ब्रह्मदेश की राजधानी पर आक्रमण करके विजय प्राप्त की थी। ग़रीबों के प्रति उसके मन में होनेवाली हमदर्दी के कारण उसे ‘ग़रीबनिवा़ज’ कहा जाने लगा।

१८ वी सदी में ‘भाग्यचंद्र’ नाम के राजा के कार्यकाल में मणिपुर को विदेशी हमलों का मुक़ाबला करना पड़ा। ब्रह्मदेश बार बार मणिपुर पर हमला करता था, जिससे कांगला क़िले का काफी नुकसान हुआ। लगभग ७ साल तक ब्रह्मदेश मणिपुर पर आपना कब़जा जमाये हुए था। लेकिन ‘महाराजा गंभीरसिंहजी’ ने मणिपुर को विदेशियों के कब़्जे में से मुक्त कर दिया। इन्होंने ‘लांगथबल’ को अपनी राजधानी का दर्जा दिया। इस लांगथबल को हम आज ‘कांचीपुर’ इस नाम से जानते हैं। आगे चलकर ‘नरसिंह’ नाम के राजा के कार्यकाल में, इसवी १८४४ में ‘कांगला’ पुनः मणिपुर की राजधानी बन गया।

‘सूरचंद्र’ नाम के राजा के शासनकाल में घटित हुई एक महत्त्वपूर्ण घटना के कारण सिर्फ कांगला ही नहीं, बल्कि सारे मणिपुर पर ही विदेशियों की हुकूमत स्थापित हो गयी और फिर भारत की आ़जादी के साथ ही मणिपुर भी आ़जाद हो गया।

सूरचन्द्र और उसके सौतेले भाइयों के बीच राजगद्दी के कारण शत्रुता उत्पन्न हो गयी। ऐसी परिस्थिति में ही सेनापति तिकेन्द्रजित ने दखलअन्दा़जी की। इसी दौरान अंग्रे़जों ने इस मामले में मध्यस्थता करने के लिए अपने कुछ प्रतिनिधियों को कांगला भेज दिया। इस समस्या को हल करने के लिए अंग्रे़जों द्वारा भेजे गये असम के मुख्य कमिशनर ने कांगला पर हमला बोल दिया। वह दिन था, २४ मार्च १८९१ और यहीं पर अंग्रे़जों के खिलाफ मणिपुरवासियों द्वारा छेड़ी गयी जंग की पहली चिंगारी भड़क उठी। अंग्रे़जों के इस हमले के कारण यहाँ की जनता खौल उठी। हालाँकि लोगों ने अंग्रे़जों के साथ बातचीत करने के लिए मंजुरी तो दे दी, लेकिन इस बातचीत से भी कोई हल नहीं निकल सका। यहाँ से फिर इस मामले ने एक नया मोड़ ले लिया। मणिपुर के कमांडर ने अंग्रे़ज अफसरों का वध करने के आदेश दे दिये, तो राजा ने सिर्फ उन अफसरों को बन्दी बनाने का ही तय कर लिया था। इस बात से खौल उठे अंग्रे़जों ने फिर मणिपुर पर तीनों ओर से हमला बोल दिया और मणिपुर के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया। कोहिमा, सिल्चर और तमू इन तीनों ओर से हमला करके अंग्रे़जों ने कांगला क़िले पर कब़्जा कर लिया। इस तरह २७ अप्रैल १८९१ को कांगला पर अंग्रे़जों का युनियन जॅक लहराया। इस पूरे मामले की जड़ होनेवाले सरदार तिकेन्द्रजित तथा उसके कुछ अन्य साथियों का सार्वजनिक रूप से शिरच्छेद कर दिया गया।

इस तरह दग़ाबा़ज और चालाक अंग्रे़जों ने मध्यस्थता करने का नाटक करके एक और भारतीय राज्य को हडप लिया। इसके बाद कांगला और मणिपुर पर अंग्रे़जों का शासन रहा और अंग्रे़जों ने कांगला में निवास करके उसका अच्छा-ख़ासा उपयोग शासन करने के लिए गया। इसके बारे में हमें जानकारी प्राप्त होती है, वह कुछ वास्तुओं के माध्यम से ही। अंग्रे़ज अफसर, कमांडर आदि के निवास का इन्त़जाम जिन बंगलों और कॉटेजेस् में किया गया था, उनसे यह जानकारी प्राप्त होती है।

ऐतिहासिक दस्तावे़जों से यह जानकारी प्राप्त होती है कि यहीं पर अर्थात् कांगला पर १६ वी और १७ वी सदी में जिसका शासन था, उस राजा के कार्यकाल में पक्की इटों द्वारा एक बालाई क़िले का निर्माण किया गया। पक्की इटों को बनाने की कला उस समय वहाँ के लोग भला कैसे जानते थे? यह सवाल आपके मन में उठ रहा होगा। इस बारे में यह कहा जाता है कि चीनी सेना ने मणिपुर पर किये हुए आक्रमण में चीनी सेना परास्त हो गयी और कुछ चीनी सैनिकों को बन्दी बना दिया गया और उनके लिए एक उपनिवेश स्थापित किया गया। वे चीनी सैनिक पक्की इटों का निर्माण करने की कला के बारे में जानते थे और उन्हींसे मणिपुर के लोगों ने उस कला को सीख लिया।

लेकिन आज कांगला क़िले की स्थिति काफी खराब हो चुकी है। एक समय ऐसा भी था, जब यह क़िला मणिपुर की शान था। यहाँ के राजाओं के राज्याभिषेक समारोह जिस हॉल में सम्पन्न किये जाते थे, उसे ‘उत्र’ कहा जाता था। द्वितीय विश्‍वयुद्ध के दौरान हुए हवाई हमलों में इस ‘उत्र’ का काफी नुकसान हुआ। इसी ‘उत्र’ के सामने इटों से बने दो प्राणियों के पुतले दोनों तरफ स्थापित किये गये थे, जिन्हें ‘कांगला शा’ कहा जाता था। पुराने समय में ये ‘कांगला शा’ मणिपुर राज्य के चिन्ह के रूप में विख्यात थे। अंग्रे़जों ने कांगला क़िले पर कब़्जा कर लेते ही इस ‘कांगला शा’ को तहस-नहस कर दिया।

राजकीय दृष्टि से कांगला क़िले के महत्त्व को हम जान ही चुके हैं। इस क़िले में कईं देवताओं के स्थान विद्यमान होने के कारण धार्मिक दृष्टि से भी यह स्थल महत्त्वपूर्ण है।

तो ऐसे इस कांगला क़िले को मध्य में रखकर आज का इंफाल बसा हुआ है। कांगला में लगभग ३६० महत्त्वपूर्ण धार्मिक स्थान हैं और ‘पाखेंग्बा (पाबेंग्बा)’ यहीं पर बसकर सारे विश्‍व का कारोबार चलाते हैं, ऐसी मणिपुरवासियों की धारणा है।

नाम चाहे कांगला हो या इंफाल, समय के साथ साथ नाम बदल गया हो, लेकिन मणिपुर की राजधानी होनेवाली यह भूमि तो आज भी वही है।

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