रक्त एवं रक्तघटक – ५८

पिछले लेख में हमने रक्तसमूह के बारे में जानकारी प्राप्त की। किसी भी व्यक्ति को खून चढ़ाते समय उसी के रक्तसमूह वाला रक्त चढ़ाना पड़ता है अन्यथा उस व्यक्ति के प्राणों का खतरा उत्पन्न हो जाता है। O-A-B रक्तसमूह की तरह दूसरा Rh समूह भी उतना ही महत्त्वपूर्ण होता है। खून चढ़ाते समय उस व्यक्ति के O-A-B रक्त समूह की ही तरह Rh समूह को भी मिलाना पड़ता हैं यानी दोनों समूहों का मिलना आवश्यक है।

रक्तसमूह

रक्तसमूहों में कुल छ: प्रकार के अँटिजेन्स होते हैं। उन्हें C, D, E, c, d, e नाम दिये गए हैं। प्रत्येक व्यक्ति के रक्त में C-c, D-d और E-e में से एक अँटिजेन होता हैं। यानी यदि D अँटिजेन होगा तो d अँटिजेन नहीं होगा, C अँटिजेन होगा तो c अँटिजेन्स नहीं होता। प्रत्येक व्यक्ति में छ: में से तीन अँटिजेन्स होते हैं। इनमें D अँटिजेन्स ज्यादा से ज्यादा व्यक्तियों में पाया जाता है और इनका अँटिजेन अँटिबॉडीज प्रतिक्रिया में महत्त्वपूर्ण सहभाग होता है। जिन व्यक्तियों में ये अँटिजेन होते हैं उन व्यक्तियों को Rh पॉझिटिव्ह कहा जाता हैं। जिन व्यक्तियों में D अँटिजेन नहीं होता है उन्हें Rh निगेटिव्ह कहा जाता है। जिन व्यक्तियों में A और D दोनों अँटिजेन्स पाये जाते हैं उन व्यक्तियों का रक्तसमूह A Rh पॉझिटिव्ह तथा जिनके रक्त में स़िर्फ़ A अँटिजेन होता हैं उनका रक्तसमूह A Rh निगेटिव्ह होता है।

O-A-B और Rh इन दोनों समूहों में एक महत्वपूर्ण फ़र्क होता है। O-A-B समूह के प्लाझ्मा में अँटिबॉडिज अथवा अग्लुटिनिन्स अपने आप और spontaneously निर्माण होते हैं। हमने पिछले लेख में देखा कि जिनकी रक्तपेशियों में A अँटिजेन होता है, उनके प्लाझ्मा में अँटि B अँटिबॉडिज अपने आप तैयार होती रहती हैं, क्योंकि वहाँ पर B अँटिजेन नहीं होता है। Rh समूह में ऐसा नहीं होता। Rh निगेटिव्ह व्यक्ति के रक्त में D अँटिजेन नहीं होता हैं परन्तु उसके प्लाझ्मा में अँटी D अँटिबॉडिज नहीं होती हैं। यदि Rh निगेटिव्ह व्यक्ति के रक्त में किसी भी प्रकार से Rh पॉझिटिव्ह व्यक्ति का रक्त मिल जाये तो ठह निगेटिव्ह व्यक्ति में अँटि D अँटिबॉडिज तैयार होते हैं। यदि O-A-B रक्तसमूह से ना मिलनेवाला रक्त किसी व्यक्ति में चढ़ा दिया जाये तो उसका रिअ‍ॅक्शन तुरंत होता है। परन्तु Rh समूह के बारे में ऐसा नहीं होता। यदि Rh निगेटिव्ह वाले व्यक्ति को Rh पॉझिटिव्ह रक्त चढ़ा भी दिया जायें तो उसका रिअ‍ॅक्शन धीरे-धीरे होता है। अँटि D अँटिबॉडिज के तैयार होने में दो से चार महीनों का समय लगता है। इसके बाद रक्त में जितनी Rh पॉझिटिव्ह पेशियां शेष बचती हैं उतनी ही पेशियां नष्ट होती हैं। इसीलिए यदि समूह का ना मिलनेवाला रक्त किसी व्यक्ति में चढ़ा दिया जाए तो भी उसके प्राणों का खतरा नहीं होता। वास्तव में Rh निगेटिव्ह व्यक्ति को Rh पॉझिटिव्ह रक्त के कारण बड़ा खतरा कभी भी नहीं होता। परन्तु ऐसे व्यक्ति के शरीर में अँटि D अँटिबॉडीज शीघ्रता से बनाने की क्षमता निर्माण हो जाती है। मान लो ऐसे व्यक्ति को पुन: दूसरी बार Rh रक्त चढ़ा दिया जाये तो ये Rh पॉझिटिव्ह पेशियां तुरंत नष्ट हो जाती है जो उस व्यक्ति के प्राणों के लिए नुकसानदेह साबित होता है।

Rh निगेटिव्ह -Rh पॉझिटिव्ह रक्त में रिअ‍ॅक्शन्स का सबसे ज्यादा धोखा गर्भ के बच्चों को होता हैं। माँ Rh निगेटिव्ह और बाप Rh पॉझिटिव्ह हो और गर्भ में बढ़नेवाला बच्चा भी Rh पॉझिटिव्ह हो तो उस बच्चे को धोखा हो सकता है। इस रोग को वैद्यकीय परिभाषा में ‘Erythroblastosisfetalis’ कहा जाता है। इस विकार में होता यह है कि बच्चे का Rh पॉझिटिव्ह रक्त नाल के माध्यम से माँ के रक्त में मिल जाती हैं। माँ के शरीर में अँटि D अँटिबॉडिज तैयार हो जाती हैं। नाल के माध्यम से ये अँटिबॉडिज बच्चे को दी जाती हैं। ये अँटिबॉडीज बच्चे की लाल रक्तपेशियों को नष्ट कर देती हैं। फ़लस्वरूप बच्चे को गर्भ में ही या जन्म के बाद पीलिया हो जाता है। यदि बच्चे की लाल रक्तपेशियां ज्यादा मात्रा में नष्ट हो जाए तो या पीलिया के कारण भी बच्चे की मौत भी हो सकती है। पीलिया होने का मतलब है रक्त में बिलिरुबिन की मात्रा का बढ़ जाना। रक्तपेशियों के हीम भाग से विलिरुबिन कैसे बनता है, यह हमने पहले ही समझ लिया है।

उपरोक्त परिस्थिति में साधारणत: प्रथम प्रसूति के समय बच्चे को यह रोग नहीं होता है, क्योंकि इस दौरान माँ के रक्त में और अँटिबॉडीज तैयार होते रहते हैं। दूसरी प्रसूति के दौरान यह विकार ३% अर्भकों में होता है और तीसरी प्रसूति के समय यही प्रमाण १०% तक बढ़ जाता है। इस प्रकार से अगली प्रत्येक प्रसूति के दौरान इस रोग का प्रमाण बढ़ता ही रहता है।

अब हम देखेंगे कि इस रोग के दौरान बच्चे के शरीर में क्या घटित होता है। अँटि D अँटिबॉडीज माता से बच्चे के रक्त में आने के बाद बच्चे की लाल रक्तपेशियों की गुठली या गोला बन जाता है (अग्लुटिनेशन)। इस गुठली की लाल रक्तपेशियां नष्ट हो जाती है और इनसे बाहेर निकलनेवाली हिमोग्लोबिन से बिलिरूबिन तैयार होती है। बिलिरूबिन शरीर के विभिन्न भागों में जमा हो जाती हैं। इसके कारण शरीर, आँखें पीली पड़ जाती हैं। इसे ही हम पीलिया कहते हैं।

इस रोग से पीडित बच्चा जन्म से ही पीला दिखायी देता है अथवा अगले २४ घंटों में पीला पड़ जाता है। बच्चे की लाल रक्तपेशियों के ज्यादा मात्रा में नष्ट हो जाने के कारण बच्चा अ‍ॅनिमिक हो जाता है। अ‍ॅनिमिया के सीमा से ज्यादा हो जाने पर बच्चे के प्राण खतरे में पड़ सकते हैं। रक्त में बढ़ी हुई बिलिरूबिन मस्तिष्क में भी जमा हो जाती है। फ़लस्वरूप मस्तिष्क की पेशियों के कार्यों पर विपरित असर पड़ता हैं और वे मृत हो जाती हैं। इसे वैद्यकीय भाषा में करनिक्टेरस (Kernicterus) कहते हैं।

इस बीमारी की रोकथाम अथवा इसका उपचार –
१) बच्चे की हिमोग्लोबिन बढ़ाकर, अ‍ॅनिमिआ के संकट को दूर करना और
२) बच्चे के रक्त में बिलिरूबिन की मर्यादा को सीमित रखना, जिससे करनिक्टेरस का निर्माण नहीं होगा।

उपरोक्त दोनों उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बच्चे को रक्त चढ़ाना आवश्यक होता है। नवजात शिशु में स़िर्फ़ खून चढ़ाना भी खतरनाक साबित होता है। इसीलिए ऐसी परिस्थिति में डॉक्टर लोग दूसरा रास्ता अपनाते हैं। इस अर्भक को Rh निगेटिव्ह खून चढ़ाया जाता है और उसी समय बच्चे का Rh पॉझिटिव्ह खून निकाला जाता हैं। इस क्रिया को Exchange transfusion कहते हैं। एक्सचेंज ट्रान्सफ्यूजन के कारण बच्चे के रक्त का ठह पॉझिटिव्ह रक्तपेशी और माता से आयी हुयी Anti-D अँटिबॉडीज दोनों बाहर निकाली जाती हैं। यह क्रिया एक ही समय पर संभव नहीं होती। इसीलिए इसे Exchange transfusion अगले कई दिनों तक बार-बार करना पड़ता है। बच्चे के शरीर से बिलिरुबिन कम करने के लिए ‘फ़ोटोथेरपी’ का उपयोग किया जाता है। कुछ विशिष्ट प्रकाशकिरणों की सहायता से शरीर की बिलिरूबिन को शीघ्रता से बाहर निकालने में मदत होती है। ऐसी उपयुक्त किरणें सूर्य के द्वारा हमें सतत प्राप्त होती रहती हैं। इसीलिए पीलिया से पीडित नवजात शिशु को प्रतिदिन हलकी धूप में रखने की सलाह डॉक्टर देते हैं।

इस रोग का वर्तमान समय में ऐसे उत्तम उपायों की उपलब्धता के फ़लस्वरूप बच्चे के प्राणों को धोखा संभव नहीं होता। क्या इस रोग को टाला या रोका जा सकता है? हाँ, इस रोग को हम टाल सकते हैं। Prevention is better than cure इस उक्ति के अनुसार इस रोग को टालने के लिये दो उपाय हैं –

१) Rh निगेटिव्ह माता को प्रथम प्रसूति के समय प्रथम अर्भक का रक्त-समूह निश्‍चित किया जाता है। यदि अर्भक का रक्तसमूह Rh पॉझिटिव्ह होता है तो माँ को एक इंजेक्शन दिया जाता है। यह इंजेक्शन माँ के रक्त में तैयार हुयी Anti-D अँटिबॉडीज को नष्ट करता है। फ़लस्वरूप अगली प्रसूति के समय बच्चे को कोई खतरा नहीं रहता।

२) दूसरा उपाय सामाजिक है। शादी से पहले दोनों का रक्तसमूह जाँच लेना चाहिए। Rh पॉझिटिव्ह लड़का और Rh निगेटिव्ह लड़की का संबंध, संभवत: टालना चाहिये।
(क्रमश:-)

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