५५. ‘झायॉनिझम’ की स्थापना

१८वीं सदी के अन्त में और १९ वीं सदी में ज्यूधर्मीय विचारक ज्युडाह बिबास, झ्वी हर्श कॅलिशर और बिबास के छात्र ज्युडाह अल्कालाई ने अथक परिश्रम कर, जेरुसलेम लौटने के लिए डायस्पोरा के ज्यूधर्मियों को जो प्रेरित किया, उसके फलस्वरूप कई ज्यूधर्मीय जेरुसलेम लौट आये। (‘आलिया’)

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१९वीं सदी में युरोपस्थित ज्यूधर्मियों पर अत्याचार बढ़ने के बाद इसवीसन १८८२ से सैंकड़ों ज्यूधर्मीय वहाँ से लौटने के शुरुआत हो चुकी थी।

इस कालखंड की पहली ‘आलिया’ अर्थात् ज्यूधर्मीय बड़ी संख्या में दुनियाf के कोने कोने से जेरुसलेम लौट आने की लहर, यह इसवीसन १८८० से लेकर १९०३ तक मानी जाती है। इस कालावधि में हज़ारों ज्यूधर्मीय कॅनान प्रांत में लौट आये और वहीं पर बस गये। अब वास्तविक रूप में कॅनान प्रांत बतौर ‘ज्यूधर्मियों का राज्य’ आकार धारण करने लगा था।

इन तीनों का प्रभाव केवल जनसामान्यों पर ही पड़ा ऐसा नहीं, बल्कि कई समकालीन संवेदनशील ज्यू विचारक भी उनकी विचारधारा से प्रभावित हुए थे। ख़ासकर अल्कालाई की सीख से एक व्यक्ति अच्छाख़ासा प्रभावित हो चुका था; वह थे – ऑस्ट्रो-हंगेरियन विचारक ‘थिओडोर हर्ट्झ्ल्’।

हंगेरी में स्थायिक हुए ज्यू घराने में, इसवीसन १८६० में जन्मे हर्ट्झ्ल् एक बहुआयामी व्यक्तित्त्व थे। उसके पिता अपार मेहनत के बल पर वहाँ के सफल व्यवसायिक बने थे। पत्रकार, नाटककार, राजकीय आंदोलक और लेखक ऐसी विभिन्न भूमिकाओं में से हर्ट्झ्ल् की बुद्धि की चमक दुनिया ने अनुभव की थी। युवावस्था में, तत्कालीन जर्मन संस्कृति का उसपर प्रभाव था। ‘सदियों की ग़ुलामी के कारण ज्यूधर्मियों में उस समय निर्माण हुईं कुछ अनिष्ट विशेषताओं का वे त्याग करें और ज्यूधर्मतत्त्वों का बारिक़ी से पालन करके भी कुछ मामलोे में जर्मन सांस्कृतिक विशेषताओं का अनुसरण करें, जिससे वे दुनिया के सर्वसमर्थ लोग बन जायेंगे’ ऐसी उसकी धारणा थी। उसके दादाजी, जो पारंपरिक ज्यूधर्मीय थे, उनके ज़रिये उसे ज्युडाह बिबास, झ्वी हर्श कॅलिशर और ज्युडाह अल्कालाई के बारे में और इन तीनों ने – ‘दुनियाभर के ज्युइश लोग पुनः जेरुसलेममध्ये लौटें’ इसके लिए किये हुए अपार परिश्रमों के बारे में पता चला था।

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आधुनिक झायॉनिझम के जनक माने गये थिओडोर हर्ट्झ्ल्

इसवीसन १८७८ में हुई उसकी बड़ी बहन की आकस्मिक मृत्यु के पश्‍चात् उनका परिवार ऑस्ट्रिया में स्थायिक हुआ और उसके बाद व्हिएन्ना ही उसकी कर्मभूमि बनी। वहीं पर उसका लेखन छपने लगा, उसने लिखे नाटक रंगभूमि पर चर्चा का विषय बन गये। स्थानीय अख़बारों के लिए काम करने के साथ ही, हर्ट्झ्ल् व्हिएन्ना के एक फ्रेंच अख़बार के लिए भी काम करते थे। लेकिन तब तक उन्होंने ज्यूधर्म, ज्यूधर्मीय इनके बारे में गंभीरतापूर्वक विचार कभी किया ही नहीं था। वह विचार उनके मन में शुरू होने के लिए कारणीभूत हुई, इसवीसन १८९४ में पॅरिस में घटी एक घटना।

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फ़्रेन्च सेना के ज्यूधर्मीय अफ़सर अल्फ़्रेड डेफ़्रस पर जासूसी का झूठा इल्ज़ाम लगाकर उसे विभिन्न प्रकार से अपमानित किया गया।

इसवीसन १८९४ में वहाँ पर घटित इस घटना से संपूर्ण फ्रेंच समाजजीवन की ही मंथनप्रक्रिया शुरू हुई। ‘ड्रेफस अफेअर’ इस नाम से आगे चलकर जानी गयी इस घटना में, फ्रेंच सेना के ‘आल्फ्रेड ड्रेफस’ नामक एक ज्युइश अफ़सर पर, वह जर्मनों के लिए गुप्त रूप से जासूसी का काम कर रहा होने का आरोप रखकर उसे गिरफ़्तार किया गया। आगे चलकर जाँच का नाटक हुआ और उसने अपने बेगुनाह होने की बात बार बार दोहराकर भी, उसे नज़रअन्दाज़ कर उसे उम्र-़कैद की सज़ा सुनायी गयी। उस ज़माने के युरोप के कुल मिलाकर रूख के अनुसार, फ्रान्स में भी आम जनता में से कइयों के दिल में ज्यूधर्मियों के प्रति नफ़रत थी। लेकिन उन्हीं के साथ ज्यूधर्मियों के बारे में हमदर्दी रखनेवाले भी थे।

इस घटना से संपूर्ण फ्रेंच समाजजीवन – ‘ज्यूधर्मियों के पक्ष में’ और ‘ज्यूधर्मियों के ख़िलाफ़’ ऐसा विभाजित हो गया। दोनों पक्षों द्वारा विभिन्न आंदोलन, जुलूस निकालना यह तो नित्यक्रम ही बन गया। इस मामले में पुनः जाँच करने के लिए फ्रेंच राज्यकर्ताओं पर दबाव बढ़ने लगा। आगे चलकर असली गुनाहगार भी पकड़ा गया, जो एक फ्रेंच सेनाधिकारी ही था। इसवीसन १९०६ में ड्रेफस की बेगुनाही को क़बूल करते हुए फ्रेंच सरकार ने उसे रिहा कर उसे पुनः सम्मानपूर्वक फ्रेंच सेना में पहले के पोस्ट पर ही नियुक्त किया तो सही, लेकिन तब तक उसके जीवन के बारह साल जेल में कट गये थे। इन बारह सालों में फ्रेंच समाजजीवन पूरी तरह उबल चुका था।

व्हिएन्ना के उस फ्रेंच अख़बार के प्रतिनिधि के तौर पर उस कालावधि में हर्ट्झ्ल् पॅरिस में था। इस कारण वह यह सब नज़दीक से देख सका। ख़ासकर उनमें से एक ज्यूविरोधी जुलूस में से की गयीं – ‘ज्यूधर्मियों को मार दो’ इन घोषणाओं से हर्ट्झ्ल् अंतर्मुख हुआ। ‘ज्यूधर्मियों को मार दो? क्यों? क्या केवल वे ज्यूधर्मीय हैं इसलिए? ज्यूधर्मियों के प्रति इतनी नफ़रत? एक व्यक्ति ने किये अपराध के कारण (वह अपराध भी कथित ही था; साबित न हुआ अपराध) सारे के सारे ज्यूधर्मीय भला बुरे कैसे हो सकते हैं?’ ऐसा विचारचक्र उसके दिमाग़ में शुरू हुआ और वहाँ पर वास्तविक रूप में ‘झायॉनिझम’ के बीज उसके मन में बोये गये। ‘ज्यूधर्मियों के प्रति अन्यधर्मियों के दिल में होनेवाली इस फ़ज़ूल की नफ़रत को परास्त तो नहीं कर सकते, उसका कोई ईलाज भी नहीं है। उसे केवल टाला जा सकता है और वह केवल स्वतंत्र ज्युइश राष्ट्र के निर्माण से ही संभव है’ इस नतीज़े तक वह आ गया।

थिओडोर हर्ट्झ्ल् लिखित ‘द ज्युइश स्टेट’

इस घटना से प्रेरित होकर उसने ‘द घेट्टो’ नाम का एक नाटक भी लिखा। (‘घेट्टो’ यानी किसी शहर में स्थित ऐसी बस्ती, जो उस शहर के अल्पसंख्यांकों ने, बहुसंख्यांकों के ग़ुस्से से अपने आपको सुरक्षा प्रदान करने के लिए बनायी है और उसमें केवल उस अल्पसंख्यांक गुट के ही लोग एकत्रित रहते हैं)। उस दौर में युरोप में बिखरे हुए अल्पसंख्यांक ज्यूधर्मियों ने युरोपियन लोगों के ग़ुस्से से अपनी रक्षा करने के लिए जगह जगह पर ऐसे घेट्टो बनाकर उनमें रहने की शुरुआत की थी। इस ‘घेट्टो’ नाटक में हर्ट्झ्ल् ने – ‘धर्मांतर’ अथवा ‘जगह जगहों के बहुसंख्यांकों के रस्मोरिवाज़ अपनाकर उनमें घुलमिल जाने की कोशिश करना’ इन ज्युइश लोगों पर उस ज़माने में थोंपे जानेवाले दोनोे विकल्पों को नकारा था और अब ज्यूधर्मियों को होनेवाला विरोध यह केवल धार्मिक प्रश्‍न नहीं रहा, बल्कि सामाजिक प्रश्‍न भी बना है, ऐसा प्रतिपादन किया था। ज्यूधर्मियों ने विभिन्न प्रदेशों की प्रचलित अन्यधर्मीय संस्कृतियोें में कितना भी घुलमिल जाने की कोशिश की, तब भी कुछ फ़ायदा नहीं होगा। वे वहाँ के अन्यधर्मीय, ज्युइश लोगों को हमेशा ‘अजनबी विदेशी’ ही मानेंगे, ऐसा उसने दृढ़तापूर्वक कहा था।

सन १८९५ में उसने ‘द ज्युइश स्टेट’ यह निबंध लिखा, जिसकी काफ़ी सराहना भी हुई और काफ़ी आलोचना भी। ‘ज्यू’ यह ज्युइश लोगों का केवल धर्म न होकर, वह उनका ‘राष्ट्रीयत्व’ (‘नॅशनॅलिटी’) भी है, फिर चाहे वे किसी भी देश में क्यों न हों, यह विचार उसने दृढ़तापूर्वक इस निबंध में प्रस्तुत किया।

उस दौर में ज्यूधर्मीय फिर से जेरुसलेम में लौट आयें, इसके लिए कई छोटे छोटे गुट अपनी अपनी क्षमता से प्रयास कर रहे थे। लेकिन उनके जेरुसलेम पहुँचने के बाद क्या, इस प्रश्‍न के बारे में किसी ने भी नहीं सोचा था। सबसे पहले उसके बारे में तर्कशुद्धता से विचार हर्ट्झ्ल् ने किया। ऑटोमन्स सुलतान के साथ चर्चा कैसे करें, साथ ही, इन ज्यूधर्मियों की प्रस्तावित जीवनपद्धति, इस ज्यूराष्ट्र में होनेवालीं सामाजिक-सार्वजनिक सुविधाएँ आदि कई बातों की चर्चा हर्ट्झ्ल्ने इस निबंध में की है।

‘झायॉनिझम’ यह संकल्पना अब धीरे धीरे मूर्तस्वरूप धारण करने लगी थी!(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

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