कांगड़ा भाग-७

कांगड़ा की संस्कृति एवं कला पर एक नज़र डालने की बात हम गत लेख के अन्त में ही तय कर चुके हैं, लेकिन पहले कांगड़ा के दो महत्त्वपूर्ण मंदिरों के दर्शन करके फिर उस सफ़र पर चलते हैं।

कांगड़ा के इला़के के अन्य दो महत्त्वपूर्ण मंदिर हैं – ‘बैजनाथ मंदिर’ और ‘चामुण्डा देवी का मंदिर’।

सबसे पहले चामुण्डा देवी के मंदिर में चलते हैं।

देवी माँ ने जहाँ पर असुरों का नाश किया था, वहाँ पर यह मन्दिर बना है, ऐसा कहा जाता है। लोकमानस में दृढ हो चुकीं कई लोककथाएँ एवं आख्यायिकाएँ इस तरह की वास्तुओं एवं मन्दिरों से जुड़ी हुई रहती हैं। चामुण्डा देवी के मन्दिर के बारे में भी ऐसी ही एक लोककथा प्रचलित है।

यह चामुण्डा देवी का मन्दिर ऐसी जगह पर था, जहाँ पर देवीमाता ने असुरों का नाश किया। लेकिन यह स्थल काफ़ी दूर एवं सुनसान था। इस वजह से वहाँ जाकर देवीमाता के दर्शन करना सामान्य जनों के लिए बहुत ही मुश्किल था। फिर लगभग ४०० वर्ष पूर्व किसी राजा ने उसके राज्य के प्रमुख पुरोहित के साथ देवीमाता से प्रार्थना की कि आम लोग उनके दर्शन आसानी से कर सकें इसलिए जहाँ सबके लिए पहुँचना आसान हो ऐसी जगह आप हमें मंदिर बनाने की अनुमति दे दें। इस प्रार्थना को सुनकर देवीमाता ने एक दिन उनके सपने में आकर किसी विशिष्ट जगह खुदाई करने की आज्ञा दे दी और वहाँ मिलनेवाली प्राचीन मूर्ति की स्थापना करके मन्दिर बनाने के लिए भी कहा।

फिर राजा ने उस जगह की खोज करने के लिए सैनिकों को भेज दिया। उस जगह खुदाई करने पर उन्हें देवीमाता की मूर्ति तो दिखायी दी, लेकिन वे उसे उठाने में कामयाब नहीं रहे। देवीमाँ ने पुन: पुरोहित के सपने में आकर कहा कि राजा के सेवक उस मूर्ति को महज़ एक पत्थर मान रहे हैं और इसीलिए वे उसे उठाने में कामयाब नहीं हुए। देवीमाता की आज्ञा के अनुसार जब पुरोहित वहाँ गये, तब अजूबा ही हो गया। कई लोग मिलकर भी जिस मूर्ति को उठाने में सङ्गल नहीं हुए थे, उसे पुरोहित ने अकेले ही उठा लिया। इस तरह दूर एकान्त स्थल में बसा देवीमाता का मन्दिर अब, सब जहाँ आसानी से पहुँच सके ऐसी जगह बन गया।

धौलाधार पर्वत की पार्श्‍वभूमि पर बना यह मन्दिर बेनेर यानि कि बाणगंगा के तट पर बसा है। धरमशाला से १०-१५ कि.मी. की दूरी पर यह बसा हुआ है। कुछ लोगों की राय में यह मन्दिर ७०० वर्ष पुराना है।

यह मन्दिर ‘चामुण्डा-नन्दिकेश्‍वर धाम’ इस नाम से भी जाना जाता है।

अब चलते हैं, दुसरे मन्दिर के दर्शन करने। बैजनाथ यानि वैद्यनाथ यह शिवजी का एक नाम है। यह इस इला़के का पुराना मन्दिर है। धरमशाला से ५०-५५ कि.मी. की दूरी पर यह बसा है। तो आइए, चलते चलते रास्ते में बातचीत भी करते हैं।

चित्रकला, चित्र इनके बारे में हम बचपन से ही जानते हैं। छोटा बच्चा भी तोतली बोली बोलते हुए दीवारों एवं कागज़ पर रेखाएँ खींचता रहता है। ये रेखाएँ ही जब विशिष्ट आकार धारण कर लेती हैं, तब एक सुन्दर चित्र बन जाता है।

आदिम काल में भी मनुष्य प्राप्त सामग्री की सहायता से चित्र रेखांकित करता था। ‘भीमबेटका’ की गु़फाएँ इस बात का एक बेहतरीन उदाहरण है। संक्षेप में, चित्रकला से बचपन में ही मानव का परिचय हो चुका रहता है।

फोटोग्राफ़ी का आविष्कार होने के पहले तो अतीत की यादों को जतन करने का प्रमुख स्त्रोत चित्रकला ही थी। नगरों का, बड़े बड़े गाँवों का जैसे जैसे विकास होता रहा, वैसे वैसे राजा-महाराजाओंने, अधिकारियोंने उस अतीत को चित्रकला के माध्यम से जतन किया। इस दौरान चित्रकला काफ़ी विकसित हुई और इसी वजह से भारत के विभिन्न प्रदेशों की अपनी ख़ास चित्रशैली है। वह शैली उस प्रदेश का, उस समय का प्रतिनिधित्व करती है। हर शैली की अपनी एक ख़ासियत है और उसीसे वह पहचानी जाती है। इन सभी शैलियों को पहचानने के लिए इस विषय का जानकार रहना ज़रूरी है।

हिमाचल के इस पहाड़ी इला़के की ख़ास चित्रशैली का विकास भी समय के साथ साथ होता रहा। यह शैली ‘कांगड़ा चित्रशैली’ इस नाम से जानी जाती है।

दर असल इस सारे पहाड़ी इला़के में विकसित हुई चित्रशैली को ‘पहाड़ी चित्रशैली’ कहते हैं। कांगड़ा की चित्रशैली पर इस पहाड़ी चित्रशैली का का़ङ्गी प्रभाव है। इसीलिए कुछ लोगों की राय में ‘कांगड़ा चित्रशैली’ यह एक स्वतन्त्र चित्रशैली न होते हुए पहाड़ी चित्रशैली के प्रभाव से उद्गमित उसीकी एक शाखा है। अत एव प्राय: इसे पहाड़ी चित्रशैली का एक हिस्सा भी मानते हैं।

उत्तरी भारत पर जब मुग़लों ने हुकूमत स्थापित कर ली, तब उनके दरबार में उन्होंने चित्रकारों, वास्तुकारों को राजाश्रय देना शुरू कर दिया। इनमें से ही कुछ चित्रकार हिमाचल प्रदेश के ‘गुलेर’ नाम की जगह आ गये। गुलेर यह उस समय एक छोटा सा राज्य था। वहाँ के शासक ने उन्हें पनाह दे दी। राजाश्रय के सहारे इन चित्रकारों की चित्रकला भी विकसित होने लगी। वैसे कहा जाये तो गुलेर चित्रशैली नाम की शैली का विकास यह पहाड़ी चित्रशैली के और साथ ही ‘कांगड़ा चित्रशैली’ के जन्म का आरम्भ रहा।

आगे चलकर इस गुलेर चित्रशैली में से ही कांगड़ा चित्रशैली का उद्गम हुआ। इसकी वजह जानना भी काफ़ी रोचक है। ‘संसारचंद’ नाम के कांगड़ा के शासक, जिन्हें कांगड़ा के इतिहास ने काफ़ी सराहा है, उन्हीं के प्रयासों से इस कांगड़ा चित्रशैलीने वैभव की बुलंदियों को छू लिया।
इतिहास कहता है कि ये संसारचंद नामक राजा स्वयं कला के अच्छेख़ासे जानकार थे।

शुरुआती दौर में व्यक्तिरेखाओं का चित्रांकन करने तक मर्यादित रहनेवाली चित्रशैली, जब कांगड़ा चित्रशैली के रूप में सामने आयी, तब उसके कर्ताओं ने यानि कि चित्रकारों ने कांगड़ा की कुदरती ख़ूबसूरती का खज़ाना ही चित्रप्रेमियों के लिए खोल दिया।

मूलत: कांगड़ा की भूमि ख़ूबसूरती का भंडार है। नदियाँ, वादियाँ, झरने, प्रपात (वॉटरफॉल) के साथ साथ बारह महिने हरे भरे रहनेवाले जंगलों में खिलनेवाले सुन्दर ङ्गूल, छोटे छोटे बनङ्गूल, पवन के साथ डोलनेवाली घास और हिमालय की शुभ्रधवल पर्वतश्रृंखला और उसीमें बसे छोटे बड़े गाँव। इस सुन्दरता से ये चित्रकार काफ़ी प्रभावित हो गये और यह प्रभावही कॅनव्हास पर चित्रों के रूप में प्रकट हो गया।

साथ ही इन चित्रकारों को प्रभावित किया, भागवत पुराण ने, जयदेव के गीतगोविन्द ने और इस तरह की कई भक्तिमय रचनाओं ने। यह भक्ति ही फिर उनकी कूँची (ब्रश) से साकार हो गयी। भक्तविश्‍व को मोहित कर देनेवाला भगवान का रूप, ख़ास कर किशोरवयीन श्रीकृष्ण का रूप चित्रों में साकार होता रहा।

‘सुन्दरता’ इस मूल आशय के साथ साथ ‘भगवान के प्रति रहनेवाला प्रेम’ भी कागज़ पर उतरता रहा और यही कांगड़ा चित्रशैली की विशेषता मानी जाती है।

कांगड़ा की यह चित्रशैली फिर कांगड़ा के आसपास के हिमाचल के इलाक़ों में प्रसारित होती रही और बसोली, चंबा, नुरपुर, मंड़ी, सुकेत, कुलु, बिलासपुर, नालगढ़, आर्की इन विभिन्न प्रदेशों में वह पहुँच गयी।

सतरहवीं सदी के अन्त में एवं अठरहवीं सदी के आरम्भ में उद्गमित हुई यह गुलेर चित्रशैली अठारहवीं सदी के अन्त से लेकर उन्नीसवीं सदी तक कांगड़ा चित्रशैली के रूप में विकसित होती रही।

कहा जाता है कि राजा संसारचंद के दरबार में कांगड़ा चित्रशैली के कई माहिर चित्रकार थे, जिनकी महिमा आज भी विशेषज्ञ गाते हैं।

कांगड़ा चित्रशैली की एक और ख़ासियत यह भी कही जाती है कि इनमें से कई चित्रों में स्त्री की शालिन सुन्दरता दिखायी देती है और कईयों की राय में यही बात इस चित्रशैली की आत्मा है।

यह चित्रशैली इसमें उपयोग में लाये गये रंगों के लिए भी मशहूर थी क्योंकि इन रंगों का निर्माण प्राकृतिक स्त्रोतों से किया जाता था। पेडों के पत्ते, फूल और खनिज पदार्थ इनसे प्राप्त किये गये रंगों से इन चित्रों का निर्माण किया जाता था।

इस चित्रशैली के बारे में पढते हुए ‘कांगड़ा क़लम’ यह शब्द भी पढने में आया। इसमें गिलहरी के बालों से बनायी गयी कूँची से चित्र बनाये जाते थे। इस ब्रश की सहायता से बहुत ही बारीक एवं नाज़ुक रेखाओं को चित्रांकित किया जाता था।

संक्षेप में, कांगड़ा चित्रशैली यह चित्रकला के इतिहास का एवं वर्तमान क़ा एक सौन्दर्यपूर्ण स्थल है।

कांगड़ा चित्रशैली का यह सफ़र बैजनाथ मंदिर पहुँचने तक जारी रखेंगे। ठीक है!

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