इंफाल भाग – २

मणिपुर की सारी शासनव्यवस्था इंफाल के इस ‘कांगला क़िले’ में से ही चलायी जाती थी। अंग्रे़जों के पूर्व के शासक तथा अंग्रे़जों ने भी शासन करने के लिए कांगला क़िले का अच्छाख़ासा उपयोग किया।

imphal-(2) - ‘कांगला क़िले’

यह कांगला क़िला राजकीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण तो था ही, साथ ही वहाँ के विभिन्न देवताओं के स्थान के कारण मणिपुर की जनता के लिए यह एक श्रद्धास्थान भी था।

इस कांगला क़िले में बसकर ‘पाखेंग्बा’ (पाबेंग्बा) सारे विश्‍व का कारोबार चलाते हैं, ऐसी मणिपुरवासियों की श्रद्धा है, यह हम गत लेख में देख ही चुके हैं। मणिपुरवासी मानते हैं कि पाखेंग्बा (पाबेंग्बा) ये परमेश्वर के पुत्र हैं। मणिपुर में परमेश्वर को ‘गुरु’ कहते हैं। पाखेंग्बा (पाबेंग्बा) दुनिया का कारोबार चलाने के साथ साथ सभी लोगों की सुरक्षा भी करते हैं और उन्हींसे मणिपुर के राजवंश की शुरुआत हुई है, ऐसा भी माना जाता है। पाखेंग्बा (पाबेंग्बा) कांगला क़िले के एक तालाब में रहते हैं ऐसी धारणा है। यह तालाब ‘नुंगजेंग पुखरी’ इस नाम से जाना जाता है। इस तालाब के अलावा इस क़िले में अन्य भी कुछ पवित्र तालाब हैं, जहाँ पर धार्मिक विधि किये जाते हैं।

इस क़िले में ‘नुंग्गोइबी’ नाम की जगह यह युद्धदेवता की पूजा का स्थल है। मणिपुर के राजा युद्ध में जीत प्राप्त करने के बाद यहाँ पर धार्मिक विधि करते थे।

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अच्छी बारिश हो, बाढ़-भूचाल जैसी प्राकृतिक आपदाओं से हम सुरक्षित रहें, ये इच्छाएँ सिर्फ पुराने समय के मानव के ही मन में नहीं थीं, बल्कि आज के युग के मानव के मन में भी हैं। कुदरत को मात देना, यह इन्सान के बस की बात नहीं है और इसीलिए प्राकृतिक कोप से बचने के लिए मानव ने प्रकृति और उससे सम्बन्धित देवताओं की प्रार्थना करना शुरू कर दिया। कांगला के इस क़िले में कुछ स्थानों पर इन प्राकृतिक आपदाओं से रक्षा हो और प्रकृति का चक्र सुचारू रूप से चलता रहे, इस उद्देश्य से प्राचीन समय से धार्मिक विधि किये जाते थे।

इस कांगला के पास ही एक महत्त्वपूर्ण धार्मिक स्थान है। यह स्थान है ‘श्रीगोविंदजी का मन्दिर’। मणिपुर में महाविष्णु की उपासना की जाती है। मणिपुर के राजवंश ने स्वयं वैष्णव धर्म का स्वीकार किया था। वैष्णव धर्म का स्वीकार करने के बाद विष्णु यह उनके और वहाँ की जनता के उपास्य देवता बन गये।

१८ वी सदी के प्रारम्भ में मणिपुर के राजा ने श्रीगोविंदजी के इस मन्दिर का निर्माण किया। इस मन्दिर के निर्माण में दो कलशों की रचना की गयी। यह मन्दिर साधारण-सा होने के बावजूद भी सुंदर है। इस मन्दिर में होली के उत्सव के दौरान बहुत बड़ी संख्या में लोग आते हैं। मणिपुर में होली को ‘यौशांग दलजत्रा’ कहते हैं। होली उत्सव के दौरान यहाँ के निवासी लोकनृत्य करते हैं।

मणिपुर और मणिपुर के इंफाल जैसे शहर में और विशेष तौर पर छोटे-मोटे गाँवों में लोकनृत्य का अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। यहाँ के निवासियों के लिए लोकनृत्य यह उनके जीवन का एक अविभाज्य घटक है। इसीलिए किसी भी खुशी के मौ़के पर खुशी जाहिर करने के लिए नृत्य इस माध्यम का ही उपयोग किया जाता है। हमारे भारत के लगभग हर एक प्रान्त मे प्राचीन समय से इस तरह के कईं लोकनृत्य होते रहते हैं। मणिपुर जैसे प्रान्त में आज भी लोकनृत्य किये जाते हैं।

मणिपुर में और उसके आसपास के असम, त्रिपुरा, बंगाल इन प्रदेशों में भी मणिपुरी नृत्य किये जाते हैं। कथ्थक, भरतनाट्यम् जैसी ही ‘मणिपुरी’ यह एक महत्त्वपूर्ण नृत्यशैली है। आज इस मणिपुरी नृत्यशैली का प्रशिक्षण देनेवाले कॉलेजेस् इंफाल और भारत के अन्य प्रान्तों में भी हैं।

मणिपुरी नृत्यशैली के बारे में यह कहा जाता है कि अर्जुन यह इस नृत्यशैली का प्रवर्तक था। अर्जुन ने चित्रांगदा को यह नृत्य सिखाया और उसने मणिपुर में इसका प्रसार किया। इसवी १२ वी सदी में मणिपुर के ‘खंबा’ नामक राजकुमार और ‘थोइबी’ नामक राजकुमारी ने मणिपुरी नृत्यशैली का विशेष प्रसार किया, ऐसा माना जाता है।

जैसे जैसे मणिपुर में विष्णुभक्ति का प्रसार होता रहा, वैसे वैसे मणिपुरी नृत्य पर भी उसका असर होता रहा। ईश्वर से मिलने की उत्सुकता, ईश्वर के अस्तित्व की खुशी को महसूस करना और उस खुशी को मनाना तथा ईश्वर के साथ तदात्मता का अनुभव करना, इन जैसे आशयों को मणिपुरी नृत्य द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। इन नृत्यों में से ईश्वरभक्ति का भाव अभिव्यक्त होता है।

मणिपुरी नृत्यशैली में कई नृत्यों का समावेश होता है। उनमें से ‘लाइहरोबा, रासलीला, इशरिचोलम्, नामकीर्तन’ आदि नृत्य प्रमुख हैं।
मणिपुरी नृत्यशैली की विशेषता यह है कि इस नृत्य के साथ वाद्यों की संगत करनेवाले वादक भी स्वयं कुशल नर्तक होते हैं और वे वाद्यों को बजाते हुए अत्यन्त तालबद्ध नृत्य करते हैं। इस नृत्य में शरीर-अवयवों की सुन्दरतापूर्ण, लयबद्ध और नाज़ूक हरकतों द्वारा भावों को अभिव्यक्त किया जाता है। नर्तकों की पोषाकें रंगबिरंगी और आकर्षक रहती हैं। इन नृत्यों की साथसंगत करने के लिए खोल, पुंग (मणिपुरी मृदुंग), शंख, बाँसुरी, हार्मोनियम आदि वाद्यों का उपयोग किया जाता है। नृत्यको पेश करने के लिए जिन रचनाओं का अर्थात् भक्तिकाव्यों का उपयोग किया जाता है, वे रचनाएँ जयदेव, गोविंददास, विद्यापति आदि जैसे रचनाकारों की रहती हैं और ये रचनाएँ संस्कृत, मैथिली, ब्रजभाषा आदि जैसी किसी भी भाषा की हो सकती हैं।

इस मणिपुरी नृत्यशैली का उद्गम दूसरी सदी के राजा ‘खुयोई तोम्पोक’ के शासनकाल में हुआ ऐसा माना जाता है। उसके बाद के राजाओं के शासनकाल में यह नृत्यशैली विकसित होती रही, लेकिन १८ वी सदी के अन्त के शासक भाग्यचंद्र राजा के शासनकाल में यह नृत्यशैली काफी विकसित हुई।

इसी राजा के शासनकाल में ‘रासलीला’ इस नृत्यप्रकार का आयोजन किया जाने लगा। ‘रासलीला’ इस नृत्य का भाव यह होता है कि श्रीकृष्णपरमात्मा से मिलने के लिए जीव व्याकुल हो जाता है और उन्हें ढूँढ़ने लगता है और अन्त में वह उन परमात्मा के साथ एकरूप हो जाता है। यह रासलीला लगभग छः-सात घण्टों तक चलती है और इसमें कृष्ण की भूमिका करनेवाले बालक की उम्र १० से लेकर १२ वर्ष तक ही रहती है। इससे अधिक उम्र का बालक इस रासनृत्य में श्रीकृष्ण की भूमिका नहीं कर सकता, ऐसा इस नृत्य का नियम है।

इस रासनृत्य के वसंतरास, कुंजरास, महारास और नित्यरास ये चार प्रकार हैं और विभिन्न समय पर उन्हें प्रस्तुत किया जाता है।
‘लाइहरोबा’ का अर्थ है, देवताओं के साथ आनन्द की अनुभूति प्राप्त करना। कृषिदेवता की कृपाप्राप्ति के लिए यह नृत्य किया जाता है। खेत में बोआई करने से पहले एक महीने तक यह नृत्य किया जाता है। इसमें स्त्री और पुरुष दोनों का समावेश रहता है।

इस मणिपुरी नृत्यशैली को मणिपुर के अलावा अन्य प्रान्तों में प्रचलित करने में रविंद्रनाथजी टागोर का काफी योगदान रहा है। २० वी सदी में इस नृत्यप्रकार को देखकर प्रभावित हो चुके टागोरजी ने इस नृत्य का प्रशिक्षण देनेवाले नृत्यगुरुओं को शान्तिनिकेतन आने के लिए आमन्त्रित किया। इस तरह मणिपुरी नृत्य का प्रचार-प्रसार मणिपुर के बाहर होने लगा।

१९५४ में इंफाल में इस मणिपुरी नृत्यशैली का प्रशिक्षण देनेवाली एक नृत्यसंस्था की स्थापना की गयी। स्थापना के समय इस संस्था का नाम था, ‘मणिपुर डान्स कॉलेज ऑफ इंफाल’, जिसे आगे चलकर बदल दिया गया।

मणिपुर के वातावरण में इस नृत्यशैली को यदि महत्त्वपूर्ण माना जाता था, तब भी वहाँ पर स्कूली शिक्षा के बारे में काफी उदासीनता थी। ऐसा माना जाता है कि इसवी १८५५ तक मणिपुर में स्कूली शिक्षा प्रदान करनेवाली स्कूल ही नहीं थी। अत एव सर्वसामान्य समाज शिक्षा से वंचित ही रह गया था और शिक्षा के अभाव के कारण बाहरी दुनिया में होनेवाली परिवर्तन की ते़ज प्रक्रिया से यह समाज अपरिचित था।

लेकिन आज ये हालात पूरी तरह बदल चुके हैं। इंफाल जैसे मणिपुर की राजधानी के शहर में तथा अन्य शहरों और गाँवों में स्कूली शिक्षा आसानी से उपलब्ध हो चुकी है। शिक्षा के प्रसार के कारण आज यहाँ की जनता आसानी से जागतिक धारा में शामिल हो चुकी है।

इस शिक्षा का प्रभाव कहिए या परंपरागत व्यवस्था का एक हिस्सा कहिए, इंफाल में एक सम्पूर्ण मार्केट सिर्फ महिलाओं द्वारा ही चलाया जाता है। इस मार्केट में सभी की सभी दुकानें केवल महिलाओं की ही हैं और वे ही उन्हें चलाती हैं। यह मार्केट ‘इमा कैथेल’ इस नाम से जाना जाता है। है ना यह भी एक विशेषता!

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