८७. ऑपरेशन बालाक; अरब निर्वासित समस्या भड़की

सन १९४८ के अरब-इस्रायल युद्ध में शुरू के कुछ दिन ही सही, लेकिन इस्रायल की अपर्याप्त युद्धसामग्री के कारण अरबों का पल्ड़ा भारी होने लगा। तब विदेशस्थित, दुनियाभर में बिखेरे हुए ज्यूधर्मियों ने अपनी इस मातृभूमि को इस संकट से बाहर निकालने की ठान ली और अल्प-अवधि में ही इस्रायल की ओर पैसों की तथा युद्धसामग्री की धारा शुरू हुई। अकेली अमरीका में से ही लगभग पाँच करोड़ डॉलर्स की रक़म इकट्ठा हुई। गत कुछ महीनों से ज्यूधर्मियों ने तथा ज्यू-मित्रों ने चलायी युद्धसामग्रीखरीदारी की मुहिम ने अब अच्छी रफ़्तार पकड़ी थी।

इसमें अधिकतर झेकोस्लोवाकिया से शस्त्रास्त्र एवं युद्धसामग्री खरीदी जा रही थी। उसे तथा अन्य स्थानों से ख़रीदी हुई युद्धसामग्री में से कुछ युद्धसामग्री को झेकोस्लोवाकिया के ज़रिये हवाईमार्ग से ख़ुफ़िया रूप में इस्रायल में लाया गया। यह ख़ुफ़िया ऑपरेशन लगभग तीन महीने चालू था, जिसे ‘ऑपरेशन बालाक’ यह सांकेतिक नाम था।

गॉर्डन लेवेट

इस ऑपरेशन में एक नाम का अनुरोधपूर्वक उल्लेख करना चाहिए – ‘गॉर्डन लेवेट’। दूसरे विश्‍वयुद्ध का अनुभव होनेवाले, ब्रिटन के ‘रॉयल एअर ङ्गोर्स’ में पायलट होनेवाले लेवेट की इस काम में इस्रायल को काफ़ी मदद हुई। यह जन्म से ज्यू नहीं था, लेकिन ब्रिटन में बहुत ही ग़रीब घर में जन्मे होने के कारण शोषितों के प्रति, पीड़ितों के प्रति उसके दिल में हमदर्दी थी। गत हज़ारों वर्षों में कइयों ने किये, ज्यूधर्मियों के निरंतर शोषण के इतिहास के बारे में जानकर उसके दिल में ज्यूधर्मियों के प्रति आत्मीयता उत्पन्न हुई और उनकी हर संभव सहायता करने की उसने ठान ली।

लेकिन जब उसकी ओर से सहायता करने का प्रस्ताव ज्यूधर्मियों के पास आया, तो वह जन्म से ज्यूधर्मीय न होने के कारण और ख़ासकर ब्रिटीश नागरिक होने के कारण – ‘वह शायद गुप्तचर होगा, घातपात करने के इरादे से आया होगा’ ऐसा शक़ उसके बारे में किया गया। क्योंकि तत्कालीन पॅलेस्टाईनविषयक ब्रिटीश नीति यह अरब-परस्त मानी जाती थी। लेकिन फिर किसी भी प्रकार की सहायता की उस समय इस्रायल को इतनी आत्यंतिक ज़रूरत थी कि लेवेट के सहायता के प्रस्ताव को ठुकराना भी मुमक़िन नहीं था। इसलिए फिर, ‘बाद का बाद में देख लेंगे’ ऐसा सोचकर अन्य ज्यूधर्मीय पायलट्स के साथ उसे भी ‘ऑपरेशन बालाक’ में समाविष्ट किया गया; और उसने अक्षरशः इस ऑपरेशन में अपना सर्वस्व समर्पित किया। खराब हवामानों में से, कई पेंचींदा क्रायसिस परिस्थितियों में से अपनी जान की बाज़ी लगाते हुए उसने झेकोस्लोवाकिया से इस्रायल, ऐसी कई बार उड़ाने भरीं; और झेकोस्लोवाकिया में गत कुछ महीनों से खरीदकर रखी हुई ढ़ेर सारी युद्धसामग्री (बाँब्स्, बंदूकें, पार्ट्स अलग कर रखीं तोपें, इतना ही नहीं, बल्कि पार्ट्स अलग कर रखे लड़ाकू बाँबर विमान भी) और सैंकड़ों ज्यूधर्मीय सैनिकों को इस्रायल में पहुँचाया।

सन १९४८ के अरब-इस्रायली युद्ध में अहम भूमिका निभानेवाले एव्हिया श्रेणि के विमान का मॉडेल

यह लेवेट आगे चलकर इस्रायली एअर ङ्गोर्स में भी भर्ती हो गया। इस्रायली एअर ङ्गोर्स को आधुनिक स्वरूप देने में उसका महत्त्वपूर्ण योगदान है, जिसमें इस्रायली नौसिखिये पायलट्स को प्रशिक्षण देना यह मुख्य काम था। उसके इस योगदान के कारण आगे चलकर लेवेट को इस्रायली एअर ङ्गोर्स में ‘लेफ्टनंट कर्नल’ पद तक पदोन्नति प्राप्त हुई।

तो इस तरह इस ‘ऑपरेशन बालाक’ के कारण सन १९४८ के इस युद्ध में, इस्रायल की युद्धसामग्री की कमी की समस्या काफ़ी हद तक दूर हुई थी और अब नये जोश से इस्रायली सेना अरबों का मुक़ाबला करने सिद्ध हुई थी। उसीके साथ, हॅगाना ने युरोप के बंदरगाहों से इस्रायल तक आने का प्रबंध किये हुए बारह बड़े मालवाहक जहाज़ों में से भी बहुत बड़ी युद्धसामग्री की राशि पहुँच चुकी होने के कारण इस्रायली सेना का बल और आत्मविश्‍वास बढ़ गया था।

इस कारण, शुरुआती दौर में, ‘केवल इस अरब आक्रमण का सफलतापूर्वक सामना करना और ज्यू-राष्ट्र को सुरक्षित रखना’ इतना ही मर्यादित उद्देश होनेवाली इस्रायली सेना का ध्येय, युद्ध जैसे जैसे आगे बढ़ता गया वैसे वैसे विस्तारित होता गया। धीरे धीरे – ‘क्यों न इस ज्यू-राष्ट्र की सीमाओं का विस्तार किया जायें’ ऐसा विचार वृद्धिंगत होता गया।

क्योंकि अरबों को प्रदान किये गये भागों में भी बिखरी हुईं ज्यू-बस्तियाँ थीं ही। उनमें निवास करनेवाले ज्यूधर्मियों की अरब आक्रमण से रक्षा करनी चाहिए, इस विचार में से इस अगले ध्येय का जन्म हुआ। ज्यू-राष्ट्र के बाहर होनेवालीं इन बिखरी हुईं ज्यू-बस्तियों पर यदि इस्रायली नियंत्रण चाहिए, तो वह सलगतापूर्वक होना चाहिए; तभी एक ‘देश’ के तौर पर इस्रायल की सीमाएँ सुनिश्‍चित होंगी। केवल इन बस्तियों पर अलग अलग नियंत्रण होने से काम नहीं चलेगा; अर्थात् – दो ज्यू-बस्तियों की बीच के अरब भागों पर भी इस्रायली नियंत्रण होना चाहिए, यह ध्येय अब सुनिश्‍चित किया गया और उस दृष्टि से व्यूहरचना बनायी जाने लगी।

मुख्य बात, इन भीतर घुसे अरब सेनाओं को अब इस्रायली सेना से कडा प्रतिकार शुरू हुआ। अब नयी कुमक प्राप्त हुई इस्रायली सेना नये जोश के साथ अरब सेना को पीछे धकेलते हुए अपना एक एक प्रान्त मुक्त कर रही थी। इस सारे घटनाक्रम का ख़ौफ़ दिल में लेकर आम पॅलेस्टिनी अरब जनता भी अपने अपने गाँव से पलायन करते हुए, या तो पड़ोसी अरब राष्ट्रों में या फिर पॅलेस्टाईन प्रांत की ही ‘गाझापट्टी’ तथा ‘वेस्ट बँक’ इन दो बड़ी अरब बस्तियों में पनाह लेने लगी थी। वेस्ट बँक की पहले की ४ लाख अरब जनसंख्या सन १९४८ इस एक ही साल में ७ लाख से ऊपर पहुँच गयी थी। वहीं, गाझापट्टी में इस एक साल में आश्रय लिये अरब निर्वासितों की संख्या पौने-दो लाख तक पहुँच गयी थी। इस युद्ध के ख़त्म होने तक सभी स्थानों के कुल पॅलेस्टिनी निर्वासित अरबों की संख्या ७ से १० लाख तक जा पहुँची थी। पड़ोसी अरब देशों में भाग गये अरबंों की संख्या भी कुछ कम न थी। (लेबेनॉन-१ लाख, जॉर्डन-१ लाख, सिरिया-७५ ते ९० हजार, इजिप्त-१० हजार, इराक-४ हजार)।

पॅलेस्टाईन प्रांत में घुसीं अरब सेनाओं को इस्रायली सेना के द्वारा कड़ा प्रतिकार शुरू होने के बाद उसका ख़ौफ़ दिल में लेकर आम पॅलेस्टिनी अरब जनता भी अपने अपने गाँव से सामान के साथ पलायन करने लगी थी।

लेकिन इसका बदला लेने के लिए अरब राष्ट्रों ने उनके देशों के ज्यू नागरिकों पर अत्याचार करना चालू किया। पॅलेस्टाईन प्रांत में सन १९४७ से अरब-ज्यू दंगे शुरू होने के बाद इन अरब राष्ट्रों में भी प्रतिक्रियात्मक ज्यूविरोधी दंगे शुरू हुए ही थे। इस कारण इन अरब राष्ट्रों में से जान बचाकर बाहर निकले या फिर निकाले गये ज्यू निर्वासितों का प्रवाह भी इस्रायल की दिशा में शुरू हुआ था।

इन सारीं गतिविधियों को समांतर ऐसा एक और घटनाक्रम परदे के पीछे जारी था, जिसका ज़िक्र करना ज़रूरी है – इस्रायल का बहुत ही प्रवीण ऐसा गुप्तचर विभाग। आज का इस्रायल का विश्‍वविख्यात गुप्तचर संगठन ‘मोस्साद’ की औपचारिक रूप में स्थापना हालाँकि उसके कुछ महीने बाद हुई; मग़र उससे पहले ही बेन-गुरियन ने, किसी भी राष्ट्र की दृष्टि से रहनेवाला इस विभाग का अनन्यसाधारण महत्त्व जानकर, पहले से कार्यरत इस्रायली गुप्तचरों को इकट्ठा कर गुप्तचर विभाग का गठन करना शुरू किया था। इस विभाग के गुप्तचरों ने इस १९४८ के अरब-इस्रायली युद्ध में बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य किया था। उनमें से दो विशेष उल्लेखनीय काम यानी – एक, इटली ने इजिप्त को बेचे हुए चार अत्याधुनिक बाँबर लड़ाकू विमान उनके मूलस्थान से उड़ान भरने से पहले ही उन्हें निरुपयोगी बनाना और दूसरा, युरोप में से अरबों के लिए लगभग ८ हज़ार से भी अधिक राइफ़लें और गोला-बारुद लेकर आनेवाले ‘लिओ’ नामक जहाज़ को जलसमाधि दिलाना। इन दो कारनामों से अरब सेनाओं का मनोधैर्य काफ़ी हद तक ढ़ह गया था। उसके अलावा भी, शत्रु के दूरसंदेशवहन में बाधा पैदा करना, शत्रु के संदेश पकड़कर उनके बदले ग़लत संदेश भेजना, शत्रु की रसद को तोड़ना, शत्रु के आने के मार्ग में रोड़े उत्पन्न करना आदि महत्त्वपूर्ण काम इस विभाग के गुप्तचर करते थे।

इस समांतर पूरक कार्य के कारण ही मूल अहम कार्य, अर्थात् सन १९४८ के इस अरब-इस्रायली युद्ध में विजय हासिल करना, यह सफल होने के के लिए इस्रायली सेना को काफ़ी मदद हुई थी।(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

 

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