नेताजी- १०५

१९३९ वर्ष की त्रिपुरी काँग्रेस के अध्यक्षपद पर कौन विराजमान होगा, इस बारे में अटकलें लगाना शुरू हो गया था। वैसे तो १९३८ यह वर्ष सुभाषबाबू के लिए काफी़ भागदौड़ भरा रहा था। देश भर में किये गये दौरें, सभाएँ, चर्चाएँ इस व्यस्तता में स्वयं की ओर ध्यान देने तक की फु़रसत उन्हें नहीं मिली थी। वहीं, इन चर्चापरिषदों के ज़रिये उनका भारतीय स्वतन्त्रताविषयक दृष्टिकोन दुनिया के सामने आया था और उसे जनप्रियता भी मिल रही थी। भारत की आज़ादी के लिए महज़ नारेबाज़ी न करते हुए ‘आज़ादी के बाद क्या’, इस सवाल का जवाब भी काँग्रेस के इस अध्यक्ष के पास है, यह देखकर विचारक, छात्र, शास्त्रज्ञ आदि बुद्धिजीवियों के गुट भी उनसे काफी़ प्रभावित हो रहे थे। १९३८ के २ अक्तूबर को महात्मा गाँधीजी के जन्मदिन के अवसर पर दिल्ली में नियोजित की गयी उद्योगमन्त्रियों की परिषद में कई उद्योजक सम्मीलित हुए थे। उन सब के मन में कई सवाल थे। सुभाषबाबू ने सभी सवालों को तर्कशुद्ध एवं मुद्दों के अनुसार जवाब दिये। इस परिषद में ख़ास ज़िक्र करने योग्य घटना यह हुई कि इस परिषद में, विज्ञान-तंत्रज्ञान में अग्रसर रहनेवाले भविष्यकालीन भारत का सपना देखनेवाले भारत के महान सपूत- ८० वर्षीय डॉ. विश्‍वेश्‍वरय्याजी- उपस्थित थे और सुभाषबाबू का भाषण सुनने के बाद ‘भारत के भविष्य की मेरी चिन्ता आज मिट गयी’ यह उन्होंने गौरवपूर्वक कहा। सुभाषबाबू ने जब उनके पैर छूकर उन्हें प्रणाम किया, तब उन्होंने बुढ़ापे के कारण सिलवटे भरे अपने हाथ से उनकी पीठ थपथपाकर उन्हें आशीष दियें।

सुभाषबाबू की बढ़ती जनप्रियता के साथ साथ उनके विरोधी गुट की बेचैनी बढ़ रही थी। म्युनिक समझौता के बाद सुभाषबाबू के भाषण में आक्रमकता, सरकार को आरपार की टक्कर देने का संदेश देने की भाषा बार बार झलकने लगी थी। किसी भी बात की ‘रीडिंग बिट्वीन द लाईन्स’ अचूक करनेवाले सुभाषबाबू को म्युनिक समझौते के वाक्यों में से झाँक रहे विश्‍वयुद्ध के लक्षण साफ़ साफ़ दिखायी दे रहे थे। उस अवसर का फा़यदा उठाने के लिए वे बेक़रार थे। इसी वहज से अगले अधिवेशन के अध्यक्ष का आक्रमक एवं युद्धकुशल प्रवृत्ति का रहना ज़रूरी था और देश के भले की सोचकर वे इन कोशिशों में जुट गये थे।

दृष्टिकोन

लेकिन सुभाषविरोधक इन सब बातों को अतिउत्साह, युवा उम्र का उतावलापन- अपरिपक्वता मानते थे। अत एव उनके भाषणों के वृत्तांत को अतिरंजित बनाकर, मिर्चमसाला लगाकर गाँधीजी तक पहुँचाते थे। सुभाषविरोधक तो हमेशा ही ऐसे मौकों की तलाश में रहते थे। इसी दौरान एक बार दिल्ली में आयोजित की गयी कार्यकारिणीची बैठक के लिए सुभाषबाबू ठेंठ आसाम के दौरे से हवाई जहाज़ द्वारा आने निकले थे। बीच रास्ते में ही उनकी तबियत बहुत ही बिगड़ गयी। सिरदर्द से चेहरे का रंग काला हो गया था। बहुत ही पसीना छूटकर बुख़ार चढ़ रहा था। पायलट ने उनकी उस हालत को देखकर हवाई जहाज़ को बीच रास्ते कानपुर में ही उतार दिया। वहाँ पर इलाज किये जाने के बाद दो दिन पश्‍चात् बैठक के आख़िरी दिन वे दिल्ली के लिए रवाना हो सके। इस घटना के बाद भी उनके विरोधकों ने इस बात का बतंगड़ बनाया और ‘यह बीमार पड़ना वगैरा तो महज़ उनका नाटक है’ इस तरह मिर्चमसाला लगाकर उस बात को गाँधीजी तक पहुँचाया। ज़ाहिर है कि सुभाषबाबू इस तरह की बातों को फूटी कौड़ी तक की क़ीमत नहीं देते थे।

इन सभी गतिविधियों में सन १९३८ यह वर्ष अपने अस्त की ओर आगे बढ़ रहा था और अब सभी की नज़रें टिकी थीं, अगले वर्ष के त्रिपुरी काँग्रेस अधिवेशन और नवनिर्वाचित अध्यक्ष की ओर। सुभाषबाबू और उनके सहकर्मियों द्वारा चर्चित नाम किसी न किसी कारणवश रद हो जाने के कारण सर्वसम्मति से सुभाषबाबू को ही पुन: अध्यक्ष बनना चाहिए, यह तय किया गया और गाँधीजी को इन हालातों से अवगत कराने के लिए सुभाषबाबू ने सेवाग्राम जाने का तय कर लिया।

सुभाषबाबू का पुन: अध्यक्षपद को स्वीकार करने का विचार है, इस ख़बर से विचारकों एवं वैज्ञानिकों में खुशी की लहर दौड़ गयी। कई वैज्ञानिकों ने ज़ाहिर रूप से निवेदन प्रसारित कर सुभाषबाबू को अपना समर्थन भी दिया। वहीं, पिछले वर्ष के जैसे तैसे बीतने का इन्तज़ार करनेवाले सुभाषविरोधकों के तो होश ही उड़ गये। गाँधीजी द्वारा बनायी गयी काँग्रेस की घटना के ‘एक ही व्यक्ति सर्वसाधारण हालातों में लगातार दो बार काँग्रेस अध्यक्ष नहीं बन सकता’ इस कलम के बलबूते पर सुभाषबाबू को विरोध करने की उन्होंने ठान ली। वैसे तो सुभाषबाबू से पहले जवाहरलालजी भी लगातार दो बार अध्यक्ष बने थे। लेकिन तब इन लोगों ने कुछ नहीं कहा था। यानि हर बात को अपनी सहूलियत के हिसाब से इस्तेमाल करना, यही उनका म़क़्सद था। दर असल गाँधीजी ने आगे की पीढ़ियाँ ग़लत पद्धति से अध्यक्ष पद का इस्तेमाल न करें, इस उद्देश्य से इस कलम का समावेश घटना में किया था। मग़र अब उसका अपनी सुविधा के अनुसार उपयोग किया जा रहा थाऔर इस सिलसिले में वर्धा जाकर गाँधीजी से मिलना भी उन्होंने शुरू कर दिया था। सुभाषबाबू द्वारा- किये गये और न किये गये- वक्तव्यों की अतिरंजित रिपोर्ट्स्, राशबिहारीजी द्वारा सुभाषबाबू को भेजा गया खत, अन्य क्रांतिकारियों के साथ हुआ सुभाषबाबू का पत्रव्यवहार आदि बातों को गाँधीजी तक पहुँचाया जा रहा था। त्रिपुरी काँग्रेस के लिए सभासद पंजीकरण शुरू हो चुका था। उसमें बंगाल के सभासद पंजीकरण कार्य में बोसबन्धुओं द्वारा भ्रष्टाचार किया जा रहा है, ऐसा इलज़ाम उनपर लगाया गया था।

दर असल काँग्रेस के अध्यक्ष के नाम का चयन गाँधीजी करते थे। जवाहरलालजी का अध्यक्ष बनना, गाँधीजी को उस समय ज़रूरी महसूस हो रहा होगा, इसलिए उन्होंने लगातार दो बार उनका नाम अध्यक्ष पद के लिए चुना होगा। लेकिन इस बार गाँधीजी वैसा नहीं सोच रहे थे। बदलते जागतिक हालातों को ध्यान में रखते हुए काँग्रेस के अध्यक्ष का युद्धकुशल मनोवृत्ति का होना आवश्यक है, इस सुभाषबाबू की राय के साथ वे सहमत नहीं थे। साथ ही सुभाषबाबू की ‘अँग्रेज़ सरकार को आरपार की टक्कर देने की धमकी देने की’ उनकी भाषा भी गाँधीजी को रास नहीं आयी थी। इसके लिए फिलहाल देश परिपक्व नहीं बना है, यह उनकी राय थी।

इस तरह एक विचित्र युद्ध का पट बन रहा था और जल्द ही वर्धा को एक रणभूमि का स्वरूप प्राप्त होनेवाला था।

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