कांगड़ा भाग-६

पठाणकोट से छुटनेवाली छोटीसी टॉय ट्रेन हमें कुदरती ख़ूबसूरती की झलक दिखाते आगे ले जाती है। पठाणकोट से निकलनेवाली यह मीटरगेज पर से चलनेवाली छोटी सी ट्रेन हमें ठेंठ जोगिंदरनगर तक ले जाती है। यानि पंजाब प्रांत से शुरु हुआ हमारा सफ़र हिमाचल प्रदेश में जाकर ख़त्म होता है।

कई छोटी बड़ी नदियों, खाइयों, गाँवों को पार करते करते यह छोटी सी रेलगाड़ी हमें ठेंठ पहाड़ी इला़के में ले जाती है।

इस सफ़र की शुरुआत होती है, आसपास बसे कुछ छोटे बड़े गाँवों के साथ। सफ़र के साथ साथ रेलगाड़ी पहाड़ों पर चढने लगती है और यहीं से शानदार कुदरती नज़ारों को देखते देखते हम आगे बढते रहते हैं। बीच में ही एकाद नटखट जलप्रवाह नादमधुर ध्वनि सुनाते हुए बहता हुआ दिखायी देता है, तो कभी अपनी ही धुन में आराम से बहती हुई नदी से भी मुलाक़ात होती है। बीच में ही हरे घने जंगलों में से हम गुज़रते हैं, तो कभी विशाल घाटी हमारा ध्यान आकर्षित करती है। इस सारे निसर्ग दृश्य को हम शांति एवं सुकून के साथ देख सकते हैं, नज़रों में और मन में भरकर रख सकते हैं, क्योंकि इस ट्रेन की गति ज्यादा तेज़ नहीं होती। अत एव जो भी कांगड़ा व्हॅली की सुन्दरता को जी भरकर देखना चाहता है, उसे इस ट्रेन से सफ़र करना ही चाहिए।

इस सफ़र में रेलमार्ग पर बनाये गये छोटे, बड़े, ऊँचे पुल, सुरंगें और स्टेशन्स भी आते जाते रहते हैं। इस रेलमार्ग के स्टेशन्स भी इतने सुन्दर हैं, मानों जैसे किसी चित्र में रेखांकित किये गये हों। छोटा सा स्टेशन, उसके आसपास कुछ छोटी-बड़ी इमारतें और हरियाली कुछ इस तरह का स्वरूप इन स्टेशन्स का रहता है। १५० किलोमीटर्स से भी अधिक लंबाईवाले इस रेलमार्ग पर कई स्टेशन्स हैं। नुरपुर रोड, भरमार, नंदपुर भिटाली, गुलेर, लुन्सु, ज्वालामुखी रोड़, कांगड़ा रोड़ और अन्य स्टेशन्स भी इस रेलमार्ग पर हैं।

साधारणत: सव्वा तीन सौ मीटर्स की ऊँचाई पर से शुरू हुआ हमारा सफ़र हमें सव्वा हज़ार मीटर्स तक की ऊँचाई तक ले जाता है।

नदियों और घाटियों को पार करते हुए अचानक हमें सामने दिखायी देते हैं, धौलाधार के पहाड़। इनमें से कुछ पहाड़ बर्फ़ का ताज अपने सिर पर पहने हुए रहते हैं, तो कइयों के माथे पर की बर्फ़ पिघलकर नीचे की ओर बहती हुई दिखायी देती है।

इस रेलमार्ग पर से विभिन्न समय पर कई गाड़ियाँ दौड़ती हैं, लेकिन यहाँ का नियम है – एक समय पर एक ही ट्रेन और इसीलिए यह सफ़र देर

तक चलता रहता है। संक्षेप में, इस ट्रेन से सफ़र करना हों, तो कम से कम आपका आधा दिन कुदरती नज़ारों को देखते हुए बड़े आराम से गुज़रेगा यह निश्‍चित है।

हालाँकि कांगड़ा शहर में इस रेल का स्टेशन तो नहीं है, लेकिन कांगड़ा रोड़ यह क़रीबी स्टेशन अवश्य है।

१९२६ में इस रेलमार्ग का निर्माणकार्य शुरू हुआ और १९२९ में यह काम पूरा होकर इस मार्ग पर से रेल की यातायात शुरू हो गयी।

देखिए, बातों बातों में व़क़्त कैसे बीत गया इस बात का पता ही नहीं चला और हमें जहाँ उतरना है, वह स्टेशन भी तो आ ही गया। चलिए, तो हमारे स्टेशन पर पहले उतरते हैं और यहीं से अगला सफ़र शुरू करते हैं।

कांगड़ा के आसपास कई छोटे बड़े मन्दिर हैं। उनमें से कुछ मन्दिर महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। आइए, इनमें से कुछ मन्दिरों के दर्शन करते हैं।

कांगड़ा इला़के का एक महत्त्वपूर्ण मन्दिर है – ‘ज्वालाजी मन्दिर’। कांगड़ा व्हॅली में स्थित इस मन्दिर को देखते ही इसका अनोखापन हमारे ध्यान में आ जाता है।

यह मन्दिर ‘ज्वालामुखी मन्दिर’ इस नाम से भी जाना जाता हैं। ‘ज्वाला’ इस शब्द का संबंध यहाँ की देवता के साथ होगा, ऐसा आप शायद सोच रहे होंगे।

इस मन्दिर में देवी का स्वरूप एक अग्निज्वाला के स्वरूप में है। यहाँ की भूमि में से निरन्तर, दिनरात, साल के ३६५ दिन यह ज्वाला निकलती रहती है और यही यहाँ की प्रमुख देवता का स्वरूप है। इसीलिए इस जगह को ‘ज्वालाजी’ या ‘ज्वालामुखी’ कहा जाता है।

इस स्थल से कई लोककथाएँ एवं आख्यायिकाएँ जुड़ी हुई हैं।

यहाँ पर उपरो़क़्त वर्णन के अनुसार भूगर्भ में से कुल नौ अग्निज्वालाएँ निरंतर निकलती हैं और इन नौ अग्निज्वालाओं को देवी का अवतार मानकर उनकी अर्चना की जाती है।

इस स्थान को शक्तिपीठों में से एक स्थान भी माना जाता है।

कांगड़ा के शासक रहनेवाले कटोच राजवंश के राजा भूमिचंद ने इस मन्दिर का निर्माण किया ऐसा कहा जाता है।

इस संदर्भ में एक कथा भी बतायी जाती है। ये राजा देवीमाता के भक्त थे और सपने में उन्हें यह स्थान दिखायी दिया। राजा ने फिर इस जगह की खोज करने के लिए सैनिकों को भेजा और इस स्थान का पता लगने के बाद राजा ने यहाँ पर मन्दिर का निर्माण किया।

इस मन्दिर से जुड़ी एक और भी कथा है, जो मन्दिर के महत्त्व को अधोरेखित करती है। उत्तरी प्रदेश पर आक्रमण करनेवाले विदेशी आक्रमकों ने उत्तर में अपनी सत्ता स्थापित कर दी। इनमें से किसी एक राजा को जब इस मन्दिर के बारे में जानकारी प्राप्त हुई, तब उसने भूगर्भ में से निरंतर प्रज्वलित हो रही अग्निज्वाला को, जो यहाँ की देवता का स्वरूप है, उसे बुझाने का हुक्म दे दिया। इस काम को करने के लिए उसने यहाँ की अग्निज्वाला पर बड़ा धातु का आवरण डालकर इसे ढँकने का आदेश दिया। मग़र उससे भी इस ज्वाला पर कोई असर नहीं हुआ और वह उसी तरह निरन्तर प्रज्वलित होती रही। फिर उसने जल का प्रयोग करके इसे बुझाने का आदेश दिया। लेकिन उसका भी कोई परिणाम नहीं हुआ। आख़िर वह राजा खुद चलकर यहाँ पर देवी के दर्शन करने आ गया।

इस कथा में आगे कहा गया है कि देवी के दर्शन करने आये राजा ने देवी को कुछ उपहार अर्पण कियें और जाते समय वह घमंड से फूल गया। लेकिन जब घमंड में चूर उस राजा ने वापस मन्दिर की ओर देखा, तब उसके द्वारा अर्पण की गयी स्वर्ण जैसे मूल्यवान धातु की वस्तुएँ भी एक ही पल में साधारण धातु की बन गयीं।

अग्निज्वाला स्वरूप ‘ज्वालाजी’ के दर्शन करके अब हम एक अन्य महत्त्वपूर्ण मन्दिर के दर्शन करने चलते हैं।

वज्रेश्‍वरी मन्दिर’, जिसका ज़िक्र हम कांगड़ा के शुरुआती लेखों में कर ही चुके हैं, वह यहाँ का एक प्रमुख मन्दिर है।

कांगड़ा नगर की शुरुआत जहाँ होती है, वहीं पर यह मन्दिर है।

यह मन्दिर पुराने समय में इसके वैभव के लिए मशहूर था और आक्रमकों ने इस पर हमलें करके यहाँ की अनगिनत दौलत को लूट लिया, इस तरह के उल्लेख इतिहास में मिलते हैं।

यहाँ की प्रमुख देवता हैं – ‘देवी वज्रेश्‍वरी’।

मूल मन्दिर का निर्माण पांडवोंद्वारा महाभारत काल में किया गया ऐसा कहते है। एक दिन पांडवों को देवी ने सपने में दर्शन देकर ‘मेरा स्थान नागरकोट (उस समय कांगड़ा का नाम) में है’, ऐसा कहा और उसके अनुसार पांडवों ने एक रात में इस मूल मन्दिर का निर्माण किया।

जब आक्रमकों ने यहाँ हमला किया, तब उन्होंने यहाँ से स्वर्ण-चाँदी की कई हज़ारों की लूट की, ऐसा इतिहास कहता है।

१९०५ में कांगड़ा में हुए भूकम्प में इस मन्दिर का काफ़ी नुक़सान हुआ, लेकिन उसका पुनर्निर्माण भी बाद में किया गया।

कांगड़ा क़िले की तरह इस मन्दिर के चारों ओर भी एक बड़ी सी चहारदीवारी का निर्माण किया गया था। मन्दिर में प्रवेश करते हुए प्रमुख प्रवेशद्वार के पास ही ऩक़्क़ारखाना दिखायी देता है।

यहाँ देवी के प्रमुख मन्दिर के साथ अन्य कुछ देवताओं के मन्दिर भी हैं।

‘वजे्रश्‍वरी’ इस नाम का संबंध देवी के ‘वज्र’ इस आयुध के साथ है, यह बतानेवाली कई आख्यायिकाएँ एवं कथाएँ भी प्रचलित हैं।

इन कथाओं के अनुसार, असुर जब उन्मत्त बन गयें और सुर एवं मानवों को कष्ट पहुँचाने लगे, तब देवी ने वज्र से असुरों का नाश करके देवताओं एवं मानवों को अभय प्रदान किया।

कुछ आख्यायिकों के अनुसार कलिकाल या कलिकूट नाम के असुर ने जब सारी धरती पर हाहाकार मचा दिया, तब उससे रक्षा करने की प्रार्थना मानवों एवं ऋषियों ने देवी से की। फिर देवी ने उस असुर का नाश करके सभी को भयमुक्त कर दिया। इस संपूर्ण घटना में देवी के ‘वज्र’ इस शस्त्र की अहम भूमिका थी। इसीलिए देवी की ‘वजे्रश्‍वरी’ इस नाम से पूजा-अर्चा की जाने लगी।

अन्य एक आख्यायिका के अनुसार देवीद्वारा इस असुर का निर्दालन किये जाने के बाद उपस्थित सभी ने देवीमाँ से वहीं पर प्रतिष्ठित रहने की विनति की और उसके अनुसार देवीमाँ उस विनति को मानकर वहीं पर प्रतिष्ठित हो गयीं।

इस मन्दिर में विभिन्न उत्सव मनाये जाते हैं और उसमें भी नवरात्रि का उत्सव बड़े धूमधाम के साथ मनाया जाता है।

इन दो प्रमुख मन्दिरों के दर्शन तो हम कर चुके। अब थोड़ासा विश्राम करते हैं और इसी कांगड़ा व्हॅली में एक अनोखा सफ़र करते हैं, यहाँ की संस्कृति और कला का आस्वाद लेते हुए।

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