दार्जिलिंग भाग-१

दार्जिलिंग

अप्रैल का महीना शुरू हो चुका है और गर्मी के कारण हर कोई परेशान है। स्कूल और कॉलेज की भी छुट्टियाँ शुरू हो चुकी हैं। इसी कारण हर कोई घूमने के लिए बाहर जाना चाहता है और ऐसी ते़ज गर्मी में कोई भी हिल स्टेशन जाना ही पसन्द करता है।

हिल स्टेशन्स अर्थात् ऊँचे पर्बत पर बसे हुए ऐसे स्थान, जहाँ का मौसम इन गर्मी के दिनों में भी ठण्ड़ा होता है। हमारे भारत में ऐसे कईं हिल स्टेशन्स हैं और वहाँ पर पहले से ही लोग रहते थें। लेकिन अंग्रे़जों के जमाने से ये स्थान ‘हिल स्टेशन्स’ इस नाम से पहचाने जाने लगे। ब्रिटन से भारत आये हुए अंग्रे़जों के लिए भारत के मैदानी इलाकों की गर्मी को सहना बहुत मुश्किल था, तब उन्होंने ऐसी गर्मी में जहाँ का मौसम ठण्डा हो, ऐसी जगहों की खोज करना शुरू किया। उनकी इस खोज के दौरान उन्होंने भारत में स्थित इन ऊँचाई के स्थानों को ढूँढ़ निकाला और गर्मी के दिनों में उन स्थानों पर जाकर वे रहने लगे और गर्मी से उन्होंने छुटकारा पाया।

इसी खोज के दौरान अंग्रे़जों ने ढूँढ़ निकाला, ‘दार्जिलिंग’। दार्जिलिंग का नाम लेते ही सबसे पहले याद आती है, दार्जिलिंग चाय की और दूसरी दार्जिलिंग की ‘टॅाय ट्रेन’।

हिमालय की शिवालिक पर्वतश्रेणियों में बसा हुआ दार्जिलिंग। देखिए, हिमालय  का नाम लेते ही मन को थोड़ीबहुत तो ठंड़क महसूस हुई ना? शिवालिक पर्वतश्रेणियाँ हिमालय की सबसे युवा (जिनका निर्माण हाल ही के कु़छ हजार वर्षों में हुआ हैं) पर्वतश्रेणियाँ  मानी जाती हैं। ऐसी पर्वतश्रेणियों में लगभग 6,982 फ़ीट की ऊँचाई पर दार्जिलिंग बसा हुआ है। दार्जिलिंग  पश्चिम बंगाल में स्थित है।

‘गरजनेवाली बिजली का प्रदेश’ ऐसा दार्जिलिंग इस नाम का अर्थ बताया जाता है।

भले ही अंग्रेजों ने दार्जिलिंग की एक हिल स्टेशन के रूप में खोज की हो, लेकीन उससे भी पहले एक छोटे स्थान के रूप में दार्जिलिंग का अस्तित्व तो था ही।

पुराने जमाने में अर्थात १८ वी और १९ वी सदी में दार्जिलिंग पर सिक्कीम और नेपाल का राज था। पहले सिक्कीम और बाद में नेपाल के हाथों में दार्जिलिंग की सत्ता की डोर थी। इसवी १८१३ के आसपास किसी असामंजस्य के कारण नेपाल और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच जंग छिड़ गयी। सुगौली सुलहनामे के मुताबिक नेपाल को लगभग  १०,००० कि.मी. का प्रदेश अंग्रे़जों को देना पड़ा। लेकिन इस समय दार्जिलिंग का कुछ हिस्सा सिक्किम के कब्ज़े में था और इसवी १८२८ में उनके बीच एक विवाद उत्पन्न हुआ, जिसका निर्णय करने के लिए, सच्ची जानकारी हासिल करने के लिए अंग्रे़जों ने उनके दो अफसरों को भेजा। उन दो ब्रिटिश अफसरों ने उनके इस कार्य के दरमियान दार्जिलिंग में कुछ समय के लिए वास्तव्य कियाथा। तुरन्त ही उन्होंने दार्जिलिंग के एक हिल स्टेशन के रूप में होनेवाले महत्त्व को पहचान लिया और अंग्रेज़ सैनिकों के लिए यहाँ एकाद सैनिटेरियम बाँधा जा सकता हैं, यह सोच-विचार भी किया। उस कार्य के बाद लौटते ही उन्होंने उनके वरिष्ठ अफसरों को अपने इस निरीक्षण के बारे में बताया।

ऐसा यह हिल स्टेशन, जो सिक्किम के राजा के कब्जे में था, उसे कुछ वर्षों के लिए किराये पर लेने के लिए जनरल लॉईड को सिक्किम के चोग्याल राजा के पास मध्यस्थ के रूप में भेजागया।

अंग्रेज़ों की इस स्थान पर उनके सैनिकों के लिए सॅनिटेरियम का निर्माण करने की संकल्पना को सुनते ही चोग्याल राजा ने अंग्रेज़ों को यह जगह दे दी। यह घटना इसवी १८३५  मेंहुई। इसके बदले में अंग्रेज़ों ने सिक्किम के राजा को ३०००/-रु. इतनी रकम दे दी। आगे चलकर उस रकम को बढ़ाकर ६०००/-रु.कर दिया। लेकिन जब अंग्रेज़ों ने दार्जिलिंग पर अपना वर्चस्व प्रस्थापित किया और दार्जिलिंग को अपने साम्राज्य का हिस्सा बनाया, तब से सिक्किम के राजा को दी जानेवाली यह सालाना रकम देना पूरी तरह बंद कर दिया।

दार्जिलिंग पर कब्ज़ा जमाते ही अंग्रेज़ों द्वारा डॅा.कॅम्पबेल और लेफ्टनंट नेपियर को इस स्थान का विकास करने के लिए भेजा गया।  इस स्थान पर अंग्रेज़ सैनिकों के लिए सॅनिटेरियम का निर्माण करना और हिल स्टेशन के रूप में इस स्थान को विकसित करना, ये महत्वपूर्ण कार्य कॅम्पबेल और नेपियर को सौंपे गये थें। इसके अनुसार इसवी १८३९  में डॅा.कॅम्पबेल वहाँ के सॅनिटेरीयम के पहले व्यवस्थापक बने।

ऊँचाई पर स्थित होने के कारण दार्जिलिंग को बाकी के मैदानी इलाकों के साथ जोड़ना यह प्रमुख आवश्यकता थी; क्योंकि जब तक दार्जिलिंग को इस तरह आसपास के मैदानी इलाकों के साथ नहीं जोड़ा जाता, तब तक दार्जिलिंग का विकास होना बहुत ही मुश्किल था। इसीलिए फिर  रास्तों का निर्माण किया और उससे इस हिल स्टेशन के विकास में काफी हद तक मदद मिली। दूसरी एक और महत्त्वपूर्ण बात इस स्थान के विकास का कारण बनी और वह थी, इस स्थान पर की गयी चाय की खेती।

डॉ.कॅम्पबेल इसवी १८४१ में कुमाऊँ से चाय के बीजों को यहाँ पर ले आए। वह जहाँ रह रहे थे, उसी के पास एक प्रयोग के तौर पर उन्होंने इन बीजों को बोया और उन्हें इसमें सफलता मिली। उसके बाद वहाँ पर आये अंग्रेजों ने उन्हीं के मार्ग का स्वीकार करके यहाँ पर चाय की खेती करना शुरू किया और यहीं से दार्जिलिंग में चाय-बागानों की शुरुआत हुई । चाय की खेती के साथ साथ कई टी इस्टेट साकार होने लगे।

रास्ते का निर्माण और चाय की खेती इन दो बातों के कारण दार्जिलिंग का केवल विकास ही नहीं हुआ, बल्कि दार्जिलिंग आर्थिक दृष्टि से भी समृद्ध होने लगा। दार्जिलिंग की संपन्नता एवं समृद्धि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और सिक्किम के राजा के बीच के झगड़े का कारण बन गयी। यह झगड़ा इतना बढ़ गया की दो अंग्रेज़ जब सिक्किम के प्रदेश में गये, तब सिक्किम ने उन्हें बन्दी बनाकर रख दिया। इन बन्दियों की रिहाई के लिए अंग्रेज़ों ने अपनी सेना को भेजा और बिना किसी रक्तपात के ही उन बन्दियों को सिक्किम ने रिहा भी कर दिया। लेकिन इस घटना के बाद अंग्रेज़ों ने राजा को दी जानेवाली रकम को देना पूरी तरह बन्द कर दिया और दार्जिलिंग को अपने साम्राज्य के साथ जोड़ दिया।

ऐसे इन झगड़ो और छोटी-छोटी लड़ाइयों के चलते भी अंग्रेजो ने दार्जिलिंग का विकास करना जारी रखा था। इसवी १८५० में दार्जिलिंग में म्युनिसिपालटी की स्थापना की गई। संक्षेप्त में देखा जाये तो, सॅनिटेरीयम का निर्माण करने के उद्देश्य से दार्जिलिंग आये हुए अंग्रेज़ों ने वहाँ पर अपना डेरा तो जमा ही लिया, साथ ही उसे अपने साम्राज्य का हिस्सा भी बना लिया।

दार्जिलिंग को आसपास के मैदानी इलाकों के साथ जोड़ने के लिए अंग्रेज़ों ने रास्ता तो बनाया ही था, लेकिन इसवी १८८१ में उन्होंने इतनी ऊँचाई पर बसे इस स्थान को मैदानी इलाके के साथ रेल द्वारा जोड़ दिया। अब रास्ता और रेल्वे इन दो साधनों के कारण दार्जिलिंग यह एक महत्त्वपूर्ण हिल स्टेशन बनने लगा। जैसा हमने पहले ही देखा है की अंग्रेज़ों ने इसे हिल स्टेशन के रूप में भी विकसित किया ही था और इसी कारण कई अंग्रेज़ अफसर उनसे न सही जानेवाली भारत की गर्मी से छुटकारा पाने के लिए यहाँ पर आकर रहते थें। अंग्रेज़ों के साथ साथ भारत का संपन्न, उच्चशिक्षित वर्ग एवं रियासतों के मालिक भी यहाँ पर वास्तव्य करने के लिए आने लगे। इसवी १८३५ में केवल सौ लोगों की आबादी जहाँ थी, ऐसा यह गाँव धीरे धीरे विकसित होने लगा। यहाँ पर छुट्टियाँ मनाने के लिए कई लोगों का आना शुरू हुआ और फिर उनकी ज़रूरतों की पूर्ति करने के लिए अन्य लोग भी वहाँ आने लगे और व्यवसाय की दृष्टि से धीरे-धीरे वहीं पर बसने लगे।

भारत के आजाद होने के पूर्व ही दार्जिलिंग पश्‍चिम बंगाल का हिस्सा था, इसलिए आजादी के बाद भी वह पश्चिम बंगाल का ही हिस्सा रहा। हिमालय और प्राकृतिक सुन्दरता का एक अटूट रिश्ता है और इसीलिए दार्जिलिंग और प्राकृतिक सुन्दरता का एक अटूट रिश्ता है।

आज दार्जिलिंग ‘क्वीन ऑफ हिल्स’ के नाम से जाना जाता है। लेकिन दार्जिलिंग की आज की इस पहचान में उन दो अ़ङ्गसरों के द्वारा किये गये अचूक निरीक्षण का महत्त्वपूर्ण योगदान है।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published.