८४. १४ मई १९४८

१५ मई १९४८ यह तारीख़ जैसे जैसे नज़दीक आती गयी, वैसे वैसे डेव्हिड बेन-गुरियन अधिक से अधिक बेचैन होने लगे। वैसे देखा, तो पॅलेस्टाईन प्रांत में चल रहे अरब-ज्यू युद्ध में हर जगह ज्यूधर्मियों का ही पलड़ा भारी होता हुआ नज़र आ रहा था और पॅलेस्टाईन भर के अरब निवासी प्राणभय से अपना अपना बोरियाबिस्तरा बाँधकर परिवार के साथ पॅलेस्टाईन प्रांत से भाग जाते हुए दिखायी दे रहे थे।

लेकिन यह हुई अरबों के स्थानिक टोलीवालों से लड़ने की बात। लेकिन जिस जिन पॅलेस्टाईन प्रांत पर का ब्रिटीश मँडेट ख़त्म होगा, उस दिन ज्यू-राष्ट्र पर हमला कर उसे ख़त्म करने की भाषा अरब राष्ट्रों के नेता पहले से ही कर रहे थे। ब्रिटिशों के रहते, कम से कम उनके अधिकार में पॅलेस्टाईन प्रांत होने के कारण अब तक किसी भी अरब देश ने (पॅलेस्टिनी अरबों को युद्धसामग्री तथा सैनिकरूपी गोपनीय सहायता भेजने के अलावा) खुले आम सेना भेजने की हिम्मत नहीं की थी। लेकिन ब्रिटीश मँडेट के ख़त्म होने पर पॅलेस्टाईन प्रांत पर किसी की भी सत्ता न रहने के कारण, अरबों को ज्यूधर्मियों पर हमले करने के लिए अच्छाखासा मौक़ा मिलनेवाला था।

यदि परिस्थिति जैसी है वैसी ही क़ायम रहने दी, तो कल अरबों के खिलाफ़ के युद्ध में ज्यूधर्मीय यदि दुनिया से सहायता की माँग करते, तो वह मिलना मुश्किल हो जाता; क्योंकि पॅलेस्टाईन प्रांत में हालाँकि ज्यू-राष्ट्र की स्थापना करने के लिए ठेंठ युनो के प्रस्ताव के अनुसार ही आंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिली थी, मग़र वह अभी तक अधिकृत रूप में स्थापन नहीं हुआ था। दुनिया की नज़र में ज्यूधर्मीय अभी भी एक ‘समुदाय’ ही थे, ना कि अधिकृत राष्ट्र। दुनिया की नज़र में किसी भी समुदाय की तुलना में, एक देश के द्वारा की गयी विनति को अधिकृत माना जाता है। अतः खुले आम ऐसी सहायता मिलने में कई क़ानूनी दिक्कतें आ सकती थीं।

यही बात बेन-गुरियन को बेचैन कर रही थी। अब जल्द से जल्द ज्यू-राष्ट्र स्थापना की अधिकृत घोषणा करनी ही चाहिए, ऐसी उन्होंने मन में ठान ली।

इस्रायली महिला नेता गोल्डा मायर और ट्रान्सजॉर्डन के राजा किंग हुसैन-१ इनके बीच की पहले की चर्चा सफल हुई होने के कारण बेन-गुरियन ने इस समय भी किंग हुसैन के साथ चर्चा करने के लिए गोल्डा मायर को ही भेजा।

उसीके साथ, राजनीतिक मोरचे पर भी बेन-गुरियन शान्त नहीं बैठे थे। संभाव्य शत्रु के रूप में सामने खड़े रहनेवाले अरब राष्ट्रों में से ‘ट्रान्सजॉर्डन’ के राजा ‘किंग अब्दुल्ला’ के साथ उनके अच्छे संबंध थे। कुछ दिन पूर्व, बेन-गुरियन की प्रतिनिधि के रूप में, किंग अब्दुल्ला से मिलीं गोल्डा मायर की किंग अब्दुल्ला के साथ की उस समय की बैठक अच्छी तरह संपन्न हुई थी।

अत एव इस समय भी बेन-गुरियन ने, इस संभाव्य युद्ध से पहले ही अब्दुल्ला के साथ छिपा समझौता कर, शत्रु की ताकत में हर संभव छेद करने के लिए, गोल्डा मायर को ही किंग अब्दुल्ला के पास भेजा। अरब महिला के भेस में मायर अन्य ज्यू-प्रतिनिधियों के साथ वहाँ गयीं। लेकिन पिछली बैठक के बाद हालात काफ़ी बदल चुके थे और बहुत सारे समीकरण भी बदल चुके थे। इस कारण, इस बार किंग अब्दुल्ला ने, इस संभाव्य युद्ध में ज्यूधर्मियों की सहायता करने का या तटस्थ रहने का भी आश्‍वासन नहीं दिया।

उल्टे – ‘तुम लोग क्यों जल्दबाज़ी में यह ज्यू-राष्ट्र घोषित करने का फैसला कर पेंच को बढ़ा रहे हो? उसके बदले, आप हमारे ट्रान्सजॉर्डन देश में विलीन हो जाइए। आपको हमारे नागरिकों के जितने ही समान हक़ मिलेंगे और हमारी संसद में प्रतिनिधित्व भी मिलेगा, ऐसा मैं आश्‍वासन देता हूँ’ ऐसा लालच दिखाया।

लेकिन गोल्डा मायर ने विनम्रतापूर्वक, लेकिन ठोंस भाषा में किंग अब्दुल्ला के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। ‘पिछले लगभग दो हज़ार सालों से भी अधिक समय तक ज्यू-राष्ट्र की प्रतीक्षा में होनेवाले ज्यूधर्मियों का सपना अब जाकर कहीं साकार होता दिखायी दे रहा है और उसे आप ‘जल्दबाज़ी में’ ऐसा कहते हैं? हाल की राजनीति में इस खाड़ी क्षेत्र में केवल ज्यूधर्मीय ही आपके दोस्त हैं, अन्य लोग दुश्मन हैं इसे आप मत भूलना’ ऐसे शब्दों में मायर ने किंग अब्दुल्ला की बात को ख़ारिज कर दिया।

लेकिन इस बैठक में एकमत न होने के कारण, ज्यू प्रतिनिधिमंडल को खाली हाथ ही लौटना पड़ा। लेकिन एक तरफ़ ये सारी कोशिशों के जारी रहते, बेन-गुरियन ने ज्यू-राष्ट्र की घोषणा के ड्राफ़्ट को अंतिम स्वरूप देने का काम भी क़ानून विशेषज्ञों के द्वारा चालू रखा था।

मूल ड्राफ़्ट में, ‘युनो के ‘पॅलेस्टाईन विभाजन प्रस्ताव’ के तहत ज्यूधर्मियों को जो भूमि प्रदान की गयी है, वही इस नये ज्यूराष्ट्र की ‘सीमारेषा’ के रूप में घोषित की जायें’ ऐसा मुद्दा था। लेकिन बेन-गुरियन ने इस बात का विरोध किया। ‘इस प्रस्ताव के तहत ‘पॅलेस्टाईन प्रांत में ज्यू-राष्ट्र’ स्थापित करने के लिए आंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिली है और उसके अनुसार ही हम यह कदम उठा रहे हैं। लेकिन अरबों ने इस प्रस्ताव को मान्य नहीं किया है और अब वे हमपर, ज़बरदस्ती से युद्ध थोंप रहे हैं, ताकि हमें हमारा यह हक़ न मिलें। अब अरब लोग जिन सीमाओं को मान्य करने के लिए तैयार नहीं हैं, तो हम क्यों उन सीमाओं को हमारे लिए बंधनकारक मानें? अतः, ज्यूधर्मियों को प्रदान की गयी भूमि के अलावा यदि अरबों का कोई भूभाग इस युद्ध में ज्यूधर्मियों के कब्ज़े में आया, तो उसे इस ज्यू-राष्ट्र का भाग माना जायेगा’ ऐसा बेन-गुरियन ने स्पष्ट रूप से कहा। उसके बाद वह ड्राफ़्ट बदल दिया गया। उसीके साथ, भाषाओं के इस्तेमाल के लिए हालाँकि आज़ादी दी जानेवाली थी, इस नये ज्यू-राष्ट्र की राजभाषा ‘हिब्रू’ ही होगी, ऐसा भी मुद्दा समाविष्ट किया गया।

साथ ही, ‘यह ज्यू-राष्ट्र ईश्‍वर का है’ ऐसी हालाँकि अधिकांश ज्यूधर्मियों की मान्यता थी, मग़र उसका अधिकृत रूप में घोषणापत्र में समावेश करना है या नहीं, इस मुद्दे को लेकर भी थोड़ी बहस हो गयी। पारंपरिक ज्यूधर्मीय सदस्यों का आग्रह था कि समावेश किया जायें; वहीं, धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर) और समाजवादी (सोशालिस्ट) सोच होनेवाले ज्यूधर्मीय सदस्यों का उसे विरोध था। डेव्हिड बेन-गुरियन ने मध्यममार्ग अपनाया और ईश्‍वर का ठेंठ निर्देश करने के बजाय ‘रॉक ऑङ्ग इस्रायल’ इस बायबल में उल्लेखित शब्दप्रयोग का उपयोग किया गया।

इस्रायल की स्थापना की घोषणा जहाँ की गयी, वह तेल अवीव्ह म्युझियम।

अब मुख्य प्रश्‍न बाक़ी था – ‘इस नये ज्यू-राष्ट्र का नाम क्या होगा?’

‘एरेत्झ इस्रायल’, ‘ज्युडिआ’, ‘ईव्हर’, ‘झायॉन’ ऐसे कई नाम सदस्यों द्वारा सुझाये गये। हर नाम पर कुछ न कुछ आक्षेप (ऑब्जेक्शन्स) उठाये जा रहे थे।

आख़िरकार बेन-गुरियन ने सीधा सरल – ‘इस्रायल’ नाव सुझाया, जो मान्य हो गया।

तेल अवीव्ह स्थित म्युझियम यह समारोह का स्थान था, जिसे आगे चलकर ‘इंडिपेन्डन्स हॉल’ के नाम से जाना जाने लगा। लेकिन सुरक्षा की वजह के चलते इस सारे वाक़ये को लेकर चरमसीमा की गोपनीयता रखी गयी थी। उस दिन समारोह में उपस्थित होनेवाले सब सदस्यों को भी समारोह का निमंत्रण निजी रूप में गोपनीयतापूर्वक दिया गया था।

आख़िरकार ‘वह’ दिन आ ही गया – १४ मई १९४८!

आज ब्रिटीश मँडेट का आख़िरी दिन होनेवाला था। ब्रिटिशों की अधिकांश सेना पहले से ही पॅलेस्टाईन प्रांत से बाहर निकल चुकी थी। बाकी बची सेना और उच्चाधिकारी दूसरे दिन यानी १५ मई १९४८ को औपचारिक रूप में पॅलेस्टाईन प्रांत के बाहर कदम रखनेवाले थे।

दोपहर चार बजे गंभीर वातावरण में डेव्हिड बेन-गुरियन ने अपने औपचारिक ऩक्क़ाशीदार हथौड़े का टेबल पर हल्के से आघात कर समारोह का आरंभ किया….(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

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