८३. ऑपरेशन नाहशॉम और हॅगाना का ‘प्लॅन डी’

८ अप्रैल १९४८ की डेईर यासिन की लड़ाई के बाद, तब तक आक्रमक होनेवाले पॅलेस्टिनी अरब बचावात्मक बन गये; वहीं, तब तक अरबी आक्रमण के खिलाफ़ बचावात्मक भूमिका अपनानेवाले ज्यूधर्मीय आक्रमक बन गये।

जैसे जैसे ब्रिटीश पॅलेस्टाईन प्रांत से निकल जाने की आख़िरी तारीख़ (१४ मई १९४८) क़रीब आने लगी, संघर्ष और भी तीव्र होने लगा। लेकिन अब पॅलेस्टाईन छोड़ने की तैयारी में होनेवाले ब्रिटीश अरब-ज्यू संघर्ष में हस्तक्षेप करनेवाले नहीं, यह जान जाने के बाद धीरे धीरे पूरे पॅलेस्टाईन प्रांत भर में ही ज्यूधर्मियों का ज़ोर बढ़ने लगा।

इस्रायलस्थित विभिन्न स्थान

अरबों का ज़ोर कम पड़ने के कई कारण थे। मज़बूत नेतृत्व का अभाव, जो था उस नेतृत्व पर भरोसा न होना, नेतृत्व में झगड़ें होना, ज्यूधर्मियों की कथित ‘क्रूरता’ की अतिरंजित कहानियों और अफ़वाहों का उफान पर होना; ऐसे कई कारणों से सर्वसामान्य पॅलेस्टिनी अरबों में संघर्ष के प्रति अनिच्छा बढ़ने लगी थी। अल्-हुसैनी का नेतृत्व नकारनेवाले अरब नेताओं की संख्या बढ़ने लगी थी, क्योंकि अरब देशों से प्राप्त हुए हथियारों की एवं अन्य सामग्री की आपूर्ति वह केवल उसके समर्थकों को ही करता था; एत एव अन्य पॅलेस्टिनी स्थानीय अरब नेता उससे खफ़ा हुए थे।

साथ ही, इन अफ़वाहों के कारण सर्वसामान्य अरब जनता के मन में ज्यूधर्मियों को लेकर ख़ौंफ़ बढ़ने लगा और धीरे धीरे डेईर यासिन की तरह ही समूचे पॅलेस्टाईन प्रांत से ही अरब जनता अपना अपना सामान लेकर परिवार के साथ पलायन करने का सत्र शुरू हुआ था।

लेकिन उसीके साथ, ज्यूधर्मियों का ज़ोर बढ़ने लगा, इसके भी कुछ कारण थे। डेव्हिड बेन-गुरियन ने ज्यूधर्मियों के मन में नये से जगायी देशभक्ति, परिस्थिति के अनुसार उन्होंने किया हुआ हॅगाना का पुनर्गठन और आधुनिकीकरण ये कारण तो थे ही; लेकिन इनके साथ एक और अहम कारण था – ‘हॅगाना का प्लॅन-डी’।

हॅगाना ने तैयार किये चार प्लॅन्स (ए, बी, सी, डी) में से यह चौथा प्लॅन था। हॅगाना के इस ‘प्लॅन-डी’ का निश्‍चित रूप में उद्देश्य क्या था, इस बात को लेकर आगे चलकर काफ़ी बहसें छिड़ गयीं, लेकिन उसका प्रमुख उद्देश्य – ‘युनो के पॅलेस्टाईन विभाजन निर्णय के तहत मँडेटरी पॅलेस्टाईन का जो भाग ज्यू-राष्ट्र के हिस्से में आया है, उसपर कब्ज़ा करना; पॅलेस्टाईन प्रांत में ज्यू-राष्ट्र की घोषणा करना; और अरब टोलीवालों से और अरब राष्ट्रों की सेनाओं के संभाव्य आक्रमण से इस ज्यू-राष्ट्र की तथा उसके नागरिकों की रक्षा करना; वैसे ही इस प्रस्तावित ज्यू-राष्ट्र की सीमाओं से बाहर जहाँ ज्यू-बस्तियाँ हैं, वहाँ उनपर कब्ज़ा कर उनकी हिफ़ाज़त करना’ यही था। सन १९२१ में स्थापना हो चुकी हॅगाना ने अब तक समय समय पर आवश्यकता के अनुसार कई ऑपरेशन्स संपन्न किये थे, लेकिन यह ‘प्लॅन-डी’ ऑपरेशन, यह उसका अब तक का सबसे बड़ा और सबसे अधिक सुसूत्रतापूर्वक किया गया ऑपरेशन था, इस बारे में कुछ ख़ास दोराय नहीं है।

इस प्लॅन में, पॅलेस्टाईनस्थित सशस्त्र अरब टोलीवाले और पड़ोस के अरब राष्ट्रों ने अरब लीग के निर्णय के अनुसार भेजी हुई अरब सेना, इन्हें ‘शत्रु’ माना गया था और ये शत्रु ज्यूधर्मियों के खिलाफ़ कैसी कैसी व्यूहरचना कर सकते हैं, इसपर बारिक़ी से विचार कर विभिन्न विकल्पों के बारे में सोचा गया था।

सशस्त्र अरबी सहकर्मियों के साथ अब्दल कादर अल्-हुसैनी

इनमें – शत्रु गॅलिली, नेगेव्ह जैसे अहम भागों पर कब्ज़ा कर उनका अन्य ज्यूधर्मीय भूमि के साथ संपर्क तोड़ सकता है; जेरुसलेम-तेल अवीव्ह-हैफा इन तीन सबसे महत्त्वपूर्ण शहरों पर शत्रु कब्ज़ा कर सकता है; हवाई हमलें कर सकता है; उसीके साथ, इस नये ज्यू-राष्ट्र की अनाज-पानी-रसद की आपूर्ति को तोड़ सकता है, इस प्रकार के विभिन्न विकल्पों के बारे में सोचा गया था। साथ ही, ‘वैसा हुआ, तो उसपर क्या क्या वैकल्पिक उपाययोजनाएँ की जा सकती हैं’ उसपर चर्चा कर विभिन्न उपायों को सुझाया गया था। इतना ही नहीं, बल्कि समझो इस संघर्ष में ब्रिटिशों ने अथवा आंतर्राष्ट्रीय सेनाओं ने हस्तक्षेप किया, तो क्या करना चाहिए, इसके बारे में भी इस प्लॅन में सुस्पष्ट निर्देश थे।

आम तौर पर हालाँकि इस प्लॅन का उद्देश्य ज्यू-राष्ट्र के बाहर के भाग पर कब्ज़ा करने का नहीं था, मग़र फिर भी ज्यू-राष्ट्र से बाहर होनेवालीं ज्यू-बस्तियों से एकदम क़रीब यदि शत्रुपक्ष की बस्तियाँ होंगी, तो उन्हें कम से कम अस्थायी रूप में कब्ज़े में लेना चाहिए; अन्यथा उनका शत्रुपक्ष द्वारा (डेईर यासिन जैसा), अपनी बस्तियों पर हमले करने के लिए बतौर सैनिकी बेस इस्तेमाल किया जा सकता है, ऐसा प्लॅन में सुझाया गया था।

जेरुसलेम की नाकाबंदी के दौरान ज्यूधर्मियों के लिए जीवनावश्यक वस्तुओं के लिए ‘रेशनिंग पद्धति’ लागू हो जाने के बाद, अपने हिस्से का पानी खुद ही उठाकर ले जाते हुए वहाँ की हिब्रू युनिवर्सिटी के सर्वोच्च प्रशासक (प्रोव्होस्ट) प्रो.मायकेल फेकेट

इस प्लॅन की औपचारिक शुरुआत होने से पहले की जानेवाली कार्रवाई को ‘ऑपरेशन नाहशॉम’ यह नाम था। इस अरब-ज्यू सिविल वॉर में, इजिप्त से सैंकड़ों सशस्त्र अरबी टोलीवालों की कुमक लेकर ‘अब्दल्-कादिर अल् हुसैनी’ नामक अरब सेनानी सहभागी हुआ था और उसीके आदमियों ने जेरुसलेम की नाकाबंदी की थी, ताकि जेरुसलेमस्थित ज्यूधर्मियों को अनाज-पानी तक न मिलें। इस नाकाबंदी को तोड़ना अभी भी ज्यूधर्मियों को मुमक़िन नहीं हुआ था।

जैसे जैसे दिन आगे बढ़ने लगे और जेरुसलेमस्थित अनाज-पानी आदि के रिझर्व्ज़् कम कम होते गये; तब यह राशि अब ज़्यादा दिन तक पर्याप्त होनेवाली नहीं है, यह जान जाने के बाद, वहाँ के ज्यूधर्मियों को ज़िन्दगी में पहली ही बार ‘रेशनिंग’ यंत्रणा (हर एक मनुष्य के लिए हररोज़ केवल इतना ही ब्रेड़, इतना ही मक्ख़न, इतनी ही मिल्कपावडर, इतना ही नहीं बल्कि हर एक को पानी भी नापकर, आदि) का अनुभव करना पड़ा। आगे आगे तो पेड़ों के पत्तें (‘मॅलो लीव्हज्’) खाकर रहने की नौबत आयी थी। यह ख़बर जब पड़ोसी अरब राष्ट्रों में पहुँची, तब वहाँ पर पहले से ही विजय का जल्लोष शुरू हो चुका था कि अब ज्यूधर्मीय कभी भी घुटनें टेककर शरण आयेंगे।

अल्-हुसैनी के आदमियों ने नाकाबंदी किये हुए जेरुसलेम की दिशा में, ज्यूधर्मियों के लिए जीवनावश्यक वस्तुओं की राशि लेकर आनेवाला गाड़ियों का समूह

लेकिन वह होना नहीं था! इस ‘ऑपरेशन नाहशॉम’ का मुख्य लक्ष्य, अल्-हुसैनी के आदमियों ने की हुई यह जेरुसलेम की नाकाबंदी को तोड़ना यही था।

इस ऑपरेशन के लिए शस्त्रास्त्र तथा अन्य युद्धसामग्री इकट्ठा करना शुरू हुआ। लेकिन इर्गुन ने उसी दौर में अलग से किये हुए एक ऑपरेशन के प्रतिसादस्वरूप इस इला़के में ब्रिटिशों ने ‘कर्फ्यू’ जारी किया होने के कारण उसमें काफ़ी दिक्कतें आ रही थीं। उसमें से भी हॅगाना मार्ग निकाल ही रही थी। ब्रिटिशों ने बंद की हुई ‘बैत दारास’ एअरस्ट्रिप को एक रात के लिए हॅगाना ने पुनः कार्यान्वित किया और झेकोस्लोव्हाकिया से शस्त्रास्त्र लेकर आये एक ‘डीसी-४’ विमान को अस्थायी रूप में इस्तेमाल किये फ्लॅशलाईट्स की सहायता से वहाँ उतारा। शस्त्रास्त्र निकाल लिए और विमान में पुनः ईंधन भरकर उसे रवाना भी कर दिया। उसी प्रकार, झेकोस्लोव्हाकिया से ही एक बोट में से तेल अवीव्ह बंदरगाह पर आये शस्त्रास्त्र, उसी बोट पर रखे प्याज़-बटाटों की बॅग्ज में छिपाकर हॅगाना के कार्यकर्ताओं ने गुप्ततापूर्वक उतार लिये।

हथियारों की कुमक मिल जाने के कारण हौसला बढ़ चुके हॅगाना के लगभग १५०० लड़ाकू सैनिकों ने ५ अप्रैल से २० अप्रैल १९४८ के दौरान इस ऑपरेशन में हिस्सा लिया। इस घमासान संघर्ष में अब्दल कादिर अल्-हुसैनी मारा गया। उसके बाद अरब सेना का सारा हौसला ही टूटकर मज़बूत सेनापति के न होने के कारण वे दिशाहीन हो गये और फिर लड़ाई का पलड़ा ही पलट गया। उसके बाद १५ दिनों में ही जेरुसलेम के ज्यूधर्मियों तक रसद पहुँचाने में हॅगाना क़ामयाब हो चुकी थी।

लेकिन अब ब्रिटिशों ने ‘हमारा जेरुसलेम में आख़िरी दिन’ के रूप में घोषित की हुई १५ मई १९४८ यह तारीख़ नज़दीक आ रही थी। ब्रिटीश हालाँकि ज्यूधर्मियों के लिए कुछ ख़ास अनुकूल नहीं थे, उनके महज़ वहाँ होने के कारण वहाँ की परिस्थिति आपे से बाहर नहीं हुई थी। लेकिन अब जल्द ही कुछ करना अत्यावश्यक है, ऐसा डेव्हिड बेन-गुरियन को तीव्रता से लगने लगा था….लेकिन क्या?(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

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