म्हैसूर भाग – ४

अनंत चतुर्दशी को गणपतिबाप्पा उनके गाँव लौट गये और उसके बाद पंद्रह दिन बीतकर देखते देखते नवरात्रि उत्सव के पाँच दिन भी बीत चुके हैं और अब सब के मन में दशहरे के उत्सव को मनाने की उत्सुकता है। दशहरा यानि कि विजयादशमी। ‘विजया दशमी’ इस नाम में ही ‘विजय’ है।

Mysore City- म्हैसूर शहर

हमारे भारतवर्ष में उत्तर से लेकर दक्षिण तक के सभी प्रदेशों में दशहरे का उत्सव बड़े धुमधाम के साथ मनाया जाता है। ‘विजयादशमी’ यह प्रतीक है बुराई पर अच्छाई की विजय का। आज ही के दिन चामुंडादेवी ने महिषासुर का नाश किया था। ‘दशहरा’ अर्थात विजया दशमी यह दिन है, बुराई के, अपवित्रता के, अशुभ के विनाश का और अच्छाई की, पवित्रता की और शुभ की स्थापना का।

म्हैसूर शहर को जिस चामुंडा पहाड़ी (चामुंडा हिल्स) की पार्श्‍वभूमि प्राप्त हुई है, उसी पहाड़ी  पर देवी चामुंडेश्‍वरी का मन्दिर है। देवी चामुंडेश्‍वरी ने ही उन्मत्त बने महिषासुर का वध किया और लोगों को भयमुक्त किया ऐसी कथा कही जाती है। यह घटना अर्थात् महिषासुर का वध म्हैसूर के परिसर में ही हुआ ऐसी लोगों की श्रद्धा है। महिषासुर का वध करनेवाली चामुंडेश्‍वरी देवी ‘महिषासुरमर्दिनी’ इस नाम से भी जानी जाती हैं और चामुंडेश्‍वरी यानि कि महिषासुरमर्दिनी यह दुर्गा का ही एक रुप है।

चामुंडी हिल्स पर स्थित महिषासुरमर्दिनी का मन्दिर इस पहाडी को चोटी पर है। उँचाई पर स्थित इस मन्दिर में  जाने के लिए लगभग १००० सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं।लगभग ८०० सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद हमे दिखाई देता है, एक बहुत बड़ा नन्दी। इस नन्दी की उँचाई लगभग १५ फीट और लम्बाई लगभग २४ फीट है। देवी चामुंडेश्‍वरी के मूल मन्दिर का निर्माण १२ वी सदी में होयसाळ राजा द्वारा किया गया, ऐसी इतिहासकारों की राय है। इस मन्दिर के कलश का निर्माण १७ वी सदी में विजयनगर के राजा ने किया, ऐसा भी एक मत है। १७ वी सदी में ही इस मन्दिर तक चढ़कर जाना आसान हो, इस उद्देश्य से यहाँ सीढ़ियाँ बनायी गयी। इस मन्दिर का गोपुर ७ मंजिला उँचाई का है और उसपर की हुई शिल्पकारी भी बेहतरीन है। म्हैसूरपर सब से अधिक समय तक शासन करनेवाला वोडेयर राजवंश भी महिषासुरमर्दिनी का उपासक था।

mysore-festivelजहाँ महिषासुरमर्दिनी ने महिषासुर का वध किया, ऐसा जाना जाता है, उस म्हैसूर में दशहरे का उत्सव जोर शोर से, परंपरागत पद्धति के अनुसार तथा धुमधाम से मनाया जाता है। पूरे भारतवर्ष में पुराने समय से दशहरा काफ़ी मशहूर है। म्हैसूर में दशहरा उत्सव की शुरुआत कई सदियों पहले हुई और यह परंपरा आज भी क़ायम है।

म्हैसूर में नवरात्रि-उत्सव को ‘नाडहब्ब’ कहा जाता है। प्रमुख दशहरा उत्सव विजयादशमी को मनाया जाता है, लेकिन संपूर्ण नवरात्रि-उत्सव दस दिन तक मनाया जाता है।

१७ वी सदी के प्रारंभ में म्हैसूर के शासक रहे राजा वोडेयर (प्रथम) ने विजयनगर साम्राज्य की नवरात्रि-उत्सव की परंपरा म्हैसूर राज्य में भी शुरु की और वहीं से प्रारंभित हुआ यह उत्सव आज भी मनाया जाता है।

नवरात्रि के पहले दिन देवतापूजन द्वारा इस उत्सव की शुरुआत होती है और उत्सव की मुख्य  देवता ‘देवी चामुंडेश्‍वरी’ अर्थात् ‘महिषासुरमर्दिनी’ ही हैं। इस उत्सव के नौए दिन को ‘महानवमी’ कहा जाता है और इसी दिन राजवंश का भूषण होनेवाली राज-तलवार का परंपरागत रूप से पूजन किया जाता है। दशहरे की शोभायात्रा में भी इस तलवार का समावेश किया जाता है। दशहरे की शोभायात्रा ‘जंबू सवारी’ इस नाम से भी जानी जाती है ।

म्हैसूर रियासत पर जब वोडेयर राजाओं का शासन था, तब इस ‘जंबू सवारी’ में राजा, राजदरबार के अधिकारी और नगर की जनता ये सभी सम्मीलित होते थे। इस शोभायात्रा में हाथी, घोड़े और उँट इनका समावेश होता था। इस शोभायात्रा के हाथियों को स्वर्ण-चांदी के गहनों से एवं पुष्पमालाओं से  सजाया जाता था। इस शोभायात्रा मे जिन हाथियों को समाविष्ट किया जाता था, उन हाथियों को कुछ महिनों पहले से ही म्हैसूर से कुछ ही दूरी पर स्थित प्रदेश में प्रशिक्षित किया जाता था । म्हैसूर के महाराजा हाथी पर स्थित हौदे में विराजमान होते थे। उनके आगे-पीछे हाथी, घुड़सवार, उँटनी-सवार, सैनिक, अंगरक्षक और दरबारी चलते थे। म्हैसूर के महाराजा जिस हौदे में विराजमान होते थे, वह हौदा सोने से बना होता था और उसपर रत्न भी जड़े होते थे।

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यह शोभायात्रा एक विशिष्ट मैदान में आ जाती थी और वहाँ महाराज शमी वृक्ष की पूजा करते  थे । उसके बाद केला या नारियल के पेड़ पर निशानेबाज़ी करते थे। शोभायात्रा के वापसी के प्रवास में महाराज हाथी पर न बैठते हुए घोड़े पर सवार हो जाते थे।

समय बदल गया, रियासतें नहीं रहीं, मग़र फिर भी परंपरा तो आज भी क़ायम है। आज भी दशहरे की जंबू सवारी म्हैसूर में उसी हर्ष और उल्हास के साथ निकलती है। शोभायात्रा में सोने के हौदे में विराजमान होती है, देवी चामुंडेश्‍वरी की मूर्ति। आज भी यह शोभायात्रा उसी प्रकार विशिष्ट मैदान में आ जाती है और शमी वृक्ष की पूजा भी की जाती है। आज इस पूजा के बाद टॉर्च-लाईट परेड होती है और आतिशबाज़ी के साथ शोभायात्रा संपन्न हो जाती है।

इस नवरात्रि-उत्सव के दौरान चामुंडेश्‍वरी देवी का मन्दिर और म्हैसूर पॅलेसही नहीं, बल्कि पूरा म्हैसूर शहर ही रोशनी से दमक उठता है। आज दस दिनों के इस उत्सवकाल में शहर में विभिन्न प्रकार के संगीत और नृत्य के कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। साथ ही कुश्ती की प्रतियोगिताएँ भी होती हैं। इस पूरे नवरात्रि-उत्सव में और विशेष रूप से जंबू सवारी में भारत के विभिन्न प्रदेशों से लोग कलाकार एवं दर्शक के तौरपर उपस्थित रहते हैं।

म्हैसूर पर जब राजाओं का शासन था, तब वहाँ नवरात्रि-उत्सव में विशेष दरबार का आयोजन किया जाता था ।  आज म्हैसूर पर राजसत्ता तो नहीं है, मग़र वोडेयर राजा के वंशज आज भी म्हैसूर में रहते हैं । और इन वंशजोंने दरबार – आयोजन की परंपरा को आज भी जारी रखा है।

दशहरा यह उत्सव जिस तरह विजय का प्रतीक है, उसी तरह वह संपन्नता का भी प्रतीक है, क्योंकि हमारे कृषिप्रधान देश में इस उत्सव के पूर्व हुए बरसात के मौसम में बोयें हुए बीजों का संपूर्ण विकास हो चुका होता है । अर्थात दशहरा जिस तरह विजय को साथ ले आता है, उसी तरह वह अनाज की सम्पन्नता को भी अपने साथ ले आता है।

म्हैसूर की दशहरे की शोभा यात्रा को म्हैसूर की आर्ट गॅलरी की दीवारों पर हम देख सकते हैं । नरसिंह कंठिरव वोडेयर राजा के शासनकाल में दशहरा शोभायात्रा को पहली बार चित्रबद्ध किया गया।

अब चित्रकला की बात चली ही है, तो ज़रा म्हैसूर की चित्रशैली के बारे में भी कुछ जानकारी प्राप्त करते है ।

म्हैसूर की चित्रशैली या चित्रकला उन चित्रों में प्रयोग किये जानेवाले सोने के वरक़ के लिए मशहूर है ।  संक्षेप में कहां जाये तो इस चित्रशैली में बननेवाले चित्रों में सोने का प्रयोग किया जाता है।

१७ वीं और १८ वीं सदी में इस चित्रशैली का उद्गम तथा विकास हुआ ।  वोडेयर राजाओं के शासनकाल में इस चित्रकला का काफ़ी विकास हुआ ।

इन चित्रों में मुख्य तौर पर देवी-देवताओं तथा रामायण और महाभारत आदि महाकाव्य के प्रसंगों को चित्रित किया जाता था ।  इन चित्रों को मुख्य तौर पर काग़ज़ पर बनाया जाता है, मग़र उस काग़ज़ को लक़ड़ी या वस्त्र पर चिपकाया जाता है ।  पहले काग़ज़ पर चित्र बनाया जाता है, फिर उस चित्र की कुछ विशेष बातों को उभाड़दार बनाया जाता है ।  इन चित्रों की ख़ासियत यह है कि इन चित्रों में झिंक ऑक्साइड और अरेबिक गम के मिश्रण से बनी पेस्ट का उपयोग किया जाता है और इस विशेष प्रकार को ‘गेस्सो वर्क’ कहा जाता है। इन चित्रों में देवताओं के गहने, मुकुट आदि को उभा़ड़कर बनाया जाता था ।  पुराने समय में चित्रकार वनस्पति और खनिजों से प्राप्त होनेवाले प्राकृतिक रंगों का स्वयं निर्माण करके उनके द्वारा इन चित्रों में रंग भरते थे ।  चित्र बनकर पूरा हो जाने के बाद जब चित्र के रंग पूरी तरह सूख जाते थे, तब उस चित्र पर सोने का वरक़ लगाया जाता था । सोने का वरक़ यनि कि सोने का बहुत ही पतला पत्रा ।  सोने का वरक़ लगाने के बाद उस चित्रपर एक बहुत ही पतला काग़ज़ रखकर उसपर एक खास पत्थर से दबाव दिया जाता था ।  इस तरह के दबाव के कारण चित्र का सोना और भी सुन्दर दिखाई देता था ।  बीच के कुछ दशकोंमें इस चित्रशैली का कुछ ख़ास विकास नहीं हो सका, लेकिन आज हालात बदल रहे हैं ।

म्हैसूर के चन्दन की खुशबू कई दशकोंसे पूरे भारत वर्ष में महक रही है।  चन्दन के साथ गहरा रिश्ता होनेवाले म्हैसूर की खुशबू को महसूस करेंगे, अब अगले लेख में।

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