नेताजी-३७

देशबन्धु के साथ हुई पहली ही मुलाक़ात में सुभाषबाबू और उनके दिल एक-दूसरे से मिल गये और उन्होंने मन ही मन में देशबन्धु को अपना ‘गुरु’ मान लिया। गुरु की खोज का सफर  आज पूरा हो गया। दोनों ने जी भरके बातें कीं। सुभाषबाबू ने इंग्लैंड़ से उन्हें भेजे हुए दूसरे ख़त में काँग्रेस में वे किन सुधारों को लाना चाहते हैं, इस बारे में सुस्पष्टतापूर्वक लिखा ही था।

Netaji Subhashchandra Bose- सुभाषबाबूउसपर भी सविस्तार चर्चा हुई। उस पत्र की अचूकता के बारे में देशबन्धु के मन में सुभाषबाबू के प्रति सराहना की भावना थी। सुभाषबाबू की ‘प्रॅक्टिकल’ अध्ययनशील वृत्ति की भी उन्होंने प्रशंसा की। घर वापस लौटते हुए सुभाषबाबू का मन उन्हीं योजनाओं के बारे में सोचने में गुम हो गया था।

उसके बाद का १ अगस्त आया। लोकमान्य का पहला स्मृतिदिन और गाँधीजी के असहकार आन्दोलन का पहला वर्धापनदिन। उसके उपलक्ष्य में गाँधीजी ने देशवासियों को विदेशी कपड़ों की होली करने का आवाहन किया। उनके इस आवाहन को देशभर में उत्स्फूर्त प्रतिसाद प्राप्त हुआ। बंगाल में देशबन्धु और सुभाषबाबू, गाँधीजी के आवाहन को बंगालवासियों से भरपूर प्रतिसाद प्राप्त हो, इस उद्देश्य से दिनरात मेहनत कर रहे थे। कोलकाता के ह़जारी पार्क में विदेशी कपड़ों की अभूतपूर्व ऐसी होली की गयी। वह देखते हुए सुभाष को ‘इतिहास दोहरा रहा है’ यह प्रतीत हो रहा था। सोलह वर्ष पूर्व लोकमान्य टिळकजी के नेतृत्व में दशहरे के दिन पुणे में विदेशी कपड़ों की पहली होली जलाकर व्यापारी अँग्रे़ज हुकूमत की जड़ पर ही घाव किया गया था। इसी कार्यक्रम में ‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर’ इस नररत्न का नूर जनता ने देखा था। आज उन्हीं टिळकजी के पहले स्मृतिदिन के अवसर पर पूरे भारतवर्ष में विदेशी कपड़ों की होलियाँ जल रही थीं।

जलती हुई होली की ऊपर उठती हुई लपटों को साक्षी मानकर सुभाषबाबू ने अखण्ड देशसेवा की सौगन्ध खायी। देशबन्धु सन्तोषपूर्वक सुभाषबाबू को निहार रहे थे। सुभाषबाबू जैसे चैतन्यमय युवा लहू के प्रपात के आ मिलने के कारण कार्य की बढ़ी हुई ऱफ़्तार को वे देख रहे थे।

भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम में सुभाषबाबू ने प्रत्यक्ष रूप में पहला कदम रखा था।

सुभाषबाबू ने इंग्लैंड़ से देशबन्धु को लिखे हुए ख़त में अध्यापन एवं लेखन ये मेरे पसन्दीदा क्षेत्र हैं, यह लिखा था। उसके अनुसार दासबाबू द्वारा शुरू किये गये नॅशनल कॉलेज का प्राचार्यपद उन्हें सौंपा गया। इतने दिन तक जिसकी केवल चर्चा ही हो रही थी, उस काम का अवसर प्रत्यक्ष रूप में सामने आने पर सुभाषबाबू ने अपने आप को काम में पूरी तरह झोंक दिया। अपने नये काम की बहुत ही सुसूत्रतापूर्वक कार्यवाही शुरू कर, उन्होंने राष्ट्रीय मानसिकता के नये प्राध्यापकों को नियुक्त किया; सुव्यवस्थित रूप से टाईमटेबल बनाकर फुर्ती  के साथ काम में जुट गये। तत्त्वज्ञान इस चहीते विषय को उन्होंने अपने पास ही रखा और उस माध्यम से मानो ‘देशप्रेम की पाठशाला’ ही शुरू कर दी।

नॅशनल कॉलेज की गाड़ी पटरी पर से आगे बढ़ ही रही थी कि सुभाषबाबू ने एक और महत्त्वपूर्ण काम की शुरुआत की – वह था, समय के साथ हो रहे ध्रुवीकरण में बंगाल के क्रांतिकारी संगठन ‘अनुशीलन समिती’ और ‘युगांतर’ इनके सदस्यों को प्रमुख राजकीय धारा में ले आना। इसवी १९०५  में व्हाईसरॉय कर्झन ने बंगाल का बँटवारा करने के बाद १९०६ से लेकर १९१६ तक का समय बंगाल प्रान्त केवल क्रांतिकारी कृतियों एवं बमविस्फोटों  की गूँज ही सुन रहा था, जिसके प्रमुख सूत्रधार थे – अनुशीलन समिती एवं युगांतर ये क्रांतिकारी संगठन। सरकार की फुटीरनीति  के कारण प्रक्षुब्ध होकर उस दशक में कई बंगाली युवक इन संगठनों के सदस्य बन चुके थे। अरविंदबाबू घोष ने दिनरात मेहनत करके अपने जहाल भाषणों तथा लेखों द्वारा अधिक से अधिक युवकों को प्रेरित कर इस मार्ग की ओर मोड़ा था। फिर सरकार ने भी गिऱफ़्तारी का दौर शुरू करके उनमें से कइयों को तो केवल शक़ के आधार पर गिऱफ़्तार कर जेल में डालना शुरू कर दिया था। सुभाषबाबू जब कोलकाता के कॉलेज में पढ़ रहे थे, तब उनके कॉलेज के तथा कॉलेज के पास के ईडन हॉस्टेल के कई छात्रों को सरकार ने केवल शक़ के कारण बिना पूछताछ के जेल में डाल दिया था। लेकिन सरकार चाहे कितनों को भी जेल में क्यों न डाले, नये सदस्यों की कतार लगातार बढ़ती ही जा रही थी। दरअसल इसी माहौल का असर सुभाषबाबू पर न पड़े, इसलिए जानकीबाबू ने उन्हें उस माहौल से दूर इंग्लैंड़ भेजने का फैसला किया था।

उसके बाद समय के कदम किसी और दिशा में पड़ने लगे। ख़ौलते जनमत के सामने सिर झुकाकर और इन क्रांतिकारी आन्दोलन की नींव को उखाड़ने के उद्देश्य से, इंग्लैंड़ के नये सम्राट पंचम जॉर्ज ने इसवी १९११  में इस पूरे असन्तोष की जड़ रहनेवाला बंगाल का बँटवारा ही – ‘स्वयं के राज्यारोहण के उपलक्ष्य में भारतीय जनता को दिया गया तोहफा’ यह लुभावना नाम देकर – रद कर दिया। उसके बाद इसवी १९१४  में पहला विश्‍वयुद्ध शुरू हुआ और १९१९  में वह समाप्त हो गया। साथ ही १९२०  के बाद भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के टिळकयुग का अस्त होकर भारतीय राजकीय क्षितिज पर गांधीजी रूपी सूर्य का उदय हुआ। देश का स्वतन्त्रतासंग्राम सत्याग्रह के पथ पर से आगे बढ़ने लगा। इस घटनाक्रम के कारण क्रांतिकारी आन्दोलन शिथिल पड़ गया। तब सरकार ने ‘सार्वत्रिक माफ़ी’ (‘अ‍ॅम्नेस्टी’) जाहिर करके कई पुराने क्रांतिकारियों को रिहा कर दिया। लेकिन नये बदलते माहौल में, सत्याग्रह के जमाने के साथ चलना इन क्रांतिकारियों के लिए मुश्किल बन गया और सर्वोच्च द़र्जे का देशप्रेम होने के बावजूद भी, इस नये माहौल में हम किसी काम के नहीं रहे, इस विचार से उनके दिल तड़प रहे थे। साथ ही, अब खाली समय भरपूर होने के कारण वे आपस के पुराने विवादों को छेड़कर एक-दूसरे के साथ झगड़ने में ही उनका वक़्त जाया होने लगा। इन सभी पुराने क्रान्तिकारियों को प्रमुख धारा में लाना आवश्यक है, इसपर ग़ौर करके दासबाबू ने सुभाषबाबू की सहायता से अथक परिश्रम करके उनमें संधि करायी; गाँधीजी के साथ उनकी मुलाक़ात करायी और जिनकी नये मार्ग पर चलकर काम करने की इच्छा थी, उन्हें असहकार आन्दोलन के काम सौंप दिये।

नॅशनल कॉलेज का प्राचार्यपद सुभाषबाबू को बहाल करने के साथ ही, जनसंपर्क के महत्त्व को ध्यान में रखकर देशबन्धु ने उनके पास बंगाल प्रांतिक काँग्रेस के प्रचारविभाग की अगुआई सौंप दी। उस समय काँग्रेस ने असहकार आन्दोलन के पूरक रूप में स्वयंसेवक दल की शुरुआत की थी। उसकी बंगाल शाखा की जिम्मेदारी भी सुभाषबाबू को सौंप दी गयी। अब उन्हें दिन के चौबीस घण्टें भी कम पड़ने लगे। देशबन्धु सुभाषबाबू को इतनी अहमियत क्यों दे रहे हैं, इस बात से नारा़ज हुए कुछ स्थानीय कार्यकर्ता सुभाषबाबू के काम की ते़ज गति को देखकर हक्काबक्का रह गये। समाचारपत्रों को भी सुभाषबाबू के काम पर ग़ौर करना ही पड़ा।

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