जुनागढ़ भाग-४

जुनागढ़, इतिहास, अतुलनिय भारत, चिड़ियाघर, गुजरात, भारत, भाग-४

साग, चंदन जैसे पेड़ों में से सड़क जा रही है। जंगल में सन्नाटा है। बीच में ही किसी जानवर की आवाज़ उस सन्नाटे को चीरते हुए हम तक पहुँच रही है। गाड़ी में बैठे हुए हर एक की नज़र ‘उसे’ खोज रही है और उतने में गाड़ी में बैठे किसीको ‘वह’ दिखायी देता है। शानदार चाल और ठाठ, गर्दन के चारों ओर घनी आयाल और आँखों में बिजली की चमक। जी हाँ, यही है वह जंगल का राजा- सिंह।

गीर के अभयारण्य में जानेवाले हर सैलानी की नज़र इस जंगल में प्रवेश करते ही इसी तरह जंगल के राजा को ढूँढ़ती रहती है और उसके दिखायी देते ही यहाँ तक आने के परिश्रम सार्थक हो जाते हैं।

दर असल किसी चिड़ियाघर में भी वन्य जीवों को देख सकते हैं; लेकिन उन्हींके घर में जाकर उनसे मिलने का मज़ा कुछ और ही है।
चलिए, आज हम भी गीर के जंगल की सैर करते हैं। हालाँकि यह इस जंगल के राजा का घर है, लेकिन उसके साथ मुलाक़ात होगी ही ऐसा यक़ीन के साथ कह नहीं सकते।

जंगल सफारी के लिए निकलने का सही व़क़्त है, जब जंगल के जानवर पानी पीने के लिए या शिकार की खोज करने के लिए निकलते हैं, तब। इस समय इन जानवरों को आप देख तो सकते हैं, मग़र उसके लिए भी आपको सब्र रखना पड़ता है।

‘गीर’ अथवा ‘सासन-गीर’ इस नाम से जाना जानेवाला यह नॅशनल पार्क जुनागढ़ से लगभग ६५ कि.मी. की दूरी पर है। गीर मशहूर है, यहाँ के ‘आशियाई सिंहों’ के लिए, जिन्हें ‘गीर के सिंह’ भी कहा जाता है। साथ ही यहाँ पर अन्य वन्य जीव भी है, लेकिन सैलानियों के आकर्षण का केन्द्र रहता है, जंगल का राजा सिंह।

शानदार, डौलदार, बिलकुल राजा की तरह ये सभी विशेषण जिसके संदर्भ में प्रयुक्त किये जाते हैं, वह है यह जंगल का राजा सिंह। उसकी ज़बरदस्त ताकत, बहादुरी और ठाठ के कारण ही उसे ‘जंगल का राजा’ यह सम्मान अपने आप ही प्राप्त हुआ होगा। सिंह यह शक्ति, पौरुष और बहादुरी इनका प्रतीक माना जाता है।

हम भारतीय सिंह से भली भाँति परिचित रहते हैं। अशोक स्तंभ पर रहनेवाले चार सिंहों को तो आपने देखा ही होगा। राजाओं के विराजमान होने के आसन को इसीलिए ‘सिंहासन’ कहते हैं। संक्षेप में, भारत के सामाजिक जीवन में ‘सिंह’ इस शब्द एवं आकृति को सम्मान का स्थान है।

वेद, पुराण और अन्य वाङ्मय में सिंह के कई उल्लेख मिलते हैं। ‘मातृवात्सल्यविन्दान’ में देवीमाता का वाहन रहनेवाले देवीसिंह परमात्मा का वर्णन है।

इससे हमारी समझ में आता है कि भारतीय जनमानस पर ‘सिंह’ इस मुद्रा एवं शब्द का काङ्गी प्रभाव है और इसीलिए निर्भयता का प्रतीक रहनेवाले इस सिंह का नाम भारतीय पुरुष अपने नाम के आगे गौरवपूर्वक लगाते हैं।

अब आइए, सिंह से परिचित होने के बाद ‘आशियाई सिंह’ के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं।

‘आशियाई सिंह’ इस नाम से जाने जानेवाले गीर के सिंह को शास्त्रीय भाषा में ‘पँथेरा लिओ पार्शिका’ कहा जाता है। सिंह यह मार्जार (बिल्ली) वर्ग का प्राणि है। इस आशियाई सिंह (एशियाटीक लायन) के अलावा भारत में इस मार्जारवर्ग के प्राणियों की अन्य तीन प्रजातियाँ भी पायी जाती हैं। दर असल इस आशियाई सिंह का आवास पुराने ज़माने में भूमध्य प्रदेश से लेकर भारत तक था। लेकिन बीच की अवधि में इस प्राणि की बेतहाशा की गयी शिकार, प्रदूषण, विशेष रूप से जलप्रदूषण और जंगलों की बेशुमार कटाई इन कारणों से इन सिंहों की संख्या काफ़ी घट गयी। जंगलकटाई के कारण इन सिंहों को उनका अन्न यानि कि शिकार मिलना भी मुश्किल हो गया था। आज इन सिंहों का ठिकाना केवल गीर के जंगल तक ही सीमित रह गया है। अर्थात् गीर का अभयारण्य यह इन आशियाई सिंहों का एकमात्र आवासस्थल है।

आज इस गीर के जंगल में लगभग ४११ सिंह हैं, ऐसा कहा जाता है।

यह आशियाई सिंह उसके अफ्रीकी भाइयों की अपेक्षा कुछ अलग है। अफ्रीकी सिंह से कम लंबाई एवं वजन होते हुए भी यह उसके जितना ही कार्यक्षम है। आशियाई सिंहों में से ‘नर’ सिंह का वजन १५० किलो से अधिक रहता है और मादा का १०० किलो से अधिक। पूरी तरह ब़ढ़े हुए नर की लंबाई ३००-३५० मि.मी. रहती है, वहीं मादा की लगभग २५० मि.मी.।

बहुत ही निर्भय रहनेवाला यह प्राणि अक़सर झुंड में टहलता हुआ दिखायी देता है। झुंड में दुलकी चाल से दौड़नेवाले, मस्ती करनेवाले सिंह के श्यावक बहुत ही सुन्दर दिखते हैं। अपनी शिकार को अचूकतापूर्वक पकड़नेवाले सिंह की कला देखने लायक होती है।

गीर के इस अभयारण्य में कभी आपको सुकून से बैठा हुआ कोई सिंह दिखायी देगा या कभी किसी दौड़ते हुए हिरन का पीछा करके उसपर अपनी पकड़ जमानेवाला सिंह भी दिखायी देगा।

१४१२ वर्ग कि.मी. इतने विशाल भूभाग पर फैला हुआ यह गीर का अभयारण्य इन ‘आशियाई सिंहों’ के लिए संरक्षित वनक्षेत्र है।

पूर्वोक्त कारणों के साथ साथ प्राकृतिक आपदाएँ, संक्रामक रोग ये भी सिंहों की संख्या के घटने के कारण हैं।

राजा-महाराजा और अँग्रेज़ अ़फसर इनकी शिकार करने के लिए इन जंगलों में जाते थे। इसी समय जुनागढ़ के शासकों के मन में इनकी घटती हुई संख्या और इस प्रजाति के विनाश का खतरा इनके कारण चिन्ता उत्पन्न हो गयी। इसी वजह से १९वीं सदी के पूर्वार्ध में जुनागढ़ के शासकों ने इस गीर के वनक्षेत्र को और विशेष रूप से यहाँ के सिंहों को संरक्षित घोषित किया। आगे चलकर १९६५ में ‘गीर के अभयारण्य’ की यानि कि ‘सासन-गीर नॅशनल पार्क’ की स्थापना की गयी।

इन सिंहों की सुरक्षा करना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि इनकी संख्या बढ़ाने की दृष्टि से विशेष प्रयास करना ज़रूरी है, इस विचार के साथ विभिन्न प्रयोग किये गये। जुनागढ़ के ही सक्करबाग़ चिड़ियाघर में इसी प्रक्रिया में आशियाई सिंहों की पैदाइश की गयी। गीर के जंगल में एवं सक्कर बाग़ में की गयी इन कोशिशों की सङ्गलता सिंहों की बढ़ी हुई संख्या में दिखायी देती है। १९६८ में यहाँ पर केवल १७७ सिंह थे।

ऊपरोक्त प्रयोगों तथा कोशिशों के कारण १९७९ के आसपास सिंहों की संख्या ने २०० को पार किया। १९९५ के आसपास ३०० और २००५ के आसपास ३५० तक यह संख्या पहुँच गयी। आज यानि कि २०१० में यह संख्या ४११ है, ऐसा कहा जाता है।

जिस तरह इन्सानों की जनगणना की जाती है, उसी तरह हर पाँच वर्ष बाद यहाँ के सिंहों की गिनती की जाती है। इस कार्य के लिए पुराने समय से चली आ रही सिंहों के पैरों के निशान (पगमार्क्स) इस पद्धति का उपयोग किया जाता है अथवा आँखों से देखे गये सिंहों की संख्या दर्ज़ की जाती है।

साग, चंदन के साथ साथ कई प्रकार के पेड़-पौधें यहाँ पर पाये जाते हैं। यहाँ पर सभी ऋतु ठीक समय पर दस्तक देते हैं। अत एव यहाँ की सैर करने के लिए दिसंबर से अप्रैल तक का समय सुविधाजनक है, ऐसा कहा जाता है।

इस गीर के अभयारण्य में कुल सात नदियाँ हैं, जिनपर चार बाँध (डॅम्स) भी बनाये गये हैं। बारिश को छोड़कर अन्य समय में यही यहाँ का जलस्रोत रहता है।

हालाँकि यहाँ पर सैलानी सिंह को देखने के प्रमुख उद्देश्य के साथ आते हैं; लेकिन सिंह के साथ साथ अन्य जानवर भी यहाँ पर आप देख सकते हैं। भालू, लकड़बग्घा, सियार, लेपर्ड, नेवला, जंगली बिल्ली और कई तरह के हिरन इन्हें आप यहाँ पर देख सकते हैं। चीतल हिरन, नील गाय, बारहसिंगा (साँभर), चिंकारा और करसायल (काला हिरन) इन जैसे मासूम जानवर भी कभी कभी सिंह की शिकार होते हुए दिखायी देते हैं।

रेंगनेवाले प्राणियों की कई प्रजातियों में साँप, मगरमच्छ और अजगर यहाँ पर हैं। यहाँ पर घने जंगल में मगरमच्छों का पुनरुत्पाद कर उनकी प्रजाति को बचाने की कोशिशें की जा रही हैं।

गीर यह जिस तरह ऊपरोक्त जानवरों का आवासस्थल है, उसी तरह अनगिनत पंछियों का भी यहाँ पर बसेरा है। विभिन्न आकार के, रंगों के, आवाज़ के, विशेषताओं के पंछी यहाँ पर आते जाते रहते हैं। लेकिन यह सब देखने के लिए तजुर्बेकार मार्गदर्शक की ज़रूरत है।

सिंह साधारण रूप से दिन भर धूप के कारण विश्राम करता है और दिन ढल जाने के बाद रात को शिकार की खोज में बाहर निकलता है। इसीलिए रात के या भोर के समय में सिंह को आसानी से देखा जा सकता है।

गीर के जंगल के इस सैरसपाटे में शिकार की खोज में निकला हुआ या हाल ही में शिकार करके भरे पेट आराम से लेटा हुआ सिंह अचानक दिखायी देता है। चंद कुछ ही ङ्गीट की दूरी से हम उसे अपने आँखों से देखते हैं। जंगल के राजा के इस तरह यकायक उसीके घर में हमारे सामने आ जाने पर थोड़ा बहुत डर, खुशी, ताज्जुब इस तरह के सभी भाव मन में एकसाथ उमड़ने लगते हैं और पलक झपकाये बिना ही बस उसे, उसकी शान को जी भरकर देखते रहें, इतना ही मन में आता है।

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