डॉ.आनंद कर्वे : भाग – १

महर्षि धोंडो केशव कर्वे इनके नाती, इरावती कर्वे (विख्यात मराठी लेखिका), और दिनकर कर्वे (शिक्षा-विशेषज्ञ) इस दंपती के सुपुत्र इस पहचान के साथ-साथ कृषिविशेषज्ञ एवं तत्संबंधित विविध शोध जिनके नाम हैं ऐसे संशोधक अर्थात डॉ.आनंद कर्वे। जर्मनी से वनस्पतिशास्त्र में पी.एच.डी.की उपाधि प्राप्त कर अपनी मातृभूमि का सम्मान करते हुए अपने देश में लौटकर इसी मिट्टी के साथ संबंध बनाए रखने वाले शास्त्रज्ञ कहना ही अधिक योग्य होगा।

विदेश से लौटने पर शिवाजी महाविद्यालय में वनस्पति विभाग प्रमुख, इसके पश्चात १९६६ से फलटन के ‘निंबकर सीडस्‌ के रिसर्च डायरेक्टर’ इन सभी जिम्मेदारियों को संभालते हुए आगे चलकर डॉ. कर्वे ने ‘निंबकर ऍग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टिट्यूट’ की स्थापना की। इस संस्था के अंतर्गत डॉ.कर्वे द्वारा करडई पर किया गया प्रयोग काफी प्रसिद्ध हुआ था। करडई के एक फूल में सैंकड़ों छोटे-छोटे फूल होते हैं इसी कारण कपास के समान ही करडई का भी हायब्रिड तुरंत नहीं होता है। परन्तु एक साधारण पद्धति के अनुसार क्रॉसपॉलिनेशन की प्रक्रिया भी आसान हो सकती है यह बात डॉ.कर्वे ने सिद्ध कर दिखाया। ‘कर्वे मेथड ऑफ क्रॉसपॉलिनेशन’ यह करडई के फूलों का पर-परागीकरण नवीनता के साथ करने की पद्धति दुनिया भर में मान्य कर ली गई।

विदेशी कृषि एवं वनस्पति शास्त्रज्ञों की ओर से इनकी काफी प्रशंसा की गई ऑस्ट्रेलिया, थायलैंड जैसे देशों से भी अनेकों विशेषज्ञ यह मेथड सीखने आये थे। इसके पश्चात डॉ. कर्वे ने अधिक पैदावार के लिए हायब्रिड तैयार करने के संबंध में संख्याशास्त्रीय नियम एवं उनके सूत्र तैयार किए। ये सभी बातें उन्होंने विशेषज्ञों को तो समझाया ही, परन्तु किसानों को किसानों की भाषा में वह भी उनके स्तर पर आकर समझाकर बतलाया। ‘ऑईल टेक्नॉलॉजिस्टस्‌ असोसिएशन ऑफ इंडिया’ की ओर से डॉ.कर्वे को प्रो.काणे पुरस्कार दिया गया। साथ ही वॉशिंग्टन के ‘युनायटेड स्टेट्स डिपार्टमेंट ऑफ ऍग्रीकल्चर’ की ओर से उन्हें ‘सर्टीफिकेट ऑफ मेरिट’ प्रदान करते हुए सम्मानित किया गया। सामान्य किसानों एवं उद्योगपतियों को हायब्रिड करडई का स्वप्न साकार करने में मदद मिली।

१९८०-८३ के दौरान युनायटेड नेशन्स के ‘फूड एण्ड ऍग्रीकल्चरल ऑर्गनायझेशन’ संस्था की ओर से मूँगफली का उत्पादन बढा़ने के संबंध में संशोधन के लिए डॉ.कर्वे म्यानमार गए थे। मूँगफली, मकई आदि के उत्पादन के संबंध में किए गए प्रयोग में उन्हें सफलता तो मिली ही परन्तु इन निरीक्षणों की जांच करने पर उन्हें पता चला कि मूँगफली के पौधे दिन  के समय बहर उठते तो शाम के समय उसके पत्ते दिखाई ही नहीं देते थे इसके पिछे छिपा कारण साथ ही नैसर्गिक रचना का रहस्य भी उनकी समझ में आ गया। बर्लिन के इंटरनॅशनल बोटॅनिकल काँग्रेस में डॉ.कर्वे ने अपना ‘स्टॅटेजिज्‌ इवॉलवड्‌ इन प्लांटस टू अवॉईड म्युच्युअल काँपिटिशन’ नामक प्रबंध पढ़ा।

लेग्युमिनोसी जाति की वनस्पति अपने पत्तों को संध्या होते ही अपने-आप में क्यों सिमट लेती हैं? यह पहेली सुलझ गई। उत्क्रांति का सिंद्धांत बतलानेवाले चार्ल्स डार्विन के समक्ष भी यह पहेली निर्माण हुई थी। उसी प्रकार पिछले देढ़ सौ से भी अधिक वर्ष पहले दुनिया भर के विशेषज्ञों से भी यह पहेली छूट नही रही थी। स्वयं डार्विन से भी न छूटनेवाली पहेली को सुलझाने वाले शास्त्रज्ञ के रूप में डॉ.आनंद कर्वे की प्रशंसा की गई।

अपनी मातृभूमि में लौटकर अपने देश की मिट्टी में काम करनेवाले इस संशोधक को स्वाभाविक है कि भारत में उतना अधिक सम्मान नहीं मिला जितना अधिक मिलना चाहिए था। फिर भी भारतीय कृषिक्षेत्र, किसानों एवं सर्वसामान लोगों के लिए यह उपयोगी साबित हो सके इस प्रकार का प्रयोग उन्होंने शुरू ही रखा। इस प्रकार के असंख्य प्रयोग एवं उसमें से होने वाले विविध प्रकार के संशोधन आदि की जानकारी हम अगले भाग में देखेंगे।

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