कांगड़ा भाग-२

कांगड़ा की कुदरती सुन्दरता आज भी सैलानियों के मन को मोह लेती है। लेकिन अतीत में एक दौर ऐसा भी गुज़रा है, जब विभिन्न शासकों को कांगड़ा के वैभव ने मोह लिया था। कांगड़ा के वैभव का यह आकर्षण इतना ज़बरदस्त था कि उस वजह से कांगड़ा प्रदेश को कई बार आक्रमणों के घाव भी सहने पड़े।

ग्यारहवीं सदी की शुरुआत में ही गझनी के महमूद के हमले में उसने कांगड़ा की बेशुमार धनदौलत लूट ली। लेकिन इतने बड़े आघात को सहकर, पचाकर कटोच राजवंश पुन: इस त्रिगर्त देश पर राज करने लगा।

इतिहास कहता है कि उस ज़माने में ऐसी एक मान्यता थी कि जो इस कांगड़ा क़िले पर अपना अधिकार स्थापित करने में कामयाब होगा वह सिर्फ़ कांगड़ा पर ही नहीं तो पूरे पर्वतीय इलाके पर शासन करेगा। इसीलिए कांगड़ा पर हुए आक्रमणों के पीछे जिस तरह वहाँ का वैभव यह एक कारण था, उसी तरह ऊपरोक्त मुद्दा भी एक कारण हो सकता है।

ग्यारहवीं सदी में कटोच राजवंश कांगड़ा के साथ साथ जालंदर प्रदेश के मैदानी इला़के पर भी राज कर रहा था, लेकिन एक आक्रमण के कारण उनकी वहाँ की सत्ता समाप्त हो गयी।

फिर चौदहवीं सदी में कांगड़ा में राजकीय अस्थिरता का माहौल बन गया और उसकी वजह थी, दिल्ली के तख़्त पर बैठे मुग़लों द्वारा किया गया आक्रमण। आक्रमकों ने कांगड़ा क़िले पर अपना अधिकार स्थापित कर दिया। लेकिन कटोच राजवंश के पूरबचंद नाम के राजा १४-१५ वर्षों के बाद पुन: इसे शत्रु के कब्ज़े से छुड़ाने में कामयाब रहे। उसके बाद के १२-१५ वर्ष तक का समय सुकून भरा रहा। फिर इसी राजा के किसी वंशज की राजकीय महत्त्वाकांक्षा बढ गयी और उसने ठेंठ मैदानी इला़के पर धावा बोल दिया, आगे चलकर वह दिल्ली के पास भी पहुँच गया। लेकिन उसके इस आक्रमण का अंजाम भुगतना पड़ा, उसके अपने ही मुल्क़ को। दिल्ली के शासकों ने इस आक्रमण के जबाब में ठेंठ कांगड़ा क़िले को घेर लिया। लंबे अरसे तक युद्ध चलता रहा, लेकिन आख़िर कांगड़ा के शासकों से दुश्मन ने इस क़िले को छीन लिया।

समय आगे बढ रहा था। बीच में कभी कांगड़ा पर उसके मूल शासकों की सत्ता स्थापित हो रही थी, तो कभी दुश्मन इस पर कब्ज़ा करने में कामयाब हो जाता था। फिर सोलहवीं सदी की शुरुआत हुई। सोलहवीं सदी के मध्य तक कांगड़ा पर विदेशी हुकूमत ही थी। उस व़क़्त दिल्ली और उसके आसपास के प्रदेश में भी सत्ता परिवर्तन हो रहे थे। इन सत्तापरिवर्तनों के परिणाम कांगड़ा को भी भुगतने पड़ रहे थे, क्योंकि मैदानी इला़के में राज करनेवाले शासक पहाड़ी इला़के पर भी कब्ज़ा करना चाहते थे।

जब जहांगीर शासन कर रहा था, तब उसके भी मन में कांगड़ा पर हुकूमत करने की इच्छा थी ही और इसकी वजह थी कांगड़ा क़िले के प्रति शासकों के मन में रहनेवाला आकर्षण। यहाँ पर इस बात पर भी गौर करना ज़रुरी है कि कांगड़ा के क़िले को जो शोहरत ग्याहरवीं सदी में मिली थी, वह सतरहवीं सदी तक क़ायम थी। जहांगीरद्वारा भेजे गये सिपाहसालार पहले आक्रमण में कांगड़ा क़िले को जीतने में कामयाब नहीं हुए और एक साल तक युद्ध करने के बाद भी उन्हें खाली हाथ ही लौटना पड़ा।

किसी भी शासक की राज्यविस्तार की ख़्वाहिश आख़िर आक्रमणों को ही जन्म देती है। जहांगीर ने कुछ ही समय बाद कुछ सिपाहसालारों को कांगड़ा क़िले पर कब्ज़ा करने के लिए भेज दिया। इस हमले के दौरान कांगड़ा में काफ़ी उथलपुथल मच गयी, लेकिन आख़िर जहांगीरद्वारा भेजे गये सिपाहसालारों ने इस क़िले पर कब्ज़ा कर ही लिया।

जिस पल इन आक्रमकों ने कांगड़ा क़िला और उसके आसपास के इला़के पर कब्ज़ा कर लिया, वह पल कांगड़ा के इतिहास का एक बेहद दुखद पल था, क्योंकि इतिहास में ऐसा वर्णन मिलता है कि इसके बाद लगभग १५०-१६० वर्षों तक यह क़िला आक्रमकों के कब्ज़े में ही रहा और इतने लंबे समय तक कटोच राजवंश का इस प्रदेश पर से अधिकार समाप्त हो गया। सारे इला़के पर मुग़लों की हुकूमत स्थापित हो गयी और वह उनके साम्राज्य का एक हिस्सा बन गया। इस क़िले के महत्त्व को ध्यान में रखकर यहाँ पर एक फ़ौजी छावनी भी बनायी गयी।

इस इतिहास से दो महत्त्वपूर्ण बातें हमारे ध्यान में आ जाती है। पहली तो यह है कि कांगड़ा और उसके आसपास के प्रदेश के इतिहास और भविष्य में कांगड़ा के इस क़िले की हमेशा ही बहुत अहम भूमिका रही है। क्योंकि इस पूरे इला़के का वर्तमान और भविष्य इसी क़िले के साथ जुड़ा हुआ रहा है। जिसकी इस क़िले पर हुकूमत, वही इस प्रदेश का शासक यह समीकरण सा बन गया था।

दुसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह क़िला बहुत ही मज़बूत रहा होगा। क्योंकि कई बार आक्रमकोंद्वारा एक साल तक इसे घेरे जाने के बावजूद भी वे इसे जीतने में कामयाब नहीं हुए थे।

अठारहवीं सदी के मध्य के बाद तुरन्त ही मुग़लों ने इस इला़के को अफ़गाण शासकों के हवाले कर दिया। मग़र इतने दूर से इस पर राज करने में उन्हें काफ़ी द़िक़्क़ते पेश आने लगीं। इसीलिए उन्होंने अपने अधिकार में कुछ अफ़सरों को यहाँ पर नियुक्त कर दिया और इस इला़के की शासनव्यवस्था सँभालने की ज़िम्मेदारी उन्हें सौंप दी।

राजा घमंड़चन्द को इस इला़के पर शासन करने के लिए नियुक्त किया गया। कांगड़ा का इतिहास इस राजा का गौरव करता है। इस राजा ने कांगड़ा की शानोंशौकत को बरक़रार रखा। लेकिन किसी कारणवश कांगड़ा के क़िले पर अधिकार स्थापित करने में वह कामयाब नहीं रहा, इसलिए उसने ‘तिरा सुजानपुर’ में एक क़िला बनवाया।

इसके बाद कुछ समय पश्‍चात कांगड़ा की भूमि को एक ऐसे शासक का लाभ हुआ, जिसका नाम कांगड़ा के इतिहास में आज भी अग्रस्थान पर है।

उनका नाम था – ‘संसारचंद’। वे कला, साहित्य के साथ साथ वास्तुरचना के भी अच्छे जानकार थे। उनके शासनकाल में कांगड़ा की शानोंशौकत में चार चाँद लग गये। कई ख़ूबसूरत वास्तुओं एवं बग़ीचों का निर्माण, कई वास्तुओं को बेहतर बनाना इन जैसी बातों से हम इन राजा के सुन्दरता के नज़रिये को जान सकते हैं। कांगड़ा और आसपास के इला़के में एक खास चित्रशैली के विकास में इन राजा का बहुत बड़ा योगदान था, ऐसा कहा जाता है। सुन्दरता और कला के साथ साथ इन राजा में बेहतरीन शासक के सभी गुण थे, वीरता थी और साथ ही न्यायप्रियता भी। लेकिन उनकी राजकीय महत्त्वाकांक्षा ही उनके लिए घातक साबित हुई। अपने पूर्वजों की यानि कि कटोच राजवंश की सत्ता जिस प्रदेश पर थी, उसे पुन: स्थापित करने की इनकी ख़्वाहिश थी। उस दिशा में उन्होंने कुछ कदम भी उठाये थे। मग़र तब तक मैदानी इला़के में काफ़ी बदलाव आ चुका था, जिससे कि संसारचंद राजा को इस प्रयास में सफलता हासिल नहीं हुई। हालाँकि इसके बाद उन्होंने पर्वतीय प्रदेशों में से अन्य एक हिस्से को जीतकर अपने राज्य के साथ जोड़ तो दिया, लेकिन इससे उनके विराधकों की संख्या में वृद्धि हुई। उनका विरोध करनेवालों में जिस तरह पर्वतीय प्रदेशों के अन्य राजा थे, उसी तरह पड़ोसी राष्ट्र के शासक भी थे। इस वजह से फिर एक बार कांगड़ा क़िले को हमले का आघात सहना पड़ा।

यह युद्ध काफ़ी लंबे अरसे तक चला, जिससे कि संसारचंद को तिरा सुजानपुर में पनाह लेनी पड़ी।

लेकिन उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में ही संसारचंद और पंजाब के मैदानी इलाके के शासक के बीच एक सुलहनामा हुआ और उसके तहत पंजाब के शासकों ने कांगड़ा में से आक्रमकों को खदेड़ देने में संसारचंद की सहायता की। लेकिन जीत के बाद सुलहनामे के अनुसार कांगड़ा क़िले को एवं उसके आसपास के लगभग ६६ गाँवो को पंजाब के शासकों को सौंपना पड़ा। इस वजह से संसारचंद को अंतिम समय तक तिरा सुजानपुर में ही बसना पड़ा।

इस घटनाक्रम के बाद पंजाब प्रदेश के शासक यहाँ के अधिकारी बन गये। संसारचंद के बाद उनके बेटे ने हालात बदलने की कोशिश तो अवश्य की, लेकिन उसमें कुछ ख़ास सफलता उसके हाथ नहीं लगी, ऐसा इतिहास से पता चलता है।

इसी दौरान अँग्रेज़ो ने उत्तर में जाल बिछाना शुरु कर दिया था। पंजाब प्रदेश के राज्यकर्ताओं के साथ उनका मुक़ाबला था। समय था उन्नीसवीं सदी का मध्य। राक्षसीय राजकीय महत्त्वाकांक्षा रखनेवाले अँग्रेज़ो के पास यहाँ के शासकों की अपेक्षा आधुनिक शस्त्र-अस्त्र थे, जिससे कि भारत की अन्य रियासतों की तरह कांगड़ा के राज्य को भी बड़ी आसानी से वे निगल गये। कांगड़ा पर कब्ज़ा कर लेने के कारण अँग्रेज़ो के लिए अब उत्तरीय पहाड़ी इला़के में घुसना आसान बन गया था। इसके बाद भारत के आज़ाद होने तक कांगड़ा पर अँग्रेज़ो का ही कब्ज़ा रहा। हिमाचल प्रदेश राज्य के निर्माण के बाद उसका इस राज्य में समावेश किया गया।

आज के लेख में बार बार जिस कांगड़ा क़िले का ज़िक्र किया गया, वह क़िला आख़िर कैसा है, यह जानने की दिलचस्पी आपके मन में अवश्य जाग उठी होगी। अगले भाग में हम सैर करेंगे, कांगड़ा के इस क़िले की।

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