नेताजी-११६

पन्तप्रस्ताव के कारण उत्पन्न हुई उलझन को सुलझाने के लिए सुभाषबाबू द्वारा कोलकाता में बुलायी गयी काँग्रेस महासमिति की विशेष बैठक का दूसरा दिन शुरू हुआ। तब तक सुभाषबाबू द्वारा इस्तीफ़ा दिये जाने की ख़बर सर्वदूर फ़ैल गयी थी और बैठक के स्थान पर लाखों की तादाद में इकट्ठा होकर लोग सुभाषबाबू की जयकार के तथा वे इस्तीफ़ा वापस ले लें, इस आशय के नारे लगा रहे थे। तनाव भरे माहौल में ही बैठक का कामकाज़ शुरू हुआ।

सर्वप्रथम सरोजिनीदेवी, जवाहरलालजी आदि नेताओं के – ‘सुभाषबाबू इस्तीफ़ा वापस ले लें’ ऐसी विनति उनसे करनेवाले भाषण हुए। लेकिन यदि पन्तप्रस्ताव वापस लेते हो, तो ही मैं इस्तीफ़ा वापस लूँगा, ऐसी निश्चयी भूमिका सुभाषबाबू द्वारा ली जाने के कारण चर्चा-भाषणों का कुछ भी फ़ायदा नहीं हुआ और सुभाषबाबू अपने निर्णय पर क़ायम रहे।

आख़िर सरोजिनीदेवी बोलने के लिए खड़ी हो गईं। मण्ड़प में सन्नाटा छा गया।

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सुभाषबाबू जैसे अव्वल दर्ज़े के देशभक्त के मार्गदर्शन को हमें खोना पड़ रहा है, ऐसा खेद व्यक्त करके सरोजिनीदेवी ने, सुभाषबाबू का इस्तीफ़ा मंज़ूर कर दिया और काँग्रेस के अध्यक्षस्थान पर डॉ. राजेन्द्रप्रसाद की नियुक्ति की गयी। तब फिर से एक बार अफ़रात़फरी का माहौल फैल गया। राजेन्द्रप्रसादजी क्यों? सीतारामय्याजी क्यों नहीं? ऐसी नारेबाज़ी चारों ओर से सुनायी देने लगी। इस अ़फरातफरी के माहौल में ही बैठक का समापन होने का ऐलान किया गया।

सुभाषबाबू को बलि का बक़रा बनाया गया, ऐसी भावना लोगों के मन में पैदा होने के कारण बाहर तो लोग इतने ख़ौल गये थे कि जब बैठक का कामकाज़ ख़त्म करके सभी नेता बाहर निकलने लगे, तो उनकी राह रोककर लोगों ने उन्हें बाहर जाने नहीं दिया। आख़िर सुभाषबाबू एवं शरदबाबू ने स्वयं आगे आकर भीड़ को शान्त किया, तब जाकर कहीं सभी नेता जैसे तैसे मण्ड़प के बाहर निकल सके, लेकिन कार्यकर्ताओं द्वारा उनके चारों तऱफ बनाये गये सुरक्षा घेरे की मदद से ही। इस तरह चोरी-छिपे बाहर निकलना पड़ा, इस कारण जवाहरलालजी क्रोधित हो गये थे। बंगाल में ऐसा प्रक्षोभ वे पहली बार देख रहे थे।

इस तरह पिछले तीन महीनों से लगातार जारी रहनेवाले इस संघर्ष पर ३० अप्रैल को पर्दा गिरा दिया गया। लेकिन क्या संघर्ष सचमुच ही ख़त्म हो चुका था? इसका जवाब तो केवल समय ही दे सकता था।

कुछ दिन ऐसे ही बीत गये। डॉ. राजेंद्रप्रसाद ने अपनी नयी कार्यकारिणी की घोषणा की, जिसमें सुभाषबाबू, शरदबाबू एवं जवाहरलालजी को स्थान नहीं था। सुभाषबाबू एवं शरदबाबू के स्थानों पर डॉ. बिधानचंद्र (बी.सी.) रॉय एवं डॉ. प्रफुल्लचंद्र घोष इन बोसबंधुओं के विरोधक माने जानेवाले व्यक्तियों को शामिल किया गया था। एक स्थान रिक्त रखा गया था। उस स्थान पर कुछ दिनों बाद जवाहरलालजी की नियुक्ति की गयी।

कोलकाता में एक तऱफ सुभाषबाबू के साथ जो नाइन्साफ़ी हुई, उसकी वजह से लोगों के मन आग से सुलग रहे थे; वहीं, दूसरी ओर बंगाल के इस महान सुपूत ने, लाचारी से अध्यक्षपद पर चिपके रहने के बजाय, आत्मसम्मान के साथ उसका त्याग करना पसन्द किया, इस बात की भी लोग मन ही मन दाद दे रहे थे। सुभाषबाबू पर पूरे देश भर में से बधाई के टेलिग्रामों की बरसात हो रही थी। लेकिन सुभाषबाबू का हौसला बढ़ा देनेवाला सँदेसा आया, वह गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टागोरजी का। ‘किसी भी संकुचित स्वार्थ में न फँसते हुए, बिलकुल प्रतिकूल परिस्थिति का आपने बहुत ही उदात्त संयम दिखाकर सामना किया। यदि इसी संयम को आप बनाये रखते हैं, तो आज की हार कल जीत में बदल सकती है, इस बात को आप मत भूलना’ इस आशय के गुरुदेव के सँदेसे ने सुभाषबाबू के मन की निराशा को दूर भगा दिया।

अब पिछली बातें भूलकर सुभाषबाबू पुनः काम में जुट गये। उसके बाद तीन ही दिनों में उन्होंने ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ इस काँग्रेस के अन्तर्गत ही कार्य करनेवाले, बायीं विचारधारा की ओर रुझान रहनेवाले नये पक्ष की स्थापना की। भारत को सम्पूर्ण राजनीतिक स्वतन्त्रता दिलाना और भारत में जनतान्त्रिक सरकार की स्थापना करना, ये फॉरवर्ड ब्लॉक के उद्दिष्ट थे। इस दृष्टिकोण से अधिक से अधिक काँग्रेसजनों को सहमत कराना और बायें पक्षों का गुटबन्धन अधिक से अधिक मज़बूत करके काँग्रेस को विश्‍वयुद्धकाल में विराट लड़ाकू जनआन्दोलन शुरू करने के लिए मजबूर करना, यह उनकी योजना थी। लेकिन बायें गुट के अन्य पक्षों ने उनका कुछ ख़ास साथ नहीं दिया और उनकी यह योजना सफल नहीं हो पायी। अतः उन्होंने स्वयं के अकेले के बलबूते पर ही इस जंग को लड़ने का निश्चय किया। उन्होंने देश के कोने कोने में जाकर लोगों को जागतिक वास्तव का एहसास कराके जनजागृति करने हेतु सभाओं को संबोधित करना शुरू किया। इसका नतीज़ा धीरे धीरे सामने आने लगा। बायीं विचारप्रणाली को माननेवाले कई काँग्रेस नेता, युवा नेता इस नये पक्ष के सदस्यत्व का स्वीकार करने लगे। लेकिन काँग्रेस अन्तर्गत रहनेवाले बायीं विचारधारा के अन्य पक्ष अपनी अपनी स्वतन्त्र पहचान को त्यागकर इस नये पक्ष के झण्ड़े तले एक पक्ष के तौर पर काम करें, इस सुभाषबाबू की सूचना को अन्य पक्षों ने नकार दिया। उनके बीच में अन्तर्गत मनमुटाव और एक-दूसरे के प्रति शक़ की भावना इतने बड़े पैमाने पर मौजूद थे कि उनमें से कोई भी दूसरे का भरोसा करने के लिए तैयार नहीं था। आख़िर ‘एकला चालो रे’ यही अपना जीवनसूत्र है, यह मालूम रहनेवाले सुभाषबाबू ने २२ जून को मुंबई में फॉरवर्ड ब्लॉक पक्ष की पहली अखिल भारतीय परिषद का आयोजन किया। उस परिषद में उपस्थित प्रतिनिधियों की भारी तादाद को देखकर पुलीस यन्त्रणा भी चौंक गयी थी और अध्यक्षपद से निकाले जाने के बाद सुभाषबाबू नामशेष हो गये हैं ऐसा माननेवाले सुभाषविरोधक भी अस्वस्थ हो गये और उनके बीच फिर से चर्चा-मन्त्रणाओं का दौर शुरू हो गया।

सुभाषबाबू की ‘ऐसी’ योजनाओं का अन्देशा होने के कारण ही काँग्रेस कार्यकारिणी ने नया प्रस्ताव पारित किया कि काँग्रेस अन्तर्गत रहनेवाला कोई भी व्यक्ति या गुट, प्रान्तिक काँग्रेस की इजाज़त के बिना सत्याग्रह या आन्दोलन नहीं कर सकता।

यह प्रस्ताव अन्यायकारी एवं व्यक्तिगत बदले की भावना के कारण पारित किया गया है, यह सुभाषबाबू को लगने के कारण उन्होंने ९ जुलाई को इस प्रस्ताव के ख़िलाफ़ ‘निषेध दिवस’ का नारा दिया और उस दिन देश भर में शान्तिपूर्वक निदर्शन करने का आदेश दिया। देश भर में से सुभाषबाबू के आवाहन को अच्छा-ख़ासा प्रतिसाद मिला। सेनापति बापटजी, बॅ. नरिमन इन जैसे उनके सच्चे अनुयायियों ने इसके लिए खूब जमकर मेहनत की। मुंबई में हुए निदर्शन तो कमाल के सफल साबित हुए।

दूसरे दिन के अख़बारों के पन्ने सुभाषबाबू के गुणगान से भरे थे; वहीं, काँग्रेस कार्यकारिणी सदस्यों के मन….अस्वस्थता से!

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