कांगड़ा भाग-४

कांगड़ा क़िले की सैर करके थके हुए पैरों को काफ़ी आराम दे चुके। अब बाकी का क़िला देखने के लिए निकल पड़ते है।

पुराने ज़माने से यह क़िला आक्रमकों का सबसे पहला लक्ष रहा है और कांगड़ा का इतिहास इस बात का गवाह है।

कांगड़ा के पूरे इतिहास में हमने इस क़िले पर हुए कई आक्रमणों के बारे में पढ़ा। इतिहास में मुख्य रूप से जिसका उल्लेख किया जाता है; वह है, गज़नी के महमूद द्वारा इस क़िले पर किया गया आक्रमण।

पुराने ज़माने से यह प्रदेश उसके वैभव के लिए जाना जाता था। इसी कारण यहाँ पर आक्रमण करनेवालों के हाथ बेशुमार दौलत लगती थी।

कहते हैं कि गज़नी के महमूद ने जब इस क़िले पर हमला किया, तब वह यहाँ से २८ टन स्वर्ण, ७ लाख स्वर्णमुद्राएँ, ८ टन जवाहरात और अनगिनत चाँदी के बर्तन लूटकर ले गया। अतीत में इस क़िले को ‘वैभवशाली’ क्यों कहा जाता था, यह आप इस वर्णन को पढकर समझ ही गये होंगे।

इस क़िले में लक्ष्मी-नारायण मंदिर, देवी शीतला का मंदिर एवं अंबिका देवी का मंदिर ये प्रमुख मंदिर हैं। यहाँ पर एक कुआ भी है, जिसमें भीतर उतरने के लिए सीढियाँ भी बनायी गयी हैं।

इस क़िले की सैर करते हुए यह बात हमारे ध्यान में आ जाती है कि हालाँकि यहाँ के दरवाज़ों में से हम एक जगह से दूसरी जगह जा तो सकते हैं, लेकिन कई दरवाज़ों में प्रवेश करने का मार्ग और आगे बढ़ने का मार्ग भी कई जगह बहुत ही सँकरा (नॅरो) है।

प्रवेशद्वार यह क़िले में दाख़िल होने का एकमात्र प्रमुख मार्ग होना, चारों तरफ़ रहनेवाली गहरी खाई, क़िले का टीले पर स्थित होना इनके कारण ही यह क़िला एक मज़बूत क़िला माना जाता था और इसी वजह से इस क़िले को जीतना बहुत ही मुश्किल था। शायद इसीलिए आक्रमकों को कभी कभी इस क़िले को जीतने के लिए क़िले को कई सालों तक घेरना पड़ता होगा।

क़िले के मंदिरों की तरफ़ से आगे बढते हुए सीढियाँ चढने के बाद हम पहुँचते हैं, राजमहलों के पास। किसी ज़माने में इनमें लोग रहा करते थें, लेकिन आज ये वीरान पड़ी हुई है। क़िले की आज के इस स्थिति के लिए दो बातें जिम्मेदार है, एक तो काल का परिणाम और दूसरी बात सन १९०५ में यहा हुआ विनाशकारी भूकंप। आज इन वास्तुओं में से केवल ‘शीशमहल’ नाम का महल अस्तित्व में है। लेकिन इस महल का ‘शीशमहल’ यह नाम सुनकर हमें इस महल में शीशों की सजावट दिखायी देगी यह सोचकर यदि हम वहाँ जायेंगे, तो हमारी कल्पना का शीशा चकनाचूर हो जायेगा। इस महल में कहीं पर भी कोई भी शीशा या आईना दिखायी नहीं देता।

यहीं पर एक बड़ी सी अटारी (टेरेस) जैसी रचना है, जिसे सहूलियत के हिसाब से ‘वॉच टॉवर’ कहा जाता है। यहाँ इस वॉच टॉवर पर खड़े रहने पर आसपास का इलाक़ा दिखायी देता है। पास ही की गहरी खाई, उस खाई में हुआ दो नदियों का संगम, खाई की सीमाओं को तय करनेवाली छोटी-बड़ी पहाड़ियाँ, उन पहाड़ियों पर स्थित हरे भरे पेड़-पौधें, साथ ही मस्ती में बहती हुई पवन और माथे पर नीला आसमान। अब शहर में भी आसमान तो रहता ही है, लेकिन हमें उसे देखने की फुरसत कहाँ रहती है? इसीलिए इस क़िले में आनेवालों को कुदरती सुन्दरता को अनुभव करने के लिए इस वॉच टॉवर पर जाना ही चाहिए।

चलिए, हमने इस बड़ी अटारी पर खड़े रहकर आकाश की नीलिमा को आँखों में भर लिया, मस्तीभरी हवा को पीकर हम तरोताज़ा भी हो गये और ख़ुशबू को साँसों में भरकर झूम उठे। अब हमें क़िले से बाहर निकलकर अन्य दर्शनीय स्थलों की ओर जाना चाहिए।

‘हिल स्टेशन’ कहते ही कुछ बातें हमारे मन में अवश्य रहती हैं। जैसे कि हिल स्टेशन और चाय के बाग़ान यह समीकरण। लेकिन हिमाचल प्रदेश और चाय के बाग़ान यह बात शायद आपने सोची नहीं होगी।

चाय का नाम लेते ही हमें याद आती है, आसाम और दार्जिलिंग जैसे स्थानों की। इसीलिए जब तक कांगड़ा के चाय बाग़ानों के बारे में पढ़ा नहीं था, तब तक यह विषय पूर्णतया अपरिचित था।

दर असल कांगड़ा यह बहुत अधिक ऊँचाई पर बसा हुआ प्रदेश न होने के कारण यहाँ पर चाय के बाग़ान सीमित हैं। डॉ. जेमसन नाम के किसी शख़्स ने १८४९ में कांगड़ा व्हॅली का सर्व्हे किया। उसमें उसने पाया कि यहाँ की आबोहवा और ज़मीन चाय की फ़सल के लिए पोषक है और उसके बाद यहाँ पर चाय की खेती करना शुरु हुआ।

शुरुआती दौर में अल्मोड़ा और देहरादून से चाय के बीज ले आकर यहाँ पर बोये गये। जब यहाँ पर अँग्रेज़ों का राज था, तब अँग्रेज ‘ब्लॅक टी’ बनाते थे, वहीं स्थानीय निवासी ‘ग्रीन टी’ बनाते थे, ऐसा भी कहा जाता है। यहाँ पर बननेवाली चाय उन्नीसवीं सदी से काफ़ी मशहूर है। यहाँ पर उगायी जानेवाली चाय का अपना एक ख़ास ज़ायका और ख़ुशबू है। इसी कारण यहाँ पर चाय बागानों की शुरुआत से लेकर आज तक यहा की चाय कुछ ख़ास रही है।

चाय का नाम सुनकर आप तरोताज़ा हो ही चुके होंगे। अब हम कांगड़ा क़िले को अलविदा कहकर कांगड़ा नगर में दाख़िल हो चुके हैं। हिमाचल में आ तो गये, लेकिन अब तक बर्फ़ को नहीं देखा, ऐसा आप सोच रहे होंगे। यदि बर्फ़ को क़रिब से देखना हो, तो हमें कांगड़ा से कुछ ही दूर के पहाड़ो की चोटियों पर जाना होगा, क्योंकि बर्फ़ तो वहीं पर है। चलिए, तो सीधे वहीं चलते हैं। लेकिन कहाँ जाना है, इस बात का पता तो वहाँ जाने पर ही चलेगा।

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