कांगड़ा भाग-८

हिमाचल की ज़मीन पर कदम रखनेवाले हर इन्सान का मन यहाँ की कुदरती सुन्दरता मोह ही लेती है। जहाँ देखे वहाँ रंगो की बहार। नीले आसमान के तले, सफ़ेद बर्फ़ का ताज पहने हुए पर्वत और हर पर्वत का अपना एक अलग रंग, पर्वतों के चारों ओर फैला हुआ हरा रंग और उस हरे रंग की भी कई तरह की छटाएँ, उसी हरियाली में खिले हुए विभिन्न रंगों के फूल और धरातल पर दूर दूर तक दिखायी दे रही ज़मीन या कहीं पर दिखायी दे रहा ज़मीन और जल का साथ। नज़र एवं मन को सुकून देनेवाली हिमाचल की भूमि में बसे कांगड़ा का यह सफ़र गत कुछ ह़फ़्तों से हम कर रहे हें और अब हम जा रहे हैं, धरमशाला से कुछ ही दूरी पर स्थित बैजनाथ मंदिर की ओर।

मग़र अब भी बैजनाथ का मंदिर दिखायी नहीं दे रहा है यानि हमारा सफ़र अब भी ख़त्म नहीं हुआ है और जी हाँ, कांगड़ा चित्रशैली के बारे में हमारी चल रही बातचीत भी तो अधूरी ही रह गयी थी।

व़क़्त के अलग अलग पड़ाव पर कांगड़ा चित्रशैली हिमाचल के विभिन्न प्रदेशों में प्रसारित होती रही। साधारणत: इन विभिन्न प्रदेशों में इस ख़ास चित्रशैली का प्रसार हुआ, सतरहवीं, अठारहवीं एवं उन्नीसवीं सदी में। हर प्रदेश में इस चित्रकला को तथा चित्रकारों को राजाश्रय प्राप्त हुआ और इसीलिए इस चित्रशैली का बहुत अच्छी तरह विकास हो सका।

भक्ति और निसर्ग सुन्दरता इन दो प्रमुख विषयों को चित्रांकित करनेवाली इस शैली में रंगों का मेल कुछ इस तरह से किया जाता था, जिससे कि देखनेवाले को उस चित्र की सारी खूबियाँ बड़ी अच्छी तरह समझ में आ जाती थी।

कांगड़ा चित्रशैली की ख़ासियत यह है कि इसमें चित्रांकित किये गये व्यक्तिचित्र सुस्पष्ट एवं उभरकर सामने आनेवाले रहते है और सारे चित्र को ही एक तरह की चमक रहती है।

व़क़्त के साथ साथ कई बातों का सफ़र अलग अलग दिशा में होता रहता है। समय के साथ साथ इस चित्रशैली के आश्रयदाता काल के परदे के पीछे चले गये और इस चित्रकला का वैभव भी घटने लगा। लेकिन इस पारंपारिक चित्रशैली को जतन करने की कोशिशें आज के कांगड़ा-धरमशाला में की जा रही है। नये चित्रकारों को इस चित्रशैली से परिचित कराने से लेकर इस शैली में चित्र बनाने तक का सफ़र फिर एक बार शुरु हो चुका है। इस वजह से पुन: एक बार कांगड़ा की कुदरती सुन्दरता कॅनव्हास पर उतरने लगी है।

कांगड़ा चित्रशैली के बारे में जानकारी प्राप्त करते हुए पहाड़ी चित्रशैली के मूल उद्गम के बारे में यह ज्ञात हुआ कि जम्मू-कश्मीर में बसे ‘बशहोली’ या ‘बसोली’ नाम के स्थान में उद्गमित हुई ‘बशहोली’ या ‘बसोली’ चित्रशैली यह पहाड़ी चित्रशैली की जननी मानी जाती है।

इस प्रदेश में सतरहवीं सदी में चित्र बनाने की सर्वप्रथम शुरुआत हुई और यही था इस पहाड़ी चित्रशैली का आरम्भबिन्दु। ‘बशहोली’ या ‘बसोली’ चित्रकला की ख़ासियत यह है कि इस चित्रशैली में चित्र बनानेवाले चित्रकार मुख्य रूप से प्राथमिक (प्रायमरी) रंगों का इस्तेमाल करते थे, जैसे कि लाल, हरा, पीला ये रंग इन चित्रों में दिखायी देते है। इन चित्रों के विषय होते थे, पुराण की कथाएँ एवं व्यक्तित्व। आगे चलकर यही चित्रशैली हिमालय के पहाड़ी इला़के में सर्वत्र प्रसारित हुई और पहाड़ी चित्रशैली, जो आगे चलकर कांगड़ा चित्रशैली के रूप में मशहूर हुई।

देखिए, दूर से मंदिर का शिखर दिखायी देने लगा है। जी हाँ, बातों बातों में इस बैजनाथ के मन्दिर तक पहुँच भी गये।

बैजनाथ, कांगड़ा के पास बसा एक छोटा सा गाँव। यह गाँव मशहूर है, यहाँ के शिवमंदिर के कारण।

यह प्राचीन शिवमंदिर हिमाचल में काफ़ी मशहूर है और इसी वजह से यहाँ पर हमेशा का़ङ्गी चहलपहल भी रहती है।

‘वैद्यनाथ’ – वैद्यों के नाथ यानि कि चिकित्सकों के नाथ। संक्षेप में कहना हो तो डॉक्टरों के भी डॉक्टर। इस वैद्यनाथ नाम से ही ‘बैजनाथ’ यह नाम प्रचलित हुआ है।

यह बैजनाथ पुराने समय में ‘किरग्राम’ इस नाम से जाना जाता था। लेकिन यहाँ का वैद्यनाथ का प्राचीन शिवमंदिर इतना मशहूर था कि आगे चलकर ‘किरग्राम’ इस नाम के बदले ‘बैजनाथ’ यही नाम प्रचलित हुआ, ऐसा कहा जाता है।

कांगड़ा के आसपास कही भी जाये तो यक़ीनन दिखायी देनेवाली धौलाधार पर्वतश्रृखंला यहाँ पर भी दिखायी देती है।

बैजनाथ के मूल मंदिर का निर्माण तेरहवीं सदी की शुरुआत में किया गया। ‘बिनवा’ या ‘बिन्दुक’ नाम की नदी के तटपर यह गाँव बसा है।

इस मन्दिर में स्वयंभू शिवलिंग है और कुछ लोगों की राय में यह बारह ज्योतिर्लिगों में से एक है।

वैद्यनाथ के यानि की बैजनाथ के इस मन्दिर की ख़ासियत यह है कि यहाँ की दीवारों पर के शिलालेख ही इस मंदिर के इतिहास को बयान करते है।

इन शिलालेखों के अनुसार तेरहवीं सदी की शुरुआत में, जब यह मंदिर बनाया गया, तब से इस मंदिर में नित्य पूजा अर्चा होती आ रही है। संक्षेप में, समय के किसी भी पड़ाव पर यह मंदिर ना तो विस्मृति के अन्धेरे में चला गया और ना ही अज्ञात के साये में।

इन शिलालेखों से यह जानकारी भी मिलती है कि यह किरग्राम यानि कि आज का बैजनाथ पहले त्रिगर्त प्रदेश का हिस्सा था। यहाँ पर जयचंद्र नाम के राजा राज कर रहे थे और उनके द्वारा नियुक्त किये गये लक्ष्मणचंद्र नाम के प्रदेश अधिकारी किरग्राम पर राज कर रहे थे। बिन्दुक नदी तब भी बैजनाथ का साथ दे ही रही थी।

इस किरग्राम में दो व्यापारीपुत्र रहते थे। वे दोनों शिवभक्त थे। उन्होंने ही इस स्थान में पहले से ही रहनेवाले स्वयंभू शिवलिंग के लिए शिवमंदिर का निर्माण किया। यही है वह आज का बैजनाथ का मंदिर।

इन शिलालेखों में लक्ष्मणचंद्र की और साथ ही इन दो व्यापारी बन्धुओं की वंशावलि लिखी हुई है। इन व्यापारी बन्धुओं के नाम ‘आहुक’ और ‘मन्युक’ बताये जाते है। इन व्यापारी बन्धुओं ने एवं वहाँ के प्रदेश अधिकारी ने भी इस मंदिर को कुछ चीज़े अर्पण की थी, यह भी शिलालेख में लिखा गया है।

लेकिन इन शिलालेखों से यह ज्ञात होता है कि बैजनाथ के मंदिर के स्वयंभू शिवलिंग की स्थापना किसीने नहीं की, बल्कि वह पहले से ही वहाँ था, इन दो व्यापारी बन्धुओं ने बस उसके लिए मंदिर बनवाया।

१८वीं सदी में कांगड़ा पर जब संसारचंद का शासन था, तब उसने इस मंदिर की मरम्मत करवायी थी, साथ ही कुछ निर्माणकार्य भी किया था।
१९०५ में कांगड़ा में हुए भूकम्प से इस मंदिर का काफ़ी नुक़सान हुआ, मग़र उसकी मरम्मत भी की गयी।

बैजनाथ का यह मंदिर नागर स्थापत्यशैलि का एक उत्कृष्ट उदाहरण माना जाता है।

मंदिर के इतिहास को बयान करनेवाले ये शिलालेख मंदिरके मंडप की दीवारों पर विद्यमान हैं।

मंदिर के चारों ओर उँची चहारदीवारी बनायी गयी है। मंदिर में प्रवेश करने के लिए दो दिशाओं में प्रवेशद्वारों का निर्माण किया गया है। प्रवेश मार्ग में से भीतर जाने के बाद मंदिर के मंडप में हम दाखिल हो जाते है। इस मंडप की दक्षिण ओर उत्तरी दिशा में अहातें है और मंडप में से आगे बढ़ने पर दिखायी देता है, मंदिर का गर्भगृह। इसी गर्भगृह में वह स्वयंभू शिवलिंग विराजमान है, जो यहाँ के प्रमुख उपास्य देवता है। मंदिर के शिखर के दर्शन हम पहले ही कर चुके है।

इस मंदिर के परिसर में अन्य देवताओं के भी छोटे छोटे मंदिर हैं। सारे मंदिर को विशेष रूप में अलंकृत किया गया है। उपरोक्त दो शिलालेखों के अलावा कुछ अन्य शिलालेख भी यहाँ पर पाये जाते हैं।

इस मंदिर की दीवारों एवं खम्भों पर तथा परिसर में भी कुछ मूर्तियाँ दिखायी देती हैं। इनमें से कई मूर्तियाँ ख़ास हैं। यहाँ पर ‘गणेशजी’ की मूर्ति है, जिनके छह हाथ हैं और मूषक के साथ सिंह यह भी उनका वाहन है। ‘हरिहरहिरण्यगर्भ’ नाम की विष्णुजी और शिवजी के एकत्रित स्वरूप की मूर्ति भी यहाँ पर है। ‘कल्याणसुन्दर’ को यानि की शिव-पार्वतीजी के विवाह समारोह को भी यहाँ पर चित्रित किया गया है। सूर्यदेव भी उनके रथ के साथ अन्य एक मूर्ति में विराजमान हैं। चार सिर और सोलह हाथों वाले विराट स्वरूपधारी शिवजी भी यहाँ पर अन्धकासुर का वध करते हुए दिखायी देते हैं।

शिवमंदिर होने के कारण ज़ाहिर है कि यहाँ महाशिवरात्री का उत्सव बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। मकरसंक्रान्ति को शिवलिंग पर आठ दिनों तक घृतमण्डल (घी का मण्डल) बनाया जाता है। घी को पानी से धोकर उससे इस घृतमण्डल का निर्माण किया जाता है और उत्सव की समाप्ति होने के बाद शिवलिंग पर स्थित घृतमंडल के घी को श्रद्धालुओं में बाँटा जाता है। इस घृतमण्डल में औषधि गुणधर्म रहते हैं, ऐसी भाविकों की श्रद्धा है।

अब आख़िर में बैजनाथ गाँव के बारे में एक अनोखी बात। इस पूरे गाँव में कहते हैं कि सुनारों की दुकानें ही नहीं हैं।

धौलाधार पहाड़ों के पीछे सूर्यबिंब कब का ढल चुका है। ठंडक भी बढ रही है, शाम की नि:शब्द शान्ति वातावरण में भर गयी है। इस शान्ति को मन में भरकर और यहाँ की सुन्दरता को नज़रों में भरकर अब कांगड़ा से अलविदा कहते हैं।

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