नेताजी सुभाषचंद्र बोस – १४

 नेताजी सुभाषचंद्र बोस
नेताजी सुभाषचंद्र बोस

फ़ौजी भर्ती के लिए अख़बारों में आवाहन प्रकाशित होने के बाद वहॉं अपनी क़िस्मत आ़जमाने का ख़याल सुभाष के दिल में आया। उसे पहले से ऐसे जोशभरी और हमेशा ‘हॅपनिंग’ रहनेवालीं बातों का आकर्षण हुआ करता था। इसलिए उसने इस बात का भी अनुभव करने की ठान ली और वह निर्देशित समय पर युनिव्हर्सिटी आ पहुँचा। वहीं सुभाष की युद्धभूमि का प्रत्यक्ष अनुभव लिये हुए एक सेनाधिकारी से मुलाक़ात हुई। उसने जिस प्रकार युद्ध के रोमांचकारी क़िस्से सुभाष को बताये, उसके कारण सुभाष का हौसला और भी बढ़ गया। तब तक बंगाल के गक्रान्तिकारी आन्दोलन की पार्श्‍वभूमि के कारण बंगाली युवाओं को फ़ौज में प्रवेश नहीं मिलता था। लेकिन अब सरकार भी विश्‍वयुद्ध की चपेट में आ जाने के कारण उसके सामने और कोई चारा भी तो नहीं था। पहली बार ही यह सुनहरा अवसर प्राप्त होने के कारण बंगाली युवाओं ने भी बड़ी उत्स्फूर्तता से इस आवाहन को जोरदार प्रतिसाद दिया।

सुभाष की अंगलेट सुदृढ़ तथा तगड़ी होने के कारण वह शारीरिक जॉंच में आसानी से पास हो गया। लेकिन मुख्य अड़चन चष्मे की थी और उसी बहाने आँख के डॉक्टर ने उसे ‘फेल’ कर दिया।

इस तरह युद्धभूमि पर जाने का मौक़ा हाथ से जाने पर वह मायूस हो गया। लेकिन एक दरवा़जा बन्द हो गया, तो दूसरा खुल गया। उसने कॉलेजप्रवेश के लिए जो कोशिशें जारी रखी थीं, वे सफल हो गयीं। कोलकाता युनिव्हर्सिटी के कुलगुरु सर आशुतोष मुखर्जी की सिफ़ारिश पर उसे कोलकाता युनिव्हर्सिटी से कॉलेजप्रवेश के लिए अनुमति मिल गयी। वह ‘तत्त्वज्ञान’ विषय लेकर ही बी.ए. करना चाहता था और वह विषय आम तौर पर हर किसी कॉलेज में पढ़ाया नहीं जाता था। पुरानी यादों से ऊबकर वह वापस प्रेसिडेन्सी कॉलेज जाना नहीं चाहता था। आख़िर स्कॉटिश चर्च कॉलेज उसे सभी दृष्टि से अच्छा लगा। वहॉं पर ‘तत्त्वज्ञान’ यह विषय भी था और वह सरकारी कॉलेज भी नहीं था। मिशन द्वारा संचालित कॉलेज रहने के कारण वहॉं पर सरकारी पाबन्दियॉं भी कुछ ख़ास नहीं थीं। सुभाष जाकर वहॉं के प्राचार्य डॉ. ऊर्कहार्ट से मिला और उनसे पिछली सारी हक़ीक़त बयान कर दी। किसी भी संभाषण में वह अपना पक्ष तर्कशुद्धता से पेश करता हुआ रहने के कारण सामनेवाले व्यक्ति पर उसका बहुत ही अच्छा असर पड़ता था। ख़ासकर इस मामले में उसका पक्ष सत्य का होने के कारण वह प्राचार्य को रास आया और वे उसे अपने कॉलेज में दाख़िला देने के लिए तैयार हो गये; लेकिन उससे पहले उन्होंने उसे अपने पूर्व कॉलेज से ‘नो-ऑब्जेक्शन’ सर्टिफिकेट ले आने के लिए कहा।

फिर सुभाष जाकर जेम्स की जगह नियुक्त किये गये प्रेसिडेन्सी कॉलेज के प्राचार्य विल्सन से मिला और उनसे भी सारी हक़ीक़त बयान की। उन्हें भी सुभाष का पक्ष सही प्रतीत हुआ और एक छोटीसी घटना के कारण इस लड़के की सारी जिन्दगी बरबाद नहीं होनी चाहिए, यह भूमिका लेते हुए उन्होंने सुभाष को ‘नो-ऑब्जेक्शन’ सर्टिफिकेट देने का क़बूल किया।

इस तरह डेढ़-दो सालों के विजनवास के बाद पिछली सारी बातों को पीछे ही छोड़कर सुभाष ने फिर से कॉलेज में कदम रखा और पुनः दृढ़निश्‍चय के साथ पढ़ाई शुरू की। उसकी कुशाग्र बुद्धिमत्ता तथा साफ़ मन के कारण वह कुछ ही दिनों में प्राचार्य का प्रिय छात्र बन गया। वे खुद तत्त्वज्ञान यह विषय पढ़ाते थे और पेचीदे विषय को सुलभ के सिखाने की उनकी कुशलता के कारण वे विद्यार्थीप्रिय भी थे।

देखते देखते साल बीत गया। पिछली बार सैनिक़ी प्रशिक्षण ने सुभाष को चकमा दिया था, लेकिन उसे सैनिक़ी प्रशिक्षण मिले, यह शायद नियति का ही संकेत था। नहीं, उसके भविष्यकालीन जीवनकार्य की दृष्टि से आवश्यक ऐसी सारी सामग्री की आपूर्ति करने की नियति ने मानो ठान ही ली थी। क्योंकि उसी साल कोलकाता युनिव्हर्सिटी ने सरकार के आदेशानुसार कॉलेजों में सैनिक़ी प्रशिक्षण (‘युनिव्हर्सिटी कॉर्प्स’) शुरू कर दिया। खुशी से फूले न समाये हुए सुभाष ने तुरन्त ही अपना नाम द़र्ज कर दिया। इस समय प्रवेश के निकष पीछली बार जितने स़ख्त न होने के कारण सुभाष को प्रवेश मिल गया और वह सैनिक़ी प्रशिक्षणवर्ग में आख़िर दाख़िल हो ही गया।

प्रशिक्षण के पहले दिन का दृश्य कुछ अजीबोग़रीब सा ही था। छात्र अपने पारंपरिक पोषाक़ों में यानि धोती-कुर्ता वगैरा पहनकर ही आये थे। लेकिन आहिस्ता आहिस्ता प्रशिक्षण ने ते़ज ऱफ़्तार पकड़ ली। शरीर पर खाक़ी युनिफॉर्म चढ़ गया। दो ही महीनों में हाथ में रायफल लिये परेड़ कर सकने तक छात्रों ने तरक्की कर ली। उसके बाद उनका एक चार महीनों का प्रशिक्षण शिविर भी लिया गया। व्यायाम, मैदानी खेल, कवायद, रायफल चलाना तथा सैनिक़ी दृष्टि से महत्त्वपूर्ण ऐसे अन्य काम सीखना, ऐसा लगभग बारह घण्टों का उनका रो़ज का कार्यक्रम रहता था। इस सैनिक़ी शिविर के मुख्य प्रशिक्षक बहुत अनुशासनप्रिय थे, लेकिन दिन का प्रशिक्षण ख़त्म होने के बाद शेष समय में वे बड़ी मित्रता से छात्रों के साथ पेश आते थे और उनके साथ खेलकूद में भी हिस्सा लेते थे। सुभाष को यह शिविर बहुत ही पसन्द आया था। यहॉं पर कई छात्रों से उसकी दोस्ती भी हो गयी। उसका अकेलापन भी अब काफ़ी मात्र में कम हुआ था। संघशक्ति की ताकत का भी उसे यहॉं पर प्रकर्षपूर्वक एहसास हो गया। प्रशिक्षण शिबीर ख़त्म होने के बाद छात्रों की परेड़ का आयोजन किया गया था। शान के साथ रायफल लेकर परेड़ करनेवाले खाक़ी युनिफॉर्म पहने हुए छात्रों को देखते हुए सभी को बड़ा ताज्जुब हो रहा था।

सुभाष भी कभी इसके बारे में सोचता, तो वह खुद ही अचरज में पड़ जाता। गुरु की खोज करने घर से बाहर निकला सुभाष और अब हाथ में रायफल पकड़ा हुआ सुभाष…. जिन्दगी ने बहुत ही बड़ा ‘यू-टर्न’ लिया था। मन-बुद्धि की कसौटी पर जो खरा उतरेगा, वही बात करने का मनस्वी स्वभाव तो उसका था ही; साथ ही अब इस सैनिक़ी प्रशिक्षण ने उसे, किसी भी नियोजन में और कुल मिलाकर जीवन में ही समय तथा अनुशासन का महत्त्व समझा दिया। कोई भी बात समय पर करने में और निर्धारित समय के अन्दर करने में ही आधी सफलता प्राप्त होती है, यह बात उसने यहीं पर सीख ली। इस सैनिक़ी प्रशिक्षण शिविर ने सुभाष को ऐसी धरोहर दे दी, जो उसे जन्दगी भर पर्याप्त हो।

देखते देखते वह साल भी गु़जर गया। अब रहा कॉलेज का आखरी साल। अब बाक़ी सारी बातें बाजू में रखकर सिर्फ़ पढ़ाई की ओर ही ध्यान देने का सुभाष ने तय किया। उसकी भी कोई ग़लती न होने के बावजूद भी उसे प्राचार्य द्वारा कॉलेज से अपमानपूर्वक निकाल बाहर कर दिया जाना, इस बात की चुभन भी उसे बीच बीच में सताती रहती थी। यह चुभन भी अब सकारात्मक दृष्टिकोण से यानि सुभाष को स्वयं की गुणवत्ता साबित करने के लिए प्रवृत्त करने जितनी कार्यरत हो चुकी थी।

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