इंफाल भाग – ३

 

इंफाल यह शहर द्वितीय विश्‍वयुद्ध का गवाह है। द्वितीय विश्‍वयुद्ध के दौरान इस शहर में प्रत्यक्ष रूप से जंग छिड़ी थी। जिस तरह इंफाल का नाम द्वितीय विश्‍वयुद्ध के साथ जुड़ा हुआ है, उसी तरह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और उनकी ‘आज़ाद हिन्द सेना’के साथ भी जुड़ा हुआ है।

imphal- द्वितीय विश्‍वयुद्ध

यही है वह इंफाल की भूमि, जहाँ पर हुई जंग में यदि आज़ाद हिन्द सेना जीत जाती, तो क़ाश इतिहास में एक नया ही मोड़ आ जाता। दूसरे विश्‍व युद्ध की यह जंग ‘इंफाल की जंग’ इस नाम से जानी जाती है।

भारत को आज़ादी मिलनी ही चाहिए इसी विचार के साथ अपने आप को स्वतन्त्रता के आंदोलन में झोंक देनेवाले सुभाषबाबू भारत से आश्‍चर्यकारक रूप से गायब हो गये। भारत के बाहर जाकर नेताजी ने इटली और जर्मनी के कब़्जे में रहनेवाले भारतीय फौजीयों के साथ बातचीत कीं। उस समय भारत आ़जाद न होने के कारण ये भारतीय फौजी अंग्रे़जों की फ़ौज में से लड़ रहे थे। इन फौजीयों की सहायता से सुभाषचन्द्रजी ने ‘आ़जाद हिन्द सेना’ की स्थापना की।

उसी दौरान जापान ने भी द्वितीय विश्‍वयुद्ध में हिस्सा लिया और भारत की आ़जादी का निदिध्यास लिए हुए सुभाषचन्द्रजी जापान पहुँच गये। उस समय जापान के प्रधानमन्त्रीजी ने उनके सामने इस तरह की योजना प्रस्तुत की – जापान भारत पर आक्रमण करके अंग्रे़जों को खदेड़ देगा, लेकिन युद्ध के ख़त्म हो जाने तक हिन्दुस्थान को जापान के पक्ष में ही लड़ना होगा और युद्ध ख़त्म हो जाने के बाद भारत आ़जाद हो जायेगा।

इस तरह नेताजी की आ़जाद हिन्द सेना अब अपनी मातृभूमि को अर्थात् भारत को आ़जाद करने के लिए जापान के साथ जंग में उतरने के लिए तैयार हो गयी। जापानी सेना के साथ आ़जाद हिन्द सेना का पहला दल युद्धभूमि की ओर प्रस्थान कर रहा था। उन्हें सम्बोधित करते हुए सुभाषचन्द्रजी ने कहा कि खून खून को आवाज दे रहा है। तैयार हो जाइए। या तो हम दुश्मन को मार गिरायेंगे या फिर शहीद हो जायेंगे।

इस जंग में जिन भारतीय प्रदेशों पर विजय प्राप्त की जायेगी, उन प्रदेशों पर आ़जाद हिन्द सेना की ही हु़कूमत रहेगी, यह बात नेताजी ने सुस्पष्ट रूप से जापान के प्रधानमन्त्रीजी से कही ही थी। मार्च १९४४  में आ़जाद हिन्द सेना और जापानी सेना उनकी मुहिम में यशस्वी होकर भारत की सीमा तक आकर दाखिल हो गये और जापान के प्रधानमन्त्रीजी ने यह घोषित कर दिया कि जिन भारतीय प्रदेशों को जीत लिया गया है, उनपर आ़जाद हिन्द सेना की हु़कूमत रहेगी। मार्च १९४४  में इंफाल की मुहिम शुरू हो गयी। इस इंफाल की मुहिम में बहुत सारी कठिनाइयाँ थीं। यह इलाक़ा पहाड़ी इलाक़ा था। साथ ही, उस समय बारिश भी शुरू हो गयी। बारिश से नदी-नालें भरकर बहने लगे और सेना तक रसद पहुँचाने में दिक्कतें पेश आने लगीं। साथ ही संक्रामक बीमारियों से फौजी बाधित हो गये। इन हालातों में जागतिक युद्ध ने भी एक अलग मोड़ ले लिया, जिसमें ब्रिटन, अमरिका और रशिया का वर्चस्व स्थापित होने लगा। इंफाल की ब्रिटीश सेना को भी समय समय पर जरूरी सहायता मिलती रही और इसी वजह से जापानी सेना और आ़जाद हिन्द सेना के जीत के इरादे नाक़ाम हो गये। आ़जाद हिन्द सेना की इंफाल मुहिम की असफलता के कारण भारत की आ़जादी का ख्वाब बस् ख्वाब ही रह गया।

यहाँ पर वीरगति को प्राप्त हो चुके फौजीयों की यादों को स्मारक के रूप में जतन किया गया है।

द्वितीय विश्‍वयुद्ध के फौजीयों की तरह ही अंग्रे़जों के साथ युद्ध करनेवाले मणिपुर के वीरों की यादों को भी इंफाल में जतन किया गया है। मणिपुर में १८९१ में अंग्रे़जों के खिलाफ पहली जंग छिड़ गयी थी। इस संग्राम के योद्धाओं की यादों को ‘शहीद मिनार’ के रूप में बीर तिकेंद्रजित उद्यान में जतन किया गया है।

इंफाल और मणिपुर के इला़के में जो भाषा प्रचलित है, उसे ‘मैतैरोल’ कहा जाता है। यह ‘मैतैरोल’ या मणिपुरी भाषा कितनी प्राचीन है, इसकी जानकारी तो उपलब्ध नहीं है; लेकिन कुछ विद्वानों की राय है कि प्राचीन समय में इस भाषा की लिपि अस्तित्व में नहीं थी और इस भाषा में केवल देवताओं से की जानेवाली प्रार्थनाएँ उपलब्ध थीं, अन्य किसी भी प्रकार का साहित्य उपलब्ध नहीं था। पाखेंग्बा राजा के शासनकाल में इस भाषा को लिपि प्राप्त हुई।

इस ‘मैतैरोल’ भाषा के बारे में एक किंवदन्ती है। अतिया गुरुशिदबा अर्थात् शिवजी ने, हरिचक अर्थात् सत्ययुग में इस मणिपुर की भूमि का निर्माण किया। उसके बाद उन्होंने सनामही और पाखेंग्बा इन दो पुत्रों को मणिपुरी भाषा में शिक्षा दी और साथ ही अपने शिष्यों को शिवजी ने शिबिगा अर्थात् शिवाज्ञा नामक धर्मग्रन्थ की भी शिक्षा प्रदान की। शिवजी ने उन्हें सर्वप्रथम जिस अक्षर की शिक्षा प्रदान की, उसे ‘शिबाखर’ अर्थात् शिवजी का अक्षर कहा जाता है। शिवजी ने उनके शिष्यों तथा पुत्रों को यह वर प्रदान किया कि इस अक्षर का ज्ञान होने के साथ ही उन्हें समस्त साहित्य का ज्ञान हो जायेगा। मणिपुरी भाषा तथा लिपि का उद्भवकाल यही समय माना जाता है।

प्राकृतिक सुन्दरता से परिपूर्ण होनेवाले इंफाल का नाम एक और बात के साथ जुड़ा हुआ है और वह है, एक खेल। आज के आधुनिक युग में हम ‘पोलो’ इस खेल के बारे में जानते हैं। इंफाल में पोलो का सबसे पुराना ‘पोलो ग्राऊंड’ विद्यमान है।

कहा जाता है कि १९ वी सदी में मणिपुर में ‘पोलो’ इस खेल की सर्वप्रथम शुरुआत हुई। मणिपुर के हर गाँव गाँव में वहाँ के स्थानीय लोग ‘पोलो’ खेलते हैं।

कांगला के क़िले में उस समय के राजाओं को पोलो खेलने के लिए एक मैदान था, वहीं कांगला क़िले के बाहर भी पोलो का दूसरा एक मैदान है, जो अन्य लोगों के लिए है। यह पोलो मैदान आज भी विद्यमान है और वहाँ पर आज भी पोलो खेला जाता है।

मणिपुर में पहले पोलो खेलने के लिए इस्तेमाल किया जाता था बेंत की लाठियों और बाँस की जड़ों से बनी गेन्दों का । पोलो के खिलाड़ी टट्टुओं की पीठ पर बैठकर यह खेल खेलते थे। अर्थात् आज भी पोलो वहाँ पर खेला जाता है।

इंफाल को प्रकृति का वरदान प्राप्त हुआ है, अत एव यहाँ पर वनसम्पदा और प्राणिसम्पदा विपुल प्रमाण में है और वह विशेषतापूर्ण भी है।

यह पहाड़ी इलाक़ा होने के कारण और यहाँ की बारिश के कारण यहाँ पर ऑर्किड्स की विभिन्न प्रजातियाँ पायी जाती हैं। दरअसल ऑर्किड्स ये ‘परजीवी (परगाछा)’ वनस्पतियाँ हैं अर्थात् वे दूसरे किसी पेड़ पर  बढ़ती हैं और अपने पोषण के लिए आवश्यक अन्नरस का शोषण उसी पेड़ से करती हैं। पहले तो इन ऑर्किड्स की ओर कोई ध्यान नहीं देता था। लेकिन इन परजीवी ऑर्किड्स को उनके पुनरुत्पादन के लिए कुदरत ने बहुत ही सुन्दर तथा आकर्षक, लेकिन सुगन्धरहित फूल प्रदान किये हैं। इन फूलों के रंगों के कारण आज इन फूलों की मार्केट में बड़ी माँग है, क्योंकि ये फूल भी इक्के-दूक्के न होते हुए समूह में होते हैं। इन फूलों की बढ़ती हुई माँग के कारण आज ऑर्किड्स की विभिन्न प्रजातियों का संवर्धन एवं संशोधनकार्य शुरू हो गया है।

इंफाल के ‘खोंगाम्पात ऑर्किडेरियम’ में ऑर्किड्स की सौ से भी अधिक दुर्लभ प्रजातियाँ हैं। ऑर्किड्स के ये फूल अप्रैल और मई के महीनों में खिलते हैं और उस समय इस ऑर्किडेरियम में विभिन्न खूबसूरत रंगों को हम देख सकते हैं।

इंफाल के ‘मणिपुर झुऑलॉजिकल गार्डन’ में ‘संगाई’ नाम का एक ख़ास, लेकिन दुर्लभ ऐसा हिरन मौजूद है।

मणिपुर के अब तक के इतिहास को म्युझियम के रूप में इंफाल में जतन किया गया है। ऐतिहासिक दस्तावे़ज, युद्ध में इस्तेमाल किये जानेवाले शस्त्र, प्राचीन समय में इस्तेमाल किये जानेवाले मणिपुर के पोषाक़ और साथ ही वहाँ के वनदेवता, इनकी पहचान इस म्युझियम के माध्यम से होती है।

इंफाल और मणिपुर के अन्य प्रान्तों के लोग उनकी बुनाई के लिए मशहूर हैं। दरअसल बुनाई करना यह उनका प्रमुख व्यवसाय है। इस वस्त्र-उद्योग के साथ साथ यहाँ के स्थानीय लोग उनकी हस्तकुशलता के लिए भी मशहूर हैं। बाँस और बेंत से विभिन्न आकर्षक वस्तुओं का निर्माण किया जाता है। प्रतिदिन के काम में आनेवालीं वस्तुओं से लेकर किसी उत्सव के लिए उपयोगी होनेवालीं वस्तुओं तक सभी वस्तुओं का निर्माण बाँस और बेंत से किया जाता है।

इंफाल से कुछ ही दूरी पर स्थित ‘लोकतक’ सरोवर यह नैऋत्यी भारत का सबसे बड़ा मीठे जल का सरोवर है। इस सरोवर में स्थित जललताएँ, जलवनस्पतियाँ इनके सरोवर पर तैरनेवाले छोटे छोटे टूकड़े छोटे छोटे द्वीपों जैसे प्रतीत होते हैं, जिन्हें ‘फुमडी’ कहा जाता है।

रंगबिरंगे नाज़ूक ऑर्किड्स को जन्म देनेवाली, कृष्णभक्ति में तल्लीन हो जानेवाली और अंग्रे़जों के खिलाफ संघर्ष करनेवाले योद्धा जिसकी कोख से पैदा हुए, ऐसी यह सुन्दरता, भक्तिरस और वीररस का अनोखा संगम होनेवाली इंफाल की भूमि।

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