प्रो. हरमन मार्क

विज्ञानशास्त्र और गणित इन विषयों को नीरस एवं कठिन विषय मानकर इन विषयों के विकल्प (ऑप्शन्स) का चयन करने के प्रति कुछ लोगों का रुझान रहता है। इसी तरह पॉलिमर रसायनशास्त्र के बारे में भी कुछ लोगों का मत था। जिस सहजता से झिंगुर को झटक दिया जाता है, उसी सहजता से इस विषय को लोग झटक देते हैं। किंतु आज ज़माना बदल गया है।

प्रो. हरमन मार्क

साधारण तौर पर सा़ठ वर्ष के आसपास की उम्र का मानव निवृत्ति की भाषा बोलने लगता है। इसके विपरीत ‘पॉलिमर शास्त्र के पितामह’ के रूप में हम जिन्हें पहचानते हैं, उन प्रो. हरमन मार्क ने एक समारोह में ‘मुझे बूढ़े होने का समय ही नहीं है’ यह विधान किया था। अपने इस विधान के अनुसार वास्तव में मृत्यु आने तक वे कार्यरत रहे। भारत, चीन, रशिया, इस्त्रायल इत्यादि देशों में पॉलिमर रसायनशास्त्र की जानकारी देते हुए घूमते रहे, ज्ञान लेते और देते रहे।

प्रगति के मार्ग पर घुड़सवारी करनेवाले युरोप खंड के ऑस्ट्रीया देश में ३ मई, सन् १८९५ में इन भावी शिक्षक और पॉलिमर शास्त्र के प्रसारक का जन्म हुआ था। उम्र के स़िर्फ़ २६ वे वर्ष पी.एच.डी. की पदवी प्राप्त करके अपनी विद्वता और नए संशोधन के आधार पर उन्होंने असिस्टंट रिसर्च डायरेक्टर का पद प्राप्त किया। अगले पाँच वर्षों के लिए फ़िजिकल-केमिकल इंस्टिट्यूट (आज का व्हिएन्ना विद्यापीठ) में संचालक के रूप में कार्य करने लगे। इसी दौरान प्रसिद्ध शास्त्रज्ञ प्रो. अल्बर्ट आइनस्टाइन इस संस्था में वे संशोधन करते थे। सन् १९३२ से १९४० तक के आठ वर्ष उनके लिए तकलीफ़देह साबित हुए। दूसरे जागतिक महायुद्ध के समय में हरमन मार्क इम्पेरिअल आर्मी में थे। सेना के १५ सम्मान पदक उन्होंने प्राप्त किए। इस युद्ध में वे काफ़ी घायल हुए, किंतु हिटलर के कृष्णकृत्य और युद्ध का विध्वंस अपनी आँखों से देखने के बाद वे व्यथित हो गए और उन्होंने अमेरिका का सहारा लिया, शायद नियति के मन में भी उन्हें पॉलिमर क्षेत्र में उच्च पद पर ले जाने की योजना थी।

सन् १९४६ वर्ष में उन्होंने ब्रुकलिन में पॉलिमर रिसर्च इंस्टिट्यूट की स्थापना की। यहाँ पर प्लास्टिक पदार्थ के गुण बढ़ाकर और दोष कम करके उसे रोज़ के उपयोग में लाने के लिए हम क्या कर सकते हैं, इस दृष्टि से संशोधन का काम करने लगे। इस विषय पर उनके मार्गदर्शन के अनुसार अनेक विद्यार्थी संशोधन कर रहे थे और इसी संशोधन द्वारा अनेक प्लास्टिक पदार्थ, धागे, रंग और फ़िल्म के कई छोटे बड़े उद्योग निर्माण हुए। अनेक छोटे-बड़े कारखानों के मालिक प्रो. मार्क की सलाह लेते थे। स्टँडर्ड ऑईल ऑफ़ इंडियाना, ड्यू पॉट ऐसे बड़े-बड़े कारखानों में सलाहकार के रूप में वे काम देखते थे।

शास्त्रीय जगत् में छोटी-बड़ी प्रयोगशाला में क्या संशोधन चल रहा है इन सबकी संपूर्ण जानकारी इकठ्ठा करके एनसायक्लोपिडीया ऑफ़ पॉलिमर सायन्स और टेक्नॉलॉजी के १५ खंड़ो का काम उन्होंने सन् १९७२ तक पूर्ण किया। आज विश्‍व के बड़े बड़े ग्रंथालयों में ये खंड युवा शास्त्रज्ञों के लिए उपलब्ध हैं। पाँच सौ से अधिक शास्त्रीय निबंध, लेख प्रो. मार्क ने प्रसिद्ध किए। नये शास्त्रज्ञों की पीढ़ी तैयार करने के लिए उन्होंने ऐसे लगभग २० पुस्तकों के लेखन के द्वारा ज्ञान का भंडार खोल दिया।

निसर्ग में प्राप्त होनेवाले पॉलिमर अर्थात सेल्युलोज, स्टार्च, रेशम, रबर, स्टायरीन जैसे रसायनों का गहराई से अध्ययन करके पॉलिमर शास्त्र की उन्होंने प्रचंड संपत्ति का निर्माण किया। ‘टर्निंग प्लाईट’ ‘वर्ल्ड धिस वीक’ ऐसे उत्सुकता से देखे जानेवाले टी.व्ही. कार्यक्रम जैसा ‘आलेस लेबेन इस्ट शेमी’ (रसायनमय जीवन) ऐसे शीर्षक वाले दर्जेदार, चित्तवेधक, उत्कृष्ट कार्यक्रम की सहायता से उन्होंने इस शास्त्र के प्रति लोगों के कौतूहल निर्माण करने का प्रयत्न किया। ऑस्ट्रियन जनता प्रो. मार्क के इस कार्यक्रम को बिना भूले उत्सुकता से देखती थी। इस कार्यक्रम के कारण वे सामान्य लोगों में बहुत लोकप्रिय हो गए।

प्रो. मार्क से मिलने के लिए दुनिया भर से अनेक शास्त्रज्ञ आने लगे। भारत के श्रेष्ठ संशोधक, नोबेल पुरस्कार विजयी सर सी. डी. रामन ने प्रो. मार्क और श्रीमती मार्क की मेहमाननवाजी का अनुभव प्राप्त किया था। प्रो. मार्क की पत्नी और सर्वसामान्य परंतु उत्कृष्ट गृहिणी होनेवाली ‘मिमी’ ने अपने पति के संशोधन कार्य में बहुत सहकार्य किया। अत्यंत गंभीर समय में साथ दिया ही इसके अलावा घर की चिंता, जिम्मेदारी से उन्हें दूर रखकर उनके संशोधन को भरपूर समय दिया। ऐसा सहकार्य शोधक की तुलना में कम मूल्यवान नहीं है।

सन् १९६२ में प्रो. मार्क भारत पहुँचे। पुणे की राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला को उन्होंने भेंट दी। उनके महत्त्वपूर्ण और सहज आसान व्याख्यान एक मधुर यादगार बनकर आज भी लोगों के दोलों में बसे हैं।

सेल्युलोज अर्थात रुई के मूलभूत पदार्थ में रहनेवाली वैशिष्टयपूर्ण रचना की खोज़ करने के लिए उन्होंने ‘एक्स-रे-डिफ्रैक्शन’ नामक पद्धति की खोज़ की। इस आविष्कार के कारण अनेक प्लास्टिक पदार्थों का विश्‍लेषण करना आसान हो गया। इससे संबंधित विशेष तौर पर उनका उदार स्वभाव दर्शानेवाली बात निम्नलिखित है –

नोबेल विजेता डॉ. लिनस पॉलींग कुछ संशोधन कर रहे थे। उनके इस विश्‍लेषण करनेवाले साधन प्रयोगशाला में बनाने की अनुमति माँगते ही प्रो. मार्क ने तुरंत ही बिना कुछ कहे दे दी। अहंकार के लिए उनके दिल में कोई जगह नहीं थी। विज्ञान की प्रगति होकर वह ज्ञान सारे लोगों तक पहुँचे यही उनकी मनिषा थी।

इथिलबेंझिन रसायन द्वारा प्रो. मार्क ने स्टायरीन तैयार किया। इस पद्धति के कारण पॉलिस्टायरीन प्लास्टिक और कृत्रिम रबर की कम खर्च में औद्योगिक उत्पादन कर सकते हैं, यह बात उन्होंने साबित की। सन् १९३० वर्ष में पॉलिस्टायरीन बाजार में आ गया। (थर्माकोल यह पॉलिस्टायरीन से बनाया जाता है।) रबर के स्थितिस्थापकत्व के सिद्धान्त और रबर के विषय में संशोधन करने के कारण दूसरे महायुद्ध के समय कृत्रिम रबर का औद्योगिक उत्पादन करके पॉलिमर उद्योग को प्रगति की दिशा मिली।

किसी व्रतस्थ के भी आगे जाकर इस शास्त्र की प्रगति के लिए दिन रात प्रयत्नशील रहनेवाले आदर्श शिक्षक और संशोधक की ९०वीं वर्षगांठ मनाने के लिए अपनेपन से केवल उनके असंख्य छात्र ही नहीं बल्कि प्रो. पॉल फ्लोरी, प्रो. लिनस पॉलिंग इत्यादि नोबेल विजेता भी उपस्थित थे। ऑस्ट्रिया के अध्यक्ष ने इस ऑस्ट्रियन सुपुत्र को ‘नाईट कमांडर्स ग्रेट गोल्डन क्रॉस फ़र्स्टक्लास’ की उपमा देकर सम्मानित किया। इसके पहले ही सन् १९५५ वर्ष में उनके ६०वें वर्ष में उन्हें जर्मनी लोगों ने ‘गेहीमराट’ (Geheimrat अर्थात हम ‘जनमान्य’ ऐसा सम्मान से कहते हैं उसी तरह) इस पदवी द्वारा उन्हें सम्मानित किया।

९० साल की उम्र (नव्वदी) होने के बाद भी प्रो. मार्क इनके ज्ञान का उपयोग संशोधन क्षेत्र के जगत्-विख्यात ‘नासा’ संस्था को सलाह देते थे। ९७ वे वर्ष में मार्क ने कुछ केमिकल इंजिनियर्स लोगों को संदेश दिया –

‘नये नये संशोधन करो, ऐसे पदार्थ निर्माण करो जो व्यवहार में उपयोगी हों। उसी तरह उपयोग करने के बाद भी उसका ङ्गिर से कैसे उपयोग कर सकते हैं, इस पर विचार करो।’

आज पूरे विश्‍व में होनेवाले विभिन्न प्रकार के कचरे का विनाश, विघटन, प्रदूषण और आरोग्य आदि से संबधित समस्याएँ भविष्य में कम हों इसके लिए यह संदेश बहुत कुछ कह जाता है।

भविष्यकाल की आहट सुनकर पॉलिमरशास्त्र लोगों तक पहुँचानेवाले इस जनमान्य निपुण शिक्षक ने जीवन के अंतिम क्षणों तक काम करते हुए ६ अप्रैल १९९२ वर्ष को अपनी उम्र के ९७वें वर्ष में दुनिया से विदा ले ली।

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