८५. धरातल पर आधुनिक ‘इस्रायल’ का जन्म

‘हम इस इस्रायल की भूमि में ज्यू-राष्ट्र स्थापन हुआ होने की घोषणा इसके द्वारा कर रहे हैं’ – डेव्हिड बेन-गुरियन ने अपनी धीरगंभीर आवाज़ में घोषित किया।

१४ मई १९४८ के इस समारोह की शुरुआत ‘हातिक्वा’ (जो आगे चलकर इस्रायल का राष्ट्रगीत बन गया) गायन से हुई थी। उसके बाद डेव्हिड बेन-गुरियन ने धीरगंभीरतापूर्वक ज्यूराष्ट्र-स्थापना का घोषणापत्र पढ़ा और उपरोक्त पंक्ति से इस्रायल की स्थापना की घोषणा की।
उसके बाद, तय किये गये मान्यवरों के इस घोषणापत्र पर हस्ताक्षर हुए। फिर एक बार ‘पॅलेस्टाईन फिलहार्मोनिक ऑर्केस्ट्रा’ ने हातिक्वा का गायन किया और कार्यक्रम संपन्न हुआ है, ऐसा बेन-गुरियन ने घोषित किया।

१४ मई १९४८ को तेल अवीव्ह म्युझियम के हॉल में इस्रायल की स्वतन्त्रता का घोषणापत्र पढ़ते हुए डेव्हिड बेन-गुरियन

जिस भूमि में ज्यूधर्म का जन्म हुआ था, जो भूमि ईश्‍वर ने ही हमें प्रदान की है ऐसी ज्यूधर्मियों की श्रद्धा थी, जिस भूमि ने दुनिया को बायबल का उपहार दिया, जिस भूमि में सम्मानपूर्वक लौटने के लिए ज्यूधर्मियों ने थोड़े से नहीं, बल्कि लगभग दो हज़ार वर्ष प्रतीक्षा की थी, उसी भूमि में ‘ज्यू-राष्ट्र’ का अर्थात् ‘इस्रायल’ का जन्म हुआ था।

उस तेल अवीव के म्युझियम के हॉल में उपस्थित निमंत्रितों के मन में ईश्‍वर के प्रति होनेवाली कृतज्ञता, ज्यूधर्मियों की इतनी पीढ़ियों ने दृढ़तापूर्वक पकड़कर रखे ध्येय की पूर्ति का आनंद, मन में उमड़ रहीं भावनाएँ, यह सबकुछ केवल आनंदाश्रुओं के रूप में बाहर आ रहा था।

केवल हॉल में ही नहीं, बल्कि हॉल के बाहर भी ऐसा ही मंत्रमुग्ध माहौल था। क्योंकि इस समारोह के बारे में चाहे कितनी भी गोपनीयता का पालन किया गया हो, लेकिन ज्यूधर्मियों में कानाफूसी के ज़रिये धीरे धीरे यह ख़बर फैल रही थी और कार्यक्रम में प्रवेश हालाँकि केवल निमंत्रितों को ही था, मग़र हॉल के बाहर ज्यूधर्मियों के समूह एकत्रित होना धीरे धीरे शुरू हो चुका था।

इस सारे कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग की जाकर, उसे रेडिओ इस्रायल के ज़रिये प्रसारित किया गया था।

इसी बीच वहाँ न्यूयॉर्कमध्ये एक अलग ही नाट्य आकार ले रहा था। वहाँ जेरुसलेम के भविष्य पर विचारविमर्श करने के लिए युनो की विशेष बैठक बुलायी गयी थी। जेरुसलेम को प्रस्तावित ज्यू अथवा अरब राष्ट्र में समाविष्ट करने के बजाय, युनो की देखरेख में स्वतंत्र रखा जायें, इस आशय के तीन प्रस्ताव थोड़े थोड़े समय बाद प्रस्तुत किये जाकर वे ख़ारिज किये गये थे। पहला प्रस्ताव ग्वाटेमाला ने प्रस्तुत किया, दूसरा ऑस्ट्रेलिया द्वारा प्रस्तुत किया गया, तो तीसरा खुद अमरीका द्वारा। लेकिन अरब सदस्य राष्ट्रों के कड़े विरोध के कारण – जिन्हें जेरुसलेम यह अरब राष्ट्र का ही भाग होना चाहिए था – ये तीनों प्रस्ताव ठुकराये गये।

यह सब जब चालू था, तभी घड़ी में शाम के छः बज गये (न्यूयॉर्क स्थानिक वेळ), यानी अब (पॅलेस्टाईन में रात के बारह बज गये होने के कारण) अधिकृत रूप में ब्रिटीश मँडेट ख़त्म हो चुका था। बैठक में उपस्थित इराक के प्रतिनिधि ने झट से उठकर इस बात पर सभा का ग़ौर फ़रमाया। अब ब्रिटीश मँडेट ही नहीं रहने के कारण, जेरुसलेम के बारे में ़फैसला करने का अधिकार युनो के पास नहीं रहा था। अतः अब जेरुसलेम का भवितव्य पॅलेस्टाईन प्रांत के ज्यूधर्मीय और अरब ही तय करनेवाले थे….एक अटल ऐसे संघर्ष के द्वारा ही!

यह संघर्ष अटल है और भयंकर भी होनेवाला है, इसका अँदाज़ा ज्यूधर्मियों को था ही; क्योंकि इस्रायलस्थापना के इस घोषणा-समारोह को भी एक अलग ही ‘बॅकग्राऊंड म्युझिक’ प्राप्त हुआ था – दूर से सुनायी देनेवाली बंदूक की गोलियों का और तोपगोलों की आवाज का! पॅलेस्टाईन प्रांत में चल रहा ज्यू-अरब संघर्ष ख़त्म नहीं हुआ था – वह जारी ही था।

लेकिन ज्यूधर्मियों का पल्ड़ा भारी होता हुआ स्पष्ट रूप में दिखायी दे रहा था। हैफा जैसे कई महत्त्वपूर्ण शहर ज्यूधर्मियों के कब्ज़े में आकर वहाँ की अरब जनसंख्या डर के मारे पलायन कर रही थी। ख़ासकर डेईर यासिन लड़ाई के बाद स्थानिक अरब जनसंख्या के मन में ज्यूधर्मियों को लेकर ख़ौफ़ पैदा हुआ था और किसी शहर या गाँव पर हॅगाना का हमला हुआ, तो वहाँ की अरब जनसंख्या उस शहर-गाँव में से पलायन कर देती थी। लेकिन कई जगहों में ऐसा भी घटित हुआ कि अरब टोलीवालों ने ही, अहम और संवेदनशील स्थानों पर अपने सैनिकी बेस तैयार करने के लिए स्थानिक अरबों को उस उस गाँव से बाहर निकालकर अन्यत्र पनाह लेने के लिए कहा।

मई १९४८ तक यह पॅलेस्टिनी अरब निर्वासितों की संख्या ३ लाख तक पहुँच चुकी थी। अगले कुछ महीनों में यह संख्या ७ लाख तक पहुँच गयी। इनमें से कई लोगों ने पड़ोस के लेबेनॉन, जॉर्डन, सिरिया, इजिप्त एवं इराक आदि अरब राष्ट्रों में पनाह ली थी। लेकिन कइयों ने – भविष्य में यदि हालात पुनः अनुकूल हुए, तो अपने अपने गाँव लौटना आसान हों, इसलिए पॅलेस्टाईनप्रांत में ही अन्यत्र अरब बस्तियों में आश्रय लेना पसन्द किया, जिनमें प्रायः ‘वेस्ट बँक’ और ‘गाझापट्टी’ की अरब बस्तियों का समावेश था। ‘जल्द ही अरब लीग के सदस्य देशों की सेनाएँ ज्यूधर्मियों पर हमलें करेंगे और जब वे ज्यूधर्मियों को नेस्तनाबूद करेंगे, तब हम पुनः अपने घर लौटेंगे’ ऐसा उनका मानना था।

इन सब बातों का अँदाज़ा होनेवाले डेव्हिड बेन-गुरियन ने इसी कारण, घोषणापत्र पढ़ दिखाने के केवल आधे घण्टे में ही समारोह संपन्न हुआ है, ऐसा घोषित किया। यहाँ समारोह मनाने के लिए किसे फुरसद थी? समारोह संपन्न होने के बाद थोड़ासा भी व़क्त ज़ाया न करते हुए उन्होंने फ़ौरन अपने लष्करी मुख्यालय की ओर – इस्रायलस्थापना की घोषणा के बाद के संभाव्य घटनाक्रमों पर विचारविमर्श करने के लिए दौड़ लगायी।

अमरीका ने हालाँकि पॅलेस्टाईनस्थित अशांत हालातों को देखते हुए विभाजन का निर्णय अस्थायी रूप में स्थगित करने का सुझाव दिया था, फिर भी राजनयिक स्तर पर अमरीका का समर्थन प्राप्त करने के प्रयास जारी थे। इस्रायली नेता वाईझमन ने अमरिकी राष्ट्राध्यक्ष ट्रुमन से संपर्क स्थापित कर, ज्यूधर्मियों का पक्ष रखते हुए, ट्रुमन को इस प्रस्तावित ज्यू-राष्ट्र को मान्यता देने के लिए तैयार किया था।

ज्यूधर्मियों के ख़ौफ़ के कारण पॅलेस्टाईन प्रांत से पलायन किये हुए अरबों ने आसपास के अरब देशों में पनाह ली थी। सिरिया के दमास्कसस्थित निर्वासित अरब शिवीर

इसी कारण, बेन-गुरियन द्वारा इस्रायलस्थापना की घोषणा की जाने पर सर्वप्रथम अमरीका ने, ब्रिटीश मँडेट ख़त्म होने के केवल ११ मिनटों में (रात १२.११ बजे) इस नये ज्यू-राष्ट्र को – इस्रायल को अनौपचारिक रूप में (‘डि-फॅक्टो’) अपनी मान्यता दी थी। इस मामले में ट्रुमन ने, उनके लगभग सभी राजनीतिक सलाहगारों का मत इसके विरोध में होने के बावजूद भी, उसे ठुकराकर एक विलक्षण अंतःस्फूर्ति से इस्रायल को मान्यता दी थी।

अमरीका के पीछे पीछे ईरान, ग्वाटेमाला, आईसलँड, निकारागुआ, रोमानिया और उरुग्वे इन देशों ने इस्रायल को इसी तरह तत्काल, लेकिन अनौपचारिक रूप में मान्यता दी।

इस्रायल को बतौर ‘देश’ अधिकृत रूप में (‘डि ज्यूर’) प्रथम मान्यता प्राप्त हुई, वह सोव्हिएत युनियन से, १७ मई १९४८ को। सोव्हिएत के पीछे पीछे झेकोस्लोवाकिया, युगोस्लाविया, आयर्लंड, दक्षिण अफ्रिका तथा पोलंड इन्होंने भी इस्रायल को बतौर ‘देश’ अधिकृत रूप में मान्यता दी।

लेकिन इस्रायलस्थापना की घोषणा का समारोह ख़त्म के सीधे लष्करी मुख्यालय में जा पहुँचे डेव्हिड बेन-गुरियन को इसका आनन्द तक मनाने की फुरसद नहीं थी, क्योंकि एक बार यदि अधिकृत रूप में ब्रिटीश मँडेट ख़त्म हो जाता है, तो ज्यूधर्मियों पर हमला करने की अरब राष्ट्रों की साज़िश के बारे में उन्हें ख़बर मिली थी। वैसा ही घटित हुआ….अचानक देर रात युद्ध के सायरन बजने लगे।

उसी १४ -१५ मई की रात, ब्रिटीश मँडेट ख़त्म होने के बाद लेबेनॉन, जॉर्डन, सिरिया, इराक तथा इजिप्त इन पाँच अरब देशों की सेनाओं ने इस नये ज्यू-राष्ट्र के खिलाफ़ – इस्रायल के खिलाफ़ युद्ध शुरू किया – जो ‘१९४८ का अरब-इस्रायली युद्ध’ म्हणून इस नाम से विख्यात है। सन १९४७ से चल रहे अरब-ज्यू नागरी युद्ध का यह अगला पड़ाव माना जाता है।

इस नवजात ज्यू-राष्ट्र को उसके जन्म से ही, लगातार एक के बाद एक संघर्षों का मुक़ाबला करना पड़ा है, जिनमें से यह पहला युद्ध था।(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

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