गंगटोक भाग – २

इस गंगटोक शहर में सालभर रंगों के उत्सव का माहौल रहता ही है। कई रंगों के र्‍होडोडेंड्रॉन्स, अनगिनत ऑर्कीडस्, ऊँचाई पर खिलनेवाले प्रिम्युला के फ़ूल; एक या दो नहीं, तो ऐसे बीसों नाम लेने पड़ेंगे। केवल गंगटोक में ही नहीं, बल्कि पूरे सिक्कीम राज्य में ऊपर उल्लेखित तीन फ़ूल तो दिखायी देते ही हैं। केवल र्‍होडोडेंड्रॉन्स की ही ३६ प्रजातियाँ हैं और ऑर्कीड्स की तो ४५० प्रजातियाँ सालभर सिक्कीम में खिलती हैं। प्रकृति की अपनी एक विशेषता है और वह यह है कि जिन फ़ूलों को रंग होता है, उनके पास बहुत बार गन्ध नहीं होती और जिन फ़ूलों में गन्ध होती है, उनके पास रंग नहीं होता। इसीलिए गंगटोक में खिलनेवाले इन फ़ूलों के रंगों को हमें आँखों में भर लेना चाहिए, उनसे हम गन्ध की अपेक्षा न रखें, तो ही बेहतर होगा। गंगटोक के ‘जवाहरलाल नेहरू बोटॅनिकल गार्डन’ में इन रंगीन फ़ूलों को, कई दुर्लभ वृक्षों को और केवल हिमालय के इसी प्रदेश में उत्पन्न होनेवाले वृक्षों को हम एकसाथ देख सकते हैं।

जंगल होगा, तो वहाँ पर वन्य जीव तो होंगे ही। हिमालय के इस प्रदेश में कई विशेष वन्यजीव पाये जाते हैं, जो अन्य प्रदेशों में नहीं दिखायी देते। इन सब प्राणियों की रक्षा हो और लोगों को उस प्रदेश के वन्य जीवों का परिचय हो, इस हेतु गंगटोक में ‘हिमालयन झुऑलिजकल पार्क’ की स्थापना की गयी। इस पार्क में सिक्कीम की विशेषता होनेवाला रेड पांडा, हिमालय में पाया जानेवाला काला भालू, बार्कींग डीयर, लेपर्ड कॅट, चीता, गोरल स्पॉटेड डीयर आदि विभिन्न प्राणि पाये जाते हैं, लेकिन ‘रेड पांडा’ यह इस स्थान का विशेष प्राणि है।

यहाँ पर रंगबिरंगे फ़ूल खिलते हैं, विभिन्न वन्य जीव भी पाये जाते हैं और साथ ही शालवृक्ष, चीड, देवदार, शिसव, मॅग्नोलिया, बांबू आदि वृक्ष यहाँ के जंगलों को हराभरा रखते हैं और यहाँ के वातावरण को नियमित रूप से शुद्ध रखते हैं।

ऊँचाई की दृष्टि से दुनिया में तीसरे स्थान पर होनेवाली ‘कांचनगंगा’ पहाड़ी का दर्शन इस शहर में से पूर्व दिशा में देखने से होता है।

इस शहर की भौगोलिक परिस्थिति कुछ इस प्रकार है, जिसके कारण यहाँ पर व्यवसायों का निर्माण होना और उनका विकास होना, यह मुश्किल बात है। यहाँ के पहाड़ी इलाकों में खेती करना यह भी मुश्किल बात है। सिक्कीम के अन्य इलाकों में, जहाँ की जमीन खेती करने अनुकूल है, वहाँ पर इलायची, अद्रक, सेब, चाय, चावल आदि की खेती की जाती है। लेकिन गंगटोक शहर और आसपास के इलाके में खेती के लिए अनुकूल परिस्थिति न होने के कारण, पर्यटन यह यहाँ का प्रमुख व्यवसाय है। पर्यटन के साथ कॉटेज इंडस्ट्री का भी व्यवसाय यहाँ पर किया जाता है। सिक्कीम में बननेवाली हस्तकौशल्य की ची़जें, स्थानीय कारीगरों द्वारा बांबू आदि से बनायी जानेवालीं ची़जें इस कॉटेज इंडस्ट्री के द्वारा लोगों को उपलब्ध करायी जाती हैं। इस कॉटेज इंडस्ट्री द्वारा इन हस्तकौशल्य की ची़जों के साथ साथ कार्पेट्स, विभिन्न प्रकार के थंका आदि का निर्माण किया जाता है। साथ ही आजकल जिसकी बहुत माँग है, ऐसा हँडमेड पेपर भी यहाँ पर बनाया जाता है।

प्राकृतिक सुन्दरता से भरपूर रहनेवाले इस स्थान पर प्रथम बसनेवाले थे, ‘लेपचा’ नामक लोग। इनके उद्गम के बारे में विभिन्न मत हैं। कुछ लोगों के मत से वे नागवंश के थे, किसी और मत से वे अरुणाचल प्रदेश से यहाँ आये थे। अन्य किसी मत से वे मेघालय में स्थित खासी नामक पहाड़ी से आकर यहाँ बसे थे। लेकिन इन ‘लेपचा’ लोगों का मानना है कि उनके पूर्वज कांचनगंगा पहाड़ी के प्रदेश में स्थित राज्य के रहनेवाले थे और वे कांचनगंगा पहाड़ी को देवता मानते हैं।

सिक्कीम के पहले राजा के पूर्वजों के साथ भूतान और तिब्बत से यहाँ पर आकर बसे लोग ‘भूतिया’ नाम से जाने जाते हैं।

‘नेपाली’ यानि कि पड़ोस के नेपाल राष्ट्र से बहुत पहले के जमाने में यहाँ पर आकर बसे हुए लोग।

पूरे सिक्कीम में ये तीन प्रकार के लोग दिखायी देते हैं। लेकिन गंगटोक इस शहर में तीन प्रकार के लोगों के साथ ही भारत के अन्य राज्यों में से व्यवसाय के हेतु आकर यहाँ पर बसे हुए लोग भी हैं। इन सामान्य नागरिकों के साथ गंगटोक में दिखायी देते हैं, भारतीय सेना के सैनिक।
गंगटोक जाते हुए या गंगटोक से अन्य जगह जाते हुए कई बार भारतीय सैनिक दिखायी देते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि यहाँ से लगभग ५४ कि.मी. की दूरी पर स्थित है, नथुला पास। पहले यह पास (रास्ता) तिब्बत और भारत दरमियान के व्यापार का मार्ग हुआ करता था। आज भी देश की सुरक्षा की दृष्टि से इस पास का महत्त्व है। क्योंकि सीमापार से कभी भी विदेशियों का आक्रमण होने की सम्भावना रहती है।

कड़ी ठण्ड और बऱफ़बारी के कारण बाकी देश के साथ संपर्क टूट सकनेवाले इस स्थान पर हमारे सैनिक हमेशा अपने देश की रक्षा के लिए सिद्ध होते हैं। लेकिन इन सैनिकों के कड़े परिश्रमों की कल्पना हमें इस स्थान को प्रत्यक्ष देखने से ही आती है।

लगभग १४,१४० फ़ीट की ऊँचाई पर स्थित इस पास को पर्यटक देख सकते हैं। ‘नथुला’ इस तिब्बती शब्द का अर्थ है – ‘नथु’ यानि ‘सुननेवाले कान’ और ‘ला’ यानि कि पास।

गंगटोक इस शहर को बौद्ध धर्म की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसका मुख्य कारण यह है कि यहाँ पर बौद्ध धर्म की शिक्षा प्रदान की जाती है, इसीलिए बौद्ध धर्म की दृष्टि से यह अत्यन्त पवित्र एवं महत्त्वपूर्ण शहर है।

यहाँ की ‘सिक्कीम रिसर्च इन्स्टिट्यूट ऑफ़ तिबेटॉलॉजी’ नामक इन्स्टिट्यूट में बौद्ध धर्म की शिक्षा से संबंधित पुस्तकों, हस्तलिखितों और अन्य दस्तावे़जों को संग्रहित किया गया है।

लगभग इसवी १८४० के आसपास गंगटोक में ‘मॉनेस्ट्री ऑफ़ एन्चे’ का निर्माण किया गया।

इसवी १९४५-४६ में सिक्कीम के सबसे बड़े स्तूप का निर्माण किया गया। यह स्तूप ‘दो-द्रुल चॉर्टेन’ इस नाम से जाना जाता है।
इसवी १९६० में इसी शहर में ‘रुमटेक मॉनेस्ट्री’ का निर्माण किया गया।

इस शहर में कई प्रकार के लोग बसते हैं। इसी कारण इस शहर में कई उत्सव मनाये जाते हैं, जिनमें प्रमुख रूप से हिन्दु तथा बौद्ध धर्म के त्योहारों का समावेश होता है।

कांचनगंगा पहाड़ी यहाँ के स्थानीय लोगों की देवता है। इस संरक्षक देवता का पूजा-उत्सव इस शहर में सितम्बर में मनाया जाता है।

हालाँकि यहाँ पर कई जाति-धर्मों के लोग बसते हैं, मग़र उनमें आपसी भाईचारा है। अत एव ये लोग एक-दूसरे के त्योहारों में शामिल होते हैं।
गंगटोक शहर में ही नहीं, बल्कि पूरे सिक्कीम में किसी भी उत्सव या त्योहार में नृत्य का होना, यह अनिवार्य बात है। यह सामुदायिक नृत्य होता है। ऐसे नृत्य प्रायः उत्सव, त्योहार के समय किये जाते ही हैं, साथ ही जब फ़सल तैयार होती है तब या किसी शुभ अवसर पर भी किये जाते हैं।

इनमें से बहुतांश नृत्य चेहरों पर मुखौटे पहनकर किये जाते हैं, जिन्हें ‘मास्क डान्स’ कहते हैं। सामान्यतः उनका आयोजन बौद्ध विहारों के प्रांगण में किया जाता है। इनमें नर्तक चेहरे पर चित्रविचित्र मुखौटे पहन लेते हैं। उनकी पोषाक सिल्क की होती है और पैरों में नक़्काशीदार जूतें होते हैं। यह नृत्य सामान्यतः किसी धार्मिक कथा या दन्तकथा पर आधारित होता है। इस ऊपरउल्लेखित नृत्यप्रकार का आयोजन कांचनगंगा पहाड़ी के पूजा-उत्सव के दरमियान किया जाता है।

इस नृत्य के साथ एक युद्धनृत्य भी किया जाता है, जिसमें नर्तक भड़किली पोषाकें पहनते हैं, पूरे बदन पर संरक्षक कवच तथा चेहरे पर मुखौटे धारण करते हैं।

सिक्कीम के राजा ने जब उसकी राजधानी गंगटोक में स्थानान्तरित की, तब वहाँ राजप्रासाद का निर्माण किया। आगे चलकर अंग्रे़जों ने उनके शासन में ‘व्हाईट हॉल’ जैसी कुछ विशेषतापूर्ण वास्तुओं का निर्माण किया। क्लॉड व्हाईट नामक अंग्रे़ज अ़फ़सर की याद में बनाये गये इस व्हाईट हॉल को अंग्रे़ज वास्तुशैली की एक मिसाल कह सकते हैं।

भौगोलिक दुर्गमता के बावजूद यहाँ पर शिक्षा का अच्छा-ख़ासा विकास हुआ है। शिक्षा की दृष्टि से आवश्यक सभी सुविधाएँ यहाँ पर उपलब्ध हैं। सिक्कीम राज्य में कुल ५० प्रकार के अख़बार वितरित होते हैं। उनमें से कई अख़बार गंगटोक में से ही प्रकाशित होते हैं। सिक्कीम के मूल स्थानीय लोग अलग़ अलग़ बोलीभाषाएँ बोलते हैं और हिन्दी-अंग्रे़जी के साथ इन स्थानीय भाषाओं को भी महत्त्वपूर्ण दर्जा प्राप्त है।

जिस कांचनगंगा पहाड़ी को केवल गंगटोक में ही नहीं, बल्कि पूरे सिक्कीम में सम्मान का स्थान प्राप्त है, उस ‘कांचनगंगा’ या ‘कांचनजंगा’ शब्द का अर्थ है – ‘बऱफ़ के पाँच उपहार’। इन पाँच पहाड़ियों को ईश्वर के पाँच भंडार माने जाते हैं।

ऐसे इस गंगटोक शहर में घूमने के बाद आपने शायद उस शीतलता को, उस शुद्ध हवा को जरूर महसूस किया होगा! और शायद आपने अपनी आँखों से कुदरत द्वारा बिखेरे गये रंग और बऱफ़ से आच्छादित कांचनगंगा पहाड़ी को तो जरूर देखा होगा!

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